विचित्रताओं से भरापूरा- यह संसार

March 1983

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गंगा यो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है, पर उसके बीच-बीच में कई स्थानों पर ऐसे मोड़-मरोड़ हैं जिनमें वह दिशा लगभग उलट सी जाती है। उत्तर काशी में कई मील तक गंगा दक्षिण से उत्तर की ओर बहने लगी है। यही क्रम वाराणसी में दुहराया गया है। हवा में चक्रवात और पानी में भंवर भी सामान्य प्रवाह में व्यतिक्रम ही उत्पन्न करते हैं। यद्यपि होते वे भी किसी प्रकृति नियम के अंतर्गत ही है। भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट आदि की घटनाएं आकस्मिक अप्रत्याशित होती हैं, आश्चर्यजनक लगती हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे प्रकृति नियमों के अंतर्गत नहीं हैं। यह बात दूसरी है कि उनके कारण एवं रहस्य मनुष्य की पकड़ में अभी न आए हों।

सामान्य व्यवस्था से भिन्न प्रकार के आश्चर्य जब दृष्टिगोचर हों तो यह नहीं समझा जाना चाहिए कि प्रकृति क्रम अनगढ़ है और कुछ भी उलटा-पुलटा होता रहता है। नियति के सुनियोजित व्यवस्था क्रम में इस प्रकार के व्यतिरेक की सम्भावना कहीं भी नहीं है।

प्रकृति के अनुसन्धान क्रम में यह तथ्य भी ध्यान रखने योग्य है कि घटनाओं और संभावनाओं में ऐसे मोड़ भी विद्यमान हैं जो सर्वदा नहीं यदा-कदा ही दृष्टिगोचर होते हैं। सामान्यतया इन्हें देखकर कौतूहल का आनन्द लेने की बात ही बन पड़ती है किन्तु विज्ञजनों के सामने यह चुनौती आती है कि वे प्रवाह क्रम को ही अकाट्य न मानें वरन् प्रकृति के अन्तराल में चलते रहने वाले चित्र विचित्र मोड़-मरोड़ों की संभावना भी ध्यान में रखे और उनके कारणों को खोज निकालने और अधिक रहस्यों का उद्घाटन करने हेतु दत्त चित हों।

गुरुत्वाकर्षण के नियम को शाश्वत माना जाता है। कोई भी घटना गतिक्रम जो इसके विपरीत हो, हमें स्वीकार नहीं। परन्तु पृथ्वी पर एक स्थान ऐसा है जहाँ यह नियम काम नहीं करता और बार-बार सोचने पर विवश कर देता है कि ऐसा क्यों व कैसे होता है? अमेरिका के ओहियो प्रान्त की क्लीवलैण्ड नगरी से तीस मील पूर्त्र की ओर किर्टलैण्ड पहाड़ी पर चढ़ने का प्रयास करें तो तली में खड़ी मोटर गाड़ी अपने आप बिना प्रयास सड़क पर चलती हुई चोटी तक पहुँच जाती है। इस टीले के अलावा इस शाँत स्थान पर और कुछ विशेष है नहीं। लेकिन मात्र इस चमत्कार को देखने के लिए कई पर्यटक प्रतिदिन यहाँ आते हैं। पहाड़ी की तलहटी पर चलती गाड़ी का इंजन बन्द करने पर ब्रेक से पैर हटाते ही गाड़ी धीरे-धीरे पहाड़ी चढ़ने लगती है। आरम्भ में तो गति धीमी रहती है परन्तु धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते यह 20 से 24 किलोमीटर प्रति घंटे की चाल पर चलते हुए चोटी पर पहुँच जाती है, बहुसंख्य व्यक्ति प्रकृति के आश्चर्य भौतिकी का उपहास उड़ाने वाले इस दृश्य की स्वयं अनुभूति करने के लिए अपनी गाड़ी लेकर आते व आनन्द लेकर चले जाते हैं। इस ‘ग्रेवीटी हिल’ नाम भी दिया गया है जहाँ चौदह टन भार की गाड़ियां बिना ऊर्जा अथवा शक्ति के अपव्यय के यात्रा करती देखी जाती हैं।

‘टाइम पत्रिका के 24 अप्रैल 1944 अंक में एक घटना प्रकाशित हुई थी जिसने पाठकों को चौंका दिया था। डकोटा प्रान्त (अमेरिका) के रिचर्डसन नगर में एक महिला अध्यापिका पाल्मिन रैवेल आठवीं कक्षा के बच्चों को पढ़ा रही थीं कि एकाएक उस कमरे में गर्म करने को रखी अंगीठी के कोयले स्वयं प्रज्वलित होने लगे। थोड़ी ही देर में वे उछलकर दीवारों से जा-जाकर टकराने लगे। कुछ छात्रों को भी लगे। इसके बाद अंगीठी स्वतः दूसरी जगह जाकर खड़ी हो गयी एवं वहाँ रखी पुस्तकों का बन्डल तेजी से जलने लगा। श्रीमती रैवेल व अन्य बच्चे तमाशा देख ही रहे थे कि एक बच्चे की सूचना पर फायर ब्रिगेड आ पहुँची। अग्नि उससे भी शान्त नहीं हुई। कुछ मिनटों बाद वह स्वतः शान्त हो गयी। वैज्ञानिकों ने इस विचित्र अग्निकाण्ड की जाँच की लेकिन कोई कारण वे खोज नहीं पाए।

भारत में तो उत्तराखण्ड में स्थान-स्थान पर गन्धक की चट्टानों के समीपस्थ जलाशय तप्त कुंडों के रूप में प्रसिद्ध हैं। लेकिन एक ही समुद्र के एक स्थान विशेष पर पानी इतना गर्म है कि उसमें दाल-चावल पकाए जा सकते हैं। यह विश्व का सबसे खारा समुद्र ‘डेड सा’ (मृतक सागर) है जिसके स्कीपा द्वीप (इटली) के फारिया बन्दरगाह के समीपस्थ जल में यह विशेषता है।

गरम और ठण्डे जल के स्रोतों ‘गीजर्स’ के रूप में न्यूजीलैण्ड से लेकर कैलीफोर्निया तक पाए जाते हैं जिनमें पृथ्वी की अन्तर्त्वचा को भेदकर गरम पानी फुहारों के रूप में ऊपर निकलता है। इटली के ही आरमिया क्षेत्र में अपने ढंग का एक विचित्र स्रोत है। उसमें सर्दी के दिनों में गरम पानी निकलता है और भाप के बादल उठते हैं। दर्शक-पर्यटक पास बैठकर ठण्डक भगाते हैं। गर्मी के दिनों में जबकि तापमान लगभग 24-25 डिग्री सेल्सियस औसतन होता है, उसका पानी बरफ जैसा ठण्डा बना रहता है। इतना तापमान भारत के लिये तो सामान्य है परन्तु इटली जैसे देश के लिये गरम ही माना जायगा। ऐसे में सम्भवतः पर्यटकों को राहत देने के लिये मौसम की नब्ज़ पहचानते हुए स्रोत ठंडे पानी की फुहारों से उन्हें नहला देते हैं।

इंडोनेशिया में ‘जिरिनाज’ पर्वत की तलहटी में एक शान्त ज्वालामुखी है। कभी वह गरम लावा उगलता था पर अब वैसा कुछ नहीं है। फिर भी ऊपर के वातावरण में उसका चुम्बकीय चक्रवात अभी भी विद्यमान है। एक चपटा-सा बादल उसके गतिचक्र में इस प्रकार फंसा है कि वह इस परिधि से बाहर नहीं जा सकता। वह उस शिखर के ऊपर ही मँडराता एवं चक्र की तरह अनवरत घूमता रहता है। इसका कारण ज्वालामुखी की नोक से निकलने वाली गरम हवा का कोई विचित्र प्रत्यावर्तन भी समझा जाता है। फिर भी कोई तर्कपूर्ण स्पष्टीकरण अभी तक इस पर कोई नहीं दे पाया।

ऐसे अनेकानेक विचित्र अविज्ञात स्थान हमारी इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं जिनके कारणों की कोई जानकारी वैज्ञानिक समुदाय को नहीं है। वे इसे ‘मिस्ट्री ऑफ नेचर’ कहकर टाल देते हैं जबकि यह क्षेत्र गहन अनुसन्धान का है।

आयरलैण्ड के एण्ट्रिल प्रदेश में एक बड़ी झील है- ‘लोधारिना’। साधारणतया वह पानी से लबालब भरी होती है। किन्तु कभी-कभी एक विचित्र आश्चर्य होता है कि झील का पानी पूरी तरह अदृश्य हो जाता है। मात्र कीचड़ ही उसके स्मृति चिन्ह के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इतना पानी इतनी जल्दी कहाँ चला जाता है, इतना विशाल जलागार कुछ ही घंटों में कहाँ गायब हो जाता है, उसकी खोज मुद्दतों से चल रही है लेकिन अभी तक किसी निष्कर्ष पर पहुंचना सम्भव नहीं हो पाया है।

आस्ट्रिया के टोर्न नामक पर्वत का नोडेन जल प्रपात संसार के प्रकृति आश्चर्यों में से एक है। यह झरना यों निरन्तर गिरता रहता है लेकिन तीसरे पहर ठीक 3.30 पर उस पर एक इन्द्र धनुष उदय होता है। उसका समय इतना सुनिश्चित है कि लोग उससे अपनी घड़ी मिलाकर टाइम सही करते हैं।

आस्ट्रेलिया में एक चलती-फिरती पहाड़ी है। यह ग्रासमीन के नाम से प्रसिद्ध है और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहती है। यह पहाड़ी एक छोटे ग्राम एवं होटल की तरह है। वह अपना स्थान बदलती रहती है। कभी यहां तो कभी वहां स्थान बदलती रहती है। कारण यह बताया जाता है कि उसकी तली में 200 फुट मोटी नमक की चट्टान है। पहाड़ की जड़ इसी पर टिकी हुई है। नीचे का नमक नमी, गर्मी और सर्दी से प्रभावित होकर उथल-पुथल करता रहता है और पहाड़ी को इधर-उधर खींचता-धकेलता रहता है।

प्रकृति की ये सभी चित्र-विचित्र गतिविधियां यह रहस्योद्घाटन करती हैं कि शोध-अनुसंधान की परिधि बड़ी व्यापक है। हमें अपने व अपने आस-पास के ही कुछ तथ्यों को देख-समझकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि विज्ञान प्रदत्त दृष्टि ने हमें सब कुछ बता दिया है। ईश्वर की लीला विचित्र है। मनुष्य का क्षेत्र सीमित है। फिर भी उद्देश्य यही होना चाहिए कि कारण जानने के प्रयास चलते रहें ताकि मानवी पुरुषार्थ सीमाबद्ध होकर न रह जाय।


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