विज्ञान ने शोध के अनेकानेक आयामों में प्रवेश कर दृश्य जगत की कई पहेलियाँ सुलझाने में सहयोग दिया है। इससे न केवल मनुष्य की जानकारी बढ़ी है, उसे उन अविज्ञात साधनों का उपयोग भी भली-भांति समझ में आ गया जिनका सुनियोजन कर उसने सुविधाएँ बढ़ायी हैं, रोगों से मुक्ति दिलायी है तथा भावी सम्भावनाएँ उज्ज्वल बनायी हैं। लेकिन भौतिकी की शोध करने वाले मनीषियों को अब एक युगानुकूल दृष्टिकोण अपनाकर चेतना के क्षेत्र में भी प्रवेश करना होगा।
आत्मिकी चेतना का विज्ञान है, अविज्ञात के रहस्यों की बहुमूल्य विधा है जिसका सदुपयोग न हो पाने के कारण मानव इस शक्तिशाली भण्डार का लाभ उठा पाने में असमर्थ रहा है। लेकिन इसे मान्यता दे कौन? मात्र आप्त वचनों की दुहाई तो पर्याप्त नहीं। जब तर्क, तथ्य, प्रमाण उदाहरण प्रस्तुत करने की जवाबदारी हर क्षेत्र में विज्ञान ने ले रखी है, पदार्थ ही नहीं चिन्तन पर भी उसका आधिपत्य है तो उसी का यह दायित्व भी है कि वह आत्मिकी के सूत्रों पर प्रयोग-अनुसंधान कर उसे प्रामाणिक ठहराने हेतु वैसा ही वातावरण बनाए, साधन जुटाए तथा ऐसे समस्त उपायों पर मंथन करे जिनके प्रयोग से मानवी काया तथा मनःसंस्थान की प्रसुप्त क्षमताओं को उभारा, जा सके- व्यक्ति को वर्तमान से कहीं अधिक सक्षम, समर्थ, असामान्य बनाया जा सके। अविज्ञात घटनाओं को मात्र संयोग या चमत्कार न कहकर उनकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि में जा पाना तभी सम्भव है जब विज्ञान स्वयं इसका दायित्व अपने हाथ में लेगा।
अध्यात्म के कई उपचार अनुशासन मात्र श्रद्धा पर टिके हैं। कभी समय था, जब संयम-साधना के, योग-तप के इन उपक्रमों को आप्त वचनों के प्रति श्रद्धा के सहारे अपनाया जाना था और वे अपने चमत्कार दिखा पाने में समर्थ थे। अब धर्मश्रद्धा लड़खड़ा गई तो प्रखर तथ्यों के सहारे उस प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है। विज्ञान की साक्षी इन दिनों प्रामाणिकता की परिचायक बन गई है। वरिष्ठता विज्ञान के पलड़े पा जा बैठी है। ऐसी दशा में विचार और भावना क्षेत्र को शालीनता समर्थक बनाने वाले तथ्यों को ढूंढ़ निकालने में उसे अग्रगामी होना चाहिए। यह कार्य तनिक भी कठिन नहीं हैं। प्राचीनकाल में उसे जिस उपचार से सम्पन्न किया जाता था, उसका तर्ज तरीका भर आधुनिक बनाना है। यह निश्चित रूप से सरल एवं संभव हो सकता है।
उदाहरणार्थ मनोविकारों एवं अन्तर्द्वन्द्वों की परिणति शारीरिक-मानसिक रोगों के रूप में होने और उस कुचक्र में फंस जाने पर आर्थिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन नष्ट-भ्रष्ट होने की बात पूर्णतः स्पष्ट है। पुरातनकाल में यही बात पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की बात कहकर हृदयंगम कराई जाती थी। अब उसी को मनोविकारों की परिणति सिद्ध करके व्यक्ति को सदाशयता अपनाने के लिए सहमत किया जा सकता है।
प्राचीनकाल में साधना-निग्रह, आहार-विहार, ध्यान-धारणा, योग-तप जैसे अध्यात्म उपचारों की सफलता में देव अनुग्रह को माध्यम माना जाता था। अब इन्हीं को क्रिया-कृत्यों के सहारे स्वसम्मोहन, अचेतन-परिशोधन, प्रसुप्त शक्तियों का जागरण, संकल्पबल, एकाग्रता एवं इच्छाशक्ति का चमत्कार कहा एवं सिद्ध किया जा सकता है।
मानवी सत्ता में सन्निहित ऐसे अनेकानेक आधार अब विदित उपलब्ध हो गए हैं जिन पर वैज्ञानिक प्रयोग प्रहार करके व्यक्ति की उपयोगी विशेषताओं को उभारा और उसे उनके दृष्टियों से समर्थ बनाया जा सकता है। गुणसूत्र, हारमोन्स, नाड़ी-गुच्छक एक प्रकार से षट्चक्रों, उपत्यिकाओं- महा ग्रन्थियों के परिवार में पुरातनकाल जैसी चमत्कारी भूमिका निभा सकते हैं। अभी व्यक्ति का मात्र रासायनिक पक्ष समझा गया है। उसी को परिपुष्ट करने एवं सुधारने के लिए अहार-विहार, व्यायाम, सर्जरी, औषधि आदि का उपयोग होता रहा है। अब थोड़ा और भीतर उतरा जाये तो जीवाणुओं ऊतकों, न्यूरान्स की मूल प्रकृति में अन्तर ला सकने वाले ऐसे प्रयोग किए जा सकते हैं जो प्राचीनकाल की तरह आत्मशक्ति बढ़ाने वाले नये समय के अनुरूप नये द्वार खोल सकें।
प्राचीनकाल में ऋद्धि-सिद्धियों की चर्चा अपने ढंग से होती थी। आज भी उन प्रसुप्त विशेषताओं का अस्तित्व स्वीकार करने और उन्हें उभारने की सम्भावना पर विज्ञान ने समर्थन की मुहर लगा दी है। सम्मोहन, विचार संचालन, दूर-श्रवण, भविष्य ज्ञान, स्वप्न विज्ञान, ब्रेन वाशिंग, प्राण विनिमय जैसे उपचार अब अध्यात्म न रहकर परामनोविज्ञान की जानी-मानी धाराएँ बन चुकी हैं। इन्हें एक कदम और बढ़ाया जा सके तो बहुचर्चित ऋद्धि-सिद्धियों से आज के मनुष्यों को भी लाभान्वित होने का अवसर मिल सकता है। इन दिनों इन्हें मात्र कौतूहल की तरह देखा समझा जा सकता है पर अगले दिनों इन्हीं उपलब्धियों को बड़े एवं व्यापक रूप में इसी प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है जैसा कि इन दिनों भाप, बिजली आदि का प्रयोग भौतिक क्षेत्र में किया जाता है।
आज व्यक्तित्वों को न केवल श्रेष्ठ वरन् अधिक समर्थ बनाए जाने की भी आवश्यकता है ताकि वह विकृतियों से बचने बचाने में, विपत्ति से जूझने जुझाने में प्रवीण एवं सफल सिद्ध हो सके। यह श्रेष्ठता एवं समर्थता शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक तीनों ही स्तर की होनी चाहिए ताकि मनुष्य की कर्म, ज्ञान एवं भाव की त्रिविधि क्षमताओं को उच्चस्तरीय बनाया जा सके। महामानव-निर्माण का यह समग्र क्षेत्र अनुसंधान प्रक्रिया से गुजरे, यह समय की माँग है।
मनुष्य को सुधारने के लिए आमतौर से वाणी, लेखनी आदि के सहारे प्रशिक्षण भर की व्यवस्था बन पा रही है। पर देखा यह जाता है कि आस्था क्षेत्र में निकृष्टता की जड़ें जमी होने के कारण बाहरी सुझाव तनिक भी प्रभावी सिद्ध नहीं होते। मस्तिष्क की क्षमता समझने-समझाने भर की है। उस सम्बन्ध में तो हर किसी को पहले से ही बहुत कुछ विदित रहा होता है। मानवी सत्ता का उद्गम केन्द्र अन्तःकरण है। उस क्षेत्र में भावनाओं का, मान्यताओं, आकांक्षाओं का साम्राज्य होता है। उसे सँभालने-सुधारने की सामर्थ्य किसी भी भौतिक उपचार में नहीं है। वहाँ तक पहुँच अध्यात्म की ही रही है। अब विज्ञान के सूक्ष्म प्रयोग ऐसे हो सकते हैं जो ब्रेनवाशिंग की तरह आस्था-परिष्कार का उद्देश्य भी पूरा कर सकें। प्राचीनकाल में शक्तिपात, कुण्डलिनी जागरण, षट्चक्र वेधन जैसे उपचारों का आश्रय लिया जाता था। अब अचेतन को प्रभावित करने वाली अभिनव पद्धतियों द्वारा प्रभावित कर सकने वाले उपाय निकल सकते हैं। सामान्य को असामान्य बनाने के लिए भौतिक प्रयोग- परीक्षण चल ही रहे हैं। परखनली से लेकर इलेक्ट्रोड़ो द्वारा मस्तिष्कीय उथल-पुथल कर सकने के उपचार सफलतापूर्वक अग्रसर हो रहे हैं। इस प्रयोग शृंखला में आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाने वाले कई उपचारों ने उत्साहवर्धक सफलता के लिए आशा दिलाई और उत्साह बँधाया है ध्यान एवं प्राणायाय के कई प्रयोग ऐसे हैं जो मानसिक धरातल में आवश्यक उथल-पुथल प्रस्तुत कर सकने में सफल हो सकते हैं।
संक्षेप में व्यक्ति का अतिमानस जगाने- अतिमानव बनने की पूरी-पूरी सम्भावना है। दार्शनिक, विज्ञानी, शासक, मनीषी, अध्यात्मवादी अपने-अपने ढंग से इस सम्भावना के संदर्भ में अपने सुझाव प्रस्तुत करते रहे हैं। आवश्यक इस बात की है कि इस समूचे क्षेत्र को विज्ञान अपने हाथ में ले और देखें कि चिरकाल की व्यवहृत और सफल होती रही मनुष्य में देवत्व के उदय की सम्भावना को वर्तमान परिस्थितियों में, वर्तमान साधनों से किस प्रकार पुनर्जीवित किया जा सकता है। अतीत में चिरकाल तक मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की परिस्थितियाँ बनी रही हैं फिर कोई कारण नहीं कि उस खोयी कड़ी को न जोड़ा जा सके। विज्ञान चाहे तो यह सब कुछ कर सकता है। इसके लिए उसे अध्यात्म का सहयोगी एवं विश्वासी होकर चलना होगा। इस मानवता की यह उससे भी महत्वपूर्ण सेवा है जो कि अब तक विज्ञान ने पदार्थ को अधिकाधिक उपयोगी बनाने की दिशा में सफलता पाकर प्रस्तुत की है।