आत्मबल सभी प्रज्ञा परिजन अर्जित करें

March 1983

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व्यक्ति की अपनी समस्यायें हैं और समाज की अपनी। स्वास्थ्य, सन्तुलन, वैभव, ज्ञान, प्रभाव कौशल आदि निजी जीवन की सफलताएँ हैं। इसी के साथ पारिवारिक सौमनस्य भी सम्मिलित है। व्यक्तिगत जीवन आमतौर से इतनी ही परिधि में परिभ्रमण करता रहता है पर वस्तुतः वह उतना सीमित है नहीं। विकास क्रम में एक कदम आगे बढ़ाते ही उसे शरीर और परिवार से- पेट और प्रजनन से- आगे की भी बहुत सी बातें दीख पड़ती हैं और लगती है उसे कूप मंडूक की तरह- गूलर के भुनगों की तरह- पिंजड़े के पक्षी की तरह सीमाबद्ध होकर रहना अशोभनीय है

उसकी सत्ता एवं गरिमा व्यापक है। व्यापकता के साथ ही उसका सम्बन्ध जुड़ना चाहिए। संकीर्णता को ही भव बंधन कहा गया है। विशालता के क्षेत्र में प्रवेश करने का नाम ही जीवन मुक्ति है। मोक्ष, जीवन लक्ष, पूर्णता, आत्म-दर्शन, ईश्वर प्राप्ति आदि नामों से इसी स्तर की- स्थिति की- व्याख्या विवेचना की जाती है। कथा प्रसंगों में जिस-तिस प्रकार से इसी अवलम्बन को अपनाने की प्रेरणा दी जाती है।

वैसे इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए राजयोग, हठ योग, प्राणयोग, लययोग, कुण्डलिनीयोग की अनेकों साधनाएँ भी की जाती हैं। किन्तु स्मरण रखने योग बात एक ही है उन सभी फसलों का उगना और फलना-फूलना तभी संभव है जब खाद पानी वाली उपयुक्त भूमि पर उन्हें बोया जाय। यह मनुष्य का चिन्तन और चरित्र ही है जिसे महानता सम्पन्न व्यक्तित्व कहते हैं। यदि उसकी उपेक्षा की जाय और मात्र क्रिया-कृत्यों के साथ दिव्य विभूतियों, सिद्धियों को अर्जित करने की बात सोची जाय तो यह उपहासास्पद होगा। मात्र कृत्यों के आधार पर जो चमत्कार दिखाये जाते हैं उन्हें जादूगरी बाजीगरी कहते हैं। अध्यात्म उससे भिन्न है उच्चस्तरीय है। उसमें कहने योग्य सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्तित्व के परिष्कार से बच निकलने का कोई सरल सस्ता मार्ग ढूंढ़ निकालने की गुँजाइश है नहीं। यही कारण है कि आमतौर से आध्यात्मिक साधनाएँ या चर्चा करने वाले निराश देखे जाते हैं। उनकी वह निष्ठा भी चली जाती है जो आरम्भ करने से पूर्व थी।

स्वाध्याय सत्संग से लेकर पूजा-अर्चा तक के विभिन्न उपचारों का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य को वस्तुतः ऊँचाई की ओर उछाल देना है। कामना से भावना के- क्षुद्रता से महानता के- बन्धन से मोक्ष के- नरक से स्वर्ग के- क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए एक ही राजमार्ग है कि मनुष्य स्वार्थ को परमार्थ में बदले। महानता इसी को कहते हैं। इसी में मानव जीवन की समग्र गरिमा केंद्रीभूत है। इस स्तर को अपनाने वाला ही यह गर्व गौरव अनुभव कर सकता है कि उसे मनुष्य जन्म का जो अनुपम अनुदान सृष्टा ने बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाते हुए प्रदान किया था, उसे सार्थक कर दिखाया। नर-वानरों की तरह- नर पासदों की तरह पेट प्रजनन के लिए जीने वाले कृमि कीटकों जैसा जीवन गुजार देना, किसी विवेकशील के लिए लज्जा की बात है। इन पाषाण हृदयों को क्या कहा जाय जिन्हें अपने चारों ओर के चीत्कार ही सुनाई नहीं पड़ते।

बात यहाँ पत्थरों की नहीं मनुष्य की हो रही है। उन मनुष्यों की जिनकी छाती में हृदय धड़कता है। जिनमें भावना, सम्वेदना, करुणा नाम के तत्व किसी न किसी अंश में जीवित हैं। जिनमें ममता, आत्मीयता, शालीनता, स्नेह सौजन्य के रूप में मानवी गरिमा की झाँकती दृष्टिगोचर होती है। ऐसे लोगों को यह मानकर चलना होगा कि यह विराट विश्व ही ईश्वर की साकार प्रतिमा है और उसकी पूजा-चर्चा के लिए उन्हें अपने श्रम स्वेद का गंगाजल समर्पित करना है। अपने समय और चिन्तन के एक अंश श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत करते रहना है। अपनी कमाई को अपने ही उदर में ठूंसते नहीं रहना है वरन् जो मिलता है उसे मिल-बाँटकर खाना है।

जागृत आत्मा शब्द यहाँ मात्र ऐसे ही लोगों के लिए किया जा रहा है। युग प्रहरी, सृजन शिल्पी प्रज्ञा परिजन जैसे शब्द भी ऐसे ही भावनाशीलों के लिए इन पंक्तियों में प्रयुक्त किये जाते रहे हैं और कहा जाता रहा है कि इन विनाश विभीषिकाओं से भरे आपत्ति काल में उन्हें हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना चाहिए। मूक दर्शक बनकर नहीं रहना चाहिए। ऐसे ही लोगों से यह अनुरोध किया जाता रहा है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना में उनका भी कुछ योगदान तो होना ही चाहिए।

युग देवता की याचना को किसी भी भावनाशील ने विमुख नहीं लौटने दिया है। शबरी, गिलहरी, केवट, गिद्ध तक ने उसकी हथेली पर कुछ रखा था। रीछ वानरों, ग्वाल-वालों, बौद्ध परिव्राजकों और सत्याग्रहियों ने जो सम्भव था किया था। हजारी किसान तक के हृदय में परमार्थ की उमंग उठी थी। पिसनहारी तक ने दो पैसे रोज बचाकर कुंआ बनवा दिया था। हमें इतना कृपण नहीं होना चाहिए कि इस विषम बेला में सर्वत्र संव्याप्त त्राहि-त्राहि की घड़ियों में अपने समय का- अर्थ साधनों का- एक छोटा अंश निकालने की युग याचना के प्रति सर्वथा निष्ठुर बना रहे। अब हमें एक दो कदम परमार्थ क्षेत्र में भी धरने चाहिए और सोचना चाहिए कि जब मरणासन्न वर्षा भगवान की हथेली पर अपने स्वर्ण मंडित दांत उखाड़कर रख सकते हैं। सुदामा अपना पेट काटकर छोटी पोटली में बँधे चावल अपने प्रिय सखा की हथेली पर रख सकते हैं तो हमीं क्यों ऐसे निष्ठुर रहे कि लेने के लिए दुनिया भर की आल्ही गावें और देने के समय ठेंगा दिखायें।

यदि किसी के मन में इस ऐतिहासिक बेला में परमार्थ वृति की दबी चिनगारी चमके तो उसे मात्र एक ही बात सोचनी चाहिए इन दिनों संव्याप्त आस्था संकट के निवारण में कुछ पुरुषार्थ भी किया जाय। लोक-मानस के परिष्कार प्रयास में कुछ योगदान किया जाय। आज न धन की कमी है न साधनों की, न शिक्षा की कमी है न कला की, न शास्त्रों की, न चतुरों की। कमी एक ही पड़ रही है कि आदर्शों को जीवन में उतारने वाले- ऐसे मनुष्य ढूंढ़े नहीं मिलते जिन्हें देवता न सही कम से कम मनुष्य तो कहा जा सके। वंश के ब्राह्मणो और वेष के साधु बरसाती मेंढकों की तरह दिन दूने रात चौगुने बढ़ते जा रहे हैं। न मंदिरों की कमी है न कथा कीर्तनों की। अभाव उन देव मानवों का होता जा रहा है, जो उदात्त भावनाशील एवं आदर्शवादी कहा जा सके। ऐसे ही लोग अपना पराक्रम, कौशल और साधनों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगा सकते हैं। उन्हीं के संपर्क, सान्निध्य, प्रभाव और अनुकरण से महामानवों की पीड़ी उपजती है। कहना न होगा कि इस संसार का सच्चा सौभाग्य ऐसे ही सद्भाव संपन्नों पर अवलम्बित है जो चन्दन तरु का, स्वाति बूंद का, पारस पत्थर का, कल्प वृक्ष का जीवन्त उदाहरण बने। जलते दीपक से बुझे दीपक जलते हैं। जलती आग की निकटता से गीले उपले ज्वलन्त अंगारे बनते हैं।

किसी देश, धर्म, समाज, वंश या समय का सौभाग्य एक ही है कि उसमें महामानव जन्में। जीवन्त वैभव वे ही होते हैं। कल-कारखाने, अस्त्र-शस्त्र, साधन वैभव, विद्वान कलाकार वास्तविक सम्पदा नहीं है। यह धुंए की तरह उठते और बबूले की तरह बैठते देखे जाते हैं। कोई समय या समाज महामानवों के आधार पर कृत-कृत्य होता है। गाँधी युग में प्रायः दो दर्जन महामानव उस धरती पर उगे थे, उनसे गये गुजरे जमाने में बलिदानियों की सेना खड़ी करदी, अंग्रेजों की जड़ हिला दी और संसार भर की भारती पुत्रों के चमत्कार से दांतों तले उंगली दबाने के लिए विवश कर दिया। भारतीय इतिहास की गरिमा उसके ऋषि कल्प, आदर्शवादी, मृत्यु से खिलवाड़ करने वाले महामानवों की बहुलता पर अवलम्बित है। उनका अभाव रहा होता तो पर्वत जितने ग्रन्थ और आकाश चूमने वाले देवालय भी देश की गौरव गरिमा की राई-रत्ती बढ़ा सकने में समर्थ नहीं रहे होते। प्रशंसा न कुबेर जैसे संपन्नों की है न इन्द्र जैसे बलिष्ठों की। गरिमा तो भागीरथों की- दधीचियों की- बुद्धों की- गांधियों की है वे जहाँ भी, जब भी जन्मने वहीं का वातावरण नन्दन बन जैसा दिव्य और स्वर्ग जैसा चित्र बनाकर रख देगा।

हमारा ध्यान इस तथ्य पर केन्द्रीभूत होना चाहिए कि समय की महती समस्याओं के समाधान में जिस विभूति उपलब्धि की आवश्यकता है वह एक ही है- महामानवों की भावी पीढ़ी। पुराने बुझ चुके या बुझ रहे हैं। जो जीवित हैं उनके अस्त होने की बेला निकट है। जिन्हें अगली जिम्मेदारियां सम्भालनी हैं वे नई पीढ़ी के लोग हैं। अगले दिन घोर संघर्ष के हैं। उनमें अवांछनीयताओं से जूझना है और सत्प्रवृत्तियों के उद्यान लगाना है। यह दुहरा बोझ है, दुहरा पराक्रम। समय इतना कम और संकट इतना सघन कि एक-एक क्षण उसी में खपाना होगा वैभव भी बढ़ता रहे, विलास भी चलता रहे, अहंकारी प्रदर्शन भी जैसे का तैसा बना रहे, साथ ही युग धर्म के निर्वाह कर सकने वाले महामानवों की पंक्ति में भी खड़े रहने का अवसर मिलता रहे। यह विसंगतियां एक साथ निभ नहीं सकेंगी। “हँसहु ठिठाहि फुलावहु गालू” के दो प्रतिपक्षी काम एक साथ कैसे बनें। अमीरी और महानता में से इन दिनों एक ही चयन करना होगा। दो नावों पर सवारी गांठना कम से कम इस विषम बेला में तो बन ही नहीं पड़ेगा।

महानता के अर्जन उपार्जन प्रयास में किसी को, किसी प्रकार का कभी घाटा नहीं हुआ। यह अपडर सर्वथा अज्ञान मूलक है कि परमार्थ परायणों को घाटा सहना पड़ता है और स्वार्थी अनाचारी नफे में रहते हैं। घाटे में महानता नहीं वह मूर्खता रहती है जो महानता की आड में अपनी चमड़ी बनाती रहती है और उचित मूल्य देने से कतराती है। सच्चे अर्थों में महानता के मार्ग पर चलने वाला परीक्षा के दिनों तक ही अपनी सच्चाई और गहराई की जांच पड़ताल कराने में थोड़ी ठोंक पीठ कर सकता है। इसके बाद उसका राजमार्ग हर क्षेत्र सफलता ही प्रदान करता चला जाता है। ऐसे प्रमाणों से इतिहास पुराणों के कलेवर भरे पड़े हैं। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो सच्चे अर्थों में महान बने अन्त तक दृढ़ रहे और पराक्रम से पीछे नहीं हटे।

विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, अंगद को कोई घाटा नहीं पड़ा, भीम अर्जुन अपने बलबूते नहीं श्रेष्ठता का अवलंबन पकड़कर पार हुए। सुदामा ने क्या खोया? तुलसी, सूर, चैतन्य, ज्ञानेश्वर, नानक, कबीर आदि यदि परमार्थ पथ पर न चलते, अपने पूर्वजों के धंधे अपनाये रहते। अन्यान्य चतुर लोगों की तरह पेट और प्रजनन भर में उलझे रहते तो नफा नुकसान का लेखा जोखा लेते समय लाभ में रहने वाले नहीं हानि उठाने वाले ही कहे जाते। शंकराचार्य यदि परमार्थ क्षेत्र में न उतरते, विवेकानन्द ने लोक मंगल के क्षेत्र में प्रवेश न किया होगा। चाणक्य, चरक, व्यास, वशिष्ठ, आर्य भट्ट, नागार्जुन , विश्वकर्मा जैसे परमार्थ परायण यदि चतुरता ही बरतते रहते और अपनी क्षमता को मात्र संकीर्ण स्वार्थपरता में ही खपाते रहते तो निश्चय ही घाटे में रहते। अदूरदर्शी तो बीज बोने वालों को भी मूर्ख कह सकते हैं। उनके लिए तो विद्या पढ़ना, व्यायाम करना, कृषि करना, व्यवसाय में पूंजी लगाना भी बेतुका लग सकता है क्योंकि उन कार्यों में तत्काल तो घाटा ही घाटा है। दूरदर्शिता अपनाने और धैर्यपूर्वक प्रतिफल की प्रतीक्षा करने पर ही यह सिद्ध होता है कि विद्यार्थी, कृषक आदि में से कोई भी मूर्ख नहीं था। एक मक्का बोने पर हजार दाने उत्पन्न होते हैं। एक बाजरा बोने पर जो बालें निकलती हैं, उनमें हजार दाने होते हैं। महानता खरीदने के लिए परमार्थ के पथ पर चलना ऐसा ही है जिसके दूरगामी परिणामों को देखते हुए हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। हानि तो इतनी ही है कि माली को आरम्भ में तो पूंजी मेहनत लगाने और रखवाली के जागरुकता बरतने का झंझट ही उठाना पड़ता है। श्रेय पाने के लिए कुछ तो ठहरना ही पड़ता है। हथेली पर सरसों कहाँ जमती है?

भगवान ने मनुष्य के अन्तराल में बहुत कुछ रहस्यमय छिपा रखा है। वह इतना अद्भुत, इतना रहस्यमय, इतना चमत्कारी है कि उसे देवताओं का प्रतिनिधित्व करने वाला अनुदान कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति न होगी। इसे जगाया जा सकता है उनका प्रत्यक्ष वरदान ठीक वैसा ही पाया जा सकता है जैसा कि किसी अदृश्य लोक से कोई दिव्य अनुदान बरसा हो। इन्हें व्यवहार की सृष्टा में ऋद्धि-सिद्धियां कहते हैं और तत्वज्ञान की भाषा में स्वर्ग मुक्ति। मानवी अन्तरात्मा में दिव्य विभूतियों के भण्डार भरे पड़े हैं जिनसे अपने को धरती के देवताओं में गिने जाने योग्य बनाया जा सकता है और असंख्यों की विपत्तियां हलकी करने तथा ऊँचा उठाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।

युग निर्माण मिशन के सूत्र संचालन अक्सर अपना उदाहरण देते हुए यह बताया करते हैं कि महानता वरण करने का साहस संजोकर उनने गंवाया कुछ नहीं पाया है लागत से हजारों लाखों गुना अधिक। तिहत्तर वर्ष की आयु में युवकों जैसा स्वास्थ्य, उत्साह और मनोबल प्रज्ञावानों जैसी बौद्धिक प्रखरता लाखों व्यक्तियों का स्नेह सम्मान और सहयोग- स्वर्ग जैसी अनुभूति हर समय कराते रहने वाला आत्म सन्तोष- सभी महंगी आवश्यकता को जुटाते रहने वाला अर्थ सन्तुलन- लोकहित के निमित्त किये गये प्रयासों के आधार पर चिरकाल तक विस्मृत न होने वाला यश- दैवी अनुग्रह का अनवरत अनुदान जैसे प्रतिफल ऐसे हैं जिसे उनकी जीवन यात्रा के मार्ग पर मिलने वाले मील के पत्थर कहा जा सकता है। वह दूसरों को क्यों नहीं मिलता? इसका रहस्य समझाते हुए वे अध्यात्म की सुविस्तृत परिभाषा किया करते हैं कि यह दृष्टिकोण, स्वभाव, व्यवहार एवं निर्धारण में आदर्शवादिता का समावेश करने का प्रयास भर है। यदि उसे छोड़ दिया जाय और पूजा पत्री की टण्ट-घण्ट भर से देव दर्शन, या मनोकामना पूर्ति के चमत्कारों का मनोरथ बाँधते रहा जाय तो उतने भर से काम नहीं चलेगा और निराशा का भाजन बनना पड़ेगा।

प्रज्ञा परिजनों में से जिन्हें भी महानता का पथ गरिमामय दीखता है उन्हें खरीदने के लिए साहस जुटाना चाहिए और प्राथमिक प्रयत्न के रूप में आत्म निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म विकास की साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। यह किन परिस्थितियों में- किस मात्रा में, किस प्रकार, क्या करना चाहिए इसी का प्रशिक्षण इन दिनों शांति-कुज के विभिन्न साधना सत्रों में चलता रहता है। यह अपने युग की महती आवश्यकता है कि 450 करोड़ के मनुष्य समुदाय में अधिक न सही 4500 मनुष्य ऐसे निकले जो सच्चे अर्थों में महामानव बनने की ठान ठाने, साध साधें तो काम चल जाय। लाख पीछे एक मनुष्य भी यदि सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी बन सके तो समझना चाहिए कि युग समस्याओं के समाधान का पथ प्रशस्त हो गया और जिस व्यवधान के कारण असंख्यों को रोते, कलपते जीवन जीना पड़ता था, उन सभी के परिभ्रमण का सुदिन आ गया।

विसंगत, काल्पनिक और जादुई अध्यात्म की विडंबना ही इन दिनों जहाँ-तहाँ दीख पड़ती है। ऐसा अध्यात्म विज्ञान जिसे अपनाकर मनुष्य उसकी गरिमा स्वयं अनुभव कर सके और दूसरों को करा सके, एक प्रकार से लुप्त प्रायः हो गया प्रतीत होता है। समय आ गया है कि आत्म-शक्ति उभरे- उसके सहारे प्रयोक्ता को हर प्रकार का श्रेय सन्तोष मिले- इस उपलब्धि का उसके क्षेत्रों को ही नहीं समस्त विश्व को लाभ मिले- ऐसे अध्यात्म प्रयोग परीक्षण, अनुभव और अभ्यास अविलम्ब चल पड़े और उसके लिए प्रज्ञा परिजनों का उत्साह अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई पड़े। यह बात हर किसी को कर लेनी चाहिए कि भौतिक विज्ञान के सदुपयोग में जिस प्रकार लाभ ही लाभ उठाया गया है उसी प्रकार उससे ही महत्वपूर्ण आत्म विज्ञान के प्रयोग का घाटा नहीं उठायेंगे वरन् लाभ में ही रहेंगे।

इस प्रयोजन को अधिक व्यावहारिक रूप में समझने और जो अपने उपयुक्त हो ऐसा कुछ प्रयास आरम्भ करने के लिए शान्ति-कुँज में चल रहे सत्रों में सम्मिलित होने और तथ्यों को अधिक अच्छी तरह समझने तथा अनुभव में उतारने का लाभ लेना चाहिए। हर महीने एक-एक मास के- दस-दस दिन के सत्र चलते हैं। अब तो तीर्थयात्रा के निमित्त आने वालों के लिए तीन दिन की सत्रों की व्यवस्था करदी गई है। जो मात्र दर्शन झांकी करने आते हैं उन्हें भी एक घंटे रुकने- कुछ समझने और अपनाने की प्रेरणा मिल जाती है। प्रज्ञा परिजनों की महानता के प्रति अपनी आस्था विकसित करनी चाहिए। समय की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इसी वर्चस्व को उभारना और व्यापक बनाना चाहिए। इस प्रयोजन में जिन्हें उत्सुकता हो उन्हें शान्ति-कुँज की सत्र योजना के साथ अपना संपर्क जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए भले ही वह एक साथ लम्बे समय तक न सही थोड़ा-थोड़ा करके खण्डों-खण्डों में ही क्यों न चलता रहे।


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