ब्रह्म विद्या के अनुरूप ज्ञान गंगा का अवगाहन

March 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ब्रह्मविद्या से तात्पर्य है- वह उच्चस्तरीय नीतिदर्शन जिसके पठन-पाठन से व्यक्तित्व आमूल-चूल बदल जाय। इसका शिक्षण भी सार्थक माना जाता है जब इन सिद्धांतों की व्याख्या उचित परिकर में उचित व्यक्ति द्वारा की जा रही हो। सत्परामर्श तो कहीं भी, किसी भी स्थिति में दिया जा सकता है परन्तु आध्यात्मिक काया कल्प जैसा सुनिश्चित परिवर्तन लाने वाला शिक्षण शक्ति सम्पन्न वातावरण में- उचित मार्गदर्शन में ऐसे व्यक्तियों द्वारा ही सम्भव है जिन्होंने स्वयं उन सिद्धांतों का अपने जीवन में अभ्यास किया हो। अपने आपको ही प्रयोगशाला मानकर जिनने इन सिद्धांतों को परखा, कसौटी पर कसा, उनका कहा हुआ हर वाक्य नीति वाक्य, दर्शन का सूत्र बन गया। बुद्ध, ईसा, हजरत मोहम्मद, गाँधी, रामकृष्ण परमहंस को उस श्रेणी में रखा जा सकता है जिन्होंने ज्ञानगंगा बहाई एवं तद्नुरूप स्वयं रूप भी जीवन जिया।

प्रशिक्षण प्रक्रिया की चर्चा की जाय तो उसे दो पक्षों में बाँटा जा सकता है। एक वाणी और दूसरा लेखनी के द्वारा प्रयुक्त स्वाध्याय सत्संग का वार्ता उपक्रम जिसमें कथन और पठन की प्रधानता रहती है। अध्यापक कक्षाएँ पढ़ाते हैं, विद्यार्थी इस ज्ञान को पुस्तकों के सहारे अधिक अच्छी तरह मस्तिष्क में जमाते उतारते हैं। इस समूची प्रक्रिया का प्रभाव मात्र उस बाह्य मस्तिष्क पर ही होता देखा जाता है जिसे व्यवहार में काम आने वाला सचेतन कहते हैं। इसी आधार पर कुशलता भी अर्जित की जाती है। स्कूलों- कॉलेजों- शिल्पगृहों में इसी की धूम रहती है। इसे मात्र योग्यता बढ़ाने वाली शिक्षा कह सकते हैं। बाजारू मूल्य इसी का है। मनोरंजन, व्यवसाय, संपर्क, लोकाचार आदि में इसी कौशल का प्रयोग होता है। आजीविका उपार्जन का यह प्रमुख माध्यम है। कई बार भ्रान्तिवश इसे ‘प्रतिभा’ मान लिया जाता है। मोटी दृष्टि इसी का मूल्यवान करती देखी जाती है।

शिक्षा क्षेत्र की इस विद्या को विशुद्ध रूप से व्यवहार कोशल संबंधी सामान्य ज्ञान कहा जा सकता है। इसमें मात्र भौतिक जानकारियाँ भरी रहती हैं। यों नीति, धर्म, सदाचार, दर्शन, समाज शास्त्र सम्बन्धी विषय भी इसी परिधि में शामिल हैं, पर उस आधार पर जो सीखा-समझा गया होता है, आमतौर से वह जानकारी तक ही सीमित होता है। इन सभी शास्त्रों के ज्ञाता- महाविद्यालयों के शिक्षकगण विद्वान कहे जा सकते हैं, पर यह आवश्यक नहीं कि इस आधार पर जो भी कुछ सीखा समझा गया है, वह मान्यता भी बने और व्यवहार में भी उतरे। शालीनता की पक्षधर बातें कहने वाले प्रवक्ता उस उत्कृष्टता पर सच्चे मन से विश्वास करते हों, उन्हें व्यवहार में उतारते हों, यह कतई अनिवार्य नहीं। कई बार तो कथनी और करनी में सर्वथा प्रतिकूलता दिखाई पड़ती है। इसे ही शैतान के मुंह से बाइबिल का उच्चारण भी कहा जाता है। बोलचाल की भाषा में “पोथी के बैंगन” कहकर इन पर व्यंग्य भी किया जाता है। यह विरोधाभास है तो एक विडम्बना, परन्तु इसका बाहुल्य इतना अधिक दृष्टिगोचर होता है कि उपदेशों का बहिरंग श्रेष्ठतम होते हुए भी उन नीति वाक्यों पर सहज ही विश्वास नहीं होता। लगता है इनकी वाणी प्रभावहीन हो गयी है अथवा सुनने वालों में जड़ता समा गयी है। यदि ऐसा न हुआ होता तो इतने प्रवचनों- कथा उपदेशों-सप्ताह परायणों के होते रहते यह स्थिति क्यों देखने को मिलती। इसका मर्म समझने के लिये हमें रामचरित्र मानस के पृष्ठ उलटने होंगे जहाँ पर रामायणकार ने इस विडम्बना को और भी अधिक उजागर करते हुए एक चौपाई रची है-

“पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जो आचरहिं ते नर न घनेरे।।” जानने पर भी न मानने की बात है तो आश्चर्यजनक, पर देखा उसी का बाहुल्य जाता है। इसलिए भौतिक जानकारियों को ही आमतौर से प्रवक्ता द्वारा सीखा जाता है। नीति धर्म की बातें तो ऐसे ही प्रवंचना मानकर मजाक में उड़ा दी जाती हैं। इस माहौल में लोगों का ऐसा विश्वास बनता जा रहा है कि आदर्श मात्र कथन श्रवण के लिए है, उन्हें व्यवहार में नहीं उतारा जा सकता। बात बढ़ते-बढ़ते अब यहाँ तक पहुँची है कि लोग कथा सुनने या धर्मग्रन्थ पढ़ने मात्र से पुण्य मिल जाने और प्रकरण समाप्त होने जैसी मान्यता बनाते जा रहे हैं। धर्ममंच से जो कहा जाता है उसके सम्बन्ध में कुछ ऐसा ही माहौल बन चला है कि कथन श्रवण के साथ ही धर्मचर्चा का समापन हो जाता है, उसे व्यवहार में उतारना न तो सम्भव है और न आवश्यक है। ऐसा दुस्साहस तो कोई गृहत्यागी-विरक्त-महात्मा ही कर सकते हैं।

उसे विचार क्षेत्र का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भौतिक क्षेत्र में तो शिक्षा और प्रक्रिया जुड़ी और व्यावहारिक मानी जाती रहे किन्तु जीवन परिष्कार के सम्बन्ध में उसे अव्यावहारिक माना जाय। यदि स्थिति ऐसी ही रही तो सोचना होगा कि नागरिकता और सामाजिकता के सिद्धांतों को पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने में भी समय की बर्बादी क्यों की जाय? व्यावहारिक असंगत और अनुपयोगी बातों को फिर पढ़ने सुनने की भी क्या आवश्यकता रही?

इस संदर्भ में शान्त चित्त और गम्भीरतापूर्वक सोचना होगा कि आखिर ऐसा होता क्यों है? जब आदर्शवादिता हर कसौटी पर व्यक्तित्व को परिष्कृत करने और जन-सम्मान सहयोग अर्जित करने में सफल है तो उसका महत्व क्यों नहीं समझा जा रहा है, अपनाने में क्या अवरोध अड़ गया है? इसके उतर में दो कारण हैं एक तो बहुजनों द्वारा अपनाये जा रहे अवाँछनीय प्रवाह प्रचलन का दबाव, दूसरा इस शिक्षण को अचेतन तक उतारने वाली प्रक्रिया साथ न जुड़ने के कारण उसका अपंग रहना। प्रचलन बदलने के लिए ‘विचार क्रान्ति अभियान’ जैसे व्यापक प्रयत्नों की आवश्यकता है किन्तु जहाँ तक विचारणा को- आस्था को प्रभावित करने और दूरदर्शी तथ्यों को हृदयंगम करने का प्रश्न है वहां तक यह समझा जाना चाहिए कि यह कार्य क्षेत्र अचेतन चित्त का है। व्यवहार में कम करने वाले कामकाजी मन-मस्तिष्क का नहीं, इसलिए आदर्शवादी शिक्षण के साथ ऐसे तत्वों का भी समावेश करना पड़ता है जो अचेतन- सुपर चेतन की अन्तःकरण परतों तक अपना प्रभाव पहुँचा सकने में सफल हो सके।

प्रत्यक्ष मस्तिष्क की मन और बुद्धि परत को शिक्षित करना एक बात है और अप्रत्यक्ष अचेतन की- चित्त एवं आस्था मर्मस्थल तक पहुँचकर श्रद्धा विश्वास को जगाना- उत्कृष्टता का पक्षधर बनाना दूसरी। आदर्शों का स्वागत वहाँ होता है जहाँ विवेक है। इन दोनों का मस्तिष्क की भौतिकी सतह पर ठहराव नहीं होता। वहाँ तो फिसलन और दलदल ही भरे पड़े हैं। उथले स्तर पर मनुष्य भी नरपशु है डार्विन ने उसकी व्याख्या नर वानर के रूप में की है। ऐसी दशा में पशु प्रवृत्तियों के धरातल पर न तो दूरदर्शिता के लिए कोई स्थान है और न आदर्शवादी उत्कृष्टता के लिए। पशुओं को आदर्श पालन पर सहमत नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से वे मनुष्य से पीछे हैं। किन्तु वे प्रकृति अनुशासन पालन की दृष्टि से मनुष्य से आगे भी हैं। पतन की व्यापक परम्परा है। उत्थान के लिए कौशल और बल साधन दोनों चाहिए। पानी नीचे की ओर सहज बहता है। ढेला ऊपर से नीचे सहज गिरता है किन्तु यदि उसे ऊपर उछालना हो तो अतिरिक्त प्रयास एवं साधन जुटाने होंगे। मन को कुमार्ग पर सहज लाया जा सकता है। संकीर्ण स्वार्थपरता की निकृष्टता अपनाने के लिए कोई ओछे दुर्बुद्धि व्यक्ति भी सफल हो सकते हैं। यहाँ तक कि कागज पर छपी तस्वीर तक किसी की कामुकता भड़का सकती है किन्तु उच्च उद्देश्यों की ओर आगे चलने ऊँचे उठने के लिए कई विशिष्ट उपकरण चाहिए साथ ही फेंक सकने की क्षमता वाला बल जुटाना पड़ेगा।

आदर्शवादी प्रशिक्षण के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। एक ऐसा प्रशिक्षक जो प्रतिपादित आदर्शों को देर से, सच्चे मन से पालन करता रहा हो। दूसरा यह कि साधक की मनोभूमि मुलायम बनाने वाली श्रद्धासिक्त वातावरण भी ऐसे प्रसंगों में अपेक्षित होता है। तीसरे प्रतिपादन की शैली ऐसी हो जो व्यक्ति की प्रसुप्त मनोभूमि के साथ तालमेल खाती हो।

एक वैश्या जीवन में सैंकड़ों नये व्यभिचारी उत्पन्न कर देती है। एक मद्यष सैकड़ों नयों को वह चस्का लगा देता है। यह प्रभाव इसलिए उत्पन्न होता है कि उनकी कथनी और करनी एक होती है। आदर्शों के प्रतिपादन कर्ता निजी जीवन में छूंछ होते हैं और छद्मों के सहारे अपना छकड़ा घसीटते हैं। ऐसी दशा में यदि उन उपदेशों का प्रभाव न पड़े, अवज्ञा हो, उपहास उड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्राकृतिक रूप में उपलब्ध कच्चे लोहे को पिघलाना और नये रूप में ढालना हो तो भट्टी जैसी गर्मी चाहिए। विवाह एक खास माहौल में हो तो ही उसमें स्थिरता आती है। यों पार्क में बैठकर भी वैसा अनुबन्ध बंध सकता है।किन्तु उसमें उतनी निश्चिन्तता नहीं रहती जितनी कि पंच समुदाय, देव सान्निध्य एवं अग्नि की साक्षी में उस प्रक्रिया को भावभरे वातावरण में सम्पन्न करने से बनती है।

जो जिस भाषा को समझता है उसका उसी में बात करने से प्रयोजन पूरा होगा अन्यथा अन्य भाषा में दी गई सिखावन निरर्थक सिद्ध होगी। यहाँ भाषा से तात्पर्य है- मनोभूमि। जिसका भावार्थ है- लोभ, मोह, स्वार्थ, अहंकार, तर्क, प्रमाण, परम्परा आदि के प्रति झुकाव की जानकारी। जिसके ऊपर जिन आधारों का आधिपत्य है उसे उसी प्रकार के तथ्य तर्क, प्रमाण प्रस्तुत करते हुए सहमत करने का प्रयत्न करना चाहिए। चतुर सेल्समैन अपने माल की विशेषता, किसी को सस्तेपन की, किसी को मजबूती की, किसी को नये फैशन डिजाइन की, किसी को शान-बड़प्पन की विशेषता बताते हुए प्रभावित करते और माल चपेटते हैं। वे ध्यान रखते हैं कि कौन ग्राहक किस रुझान का है। वे माल की संगति उस रुझान के साथ बिठाने की कुशलता का परिचय देते और सफल विक्रेता बनते हैं। ठीक यही बात किन्हीं ऐसे प्रसंगों के सम्बन्ध में लागू होती है जो दैनिक व्यवहार में काम नहीं आते। कल्प साधना के साधकों की मनोभूमि जिस स्तर की है- उन्हें जो उपयुक्त जँचता रहा है उसके साथ भी उस आदर्शवादी शिक्षण की संगति भली प्रकार बैठ जाती है, जो इस अवसर पर सिखाये- हृदयंगम कराये जाते हैं। यहाँ तक कि विशुद्ध स्वार्थान्ध महत्वाकांक्षा और अहंकारी तक में बिना उसके रुझान को चोट पहुँचाये उत्कृष्टतावादी सिद्धांतों को उसी के अनुकूल अनुरूप सिद्ध किया जा सकता है। प्रज्ञा साहित्य की- प्रज्ञा मंच की यही विशेषता है। उसे आज के प्रत्यक्षवादी चिन्तन प्रवाह को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण आदि के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से लिखा और कहा जाता है फलतः उसका प्रभाव भी जन साधारण को अनुप्राणित करता है।

कल्प साधना सत्र में उच्चस्तरीय प्रशिक्षण इसलिए प्रभावी सिद्ध होता है कि उसमें उपरोक्त तीनों ही तथ्यों का सघन समावेश है। जिनका प्रतिपादन है, जो प्रशिक्षण की प्रक्रिया संजोते हैं, वे भले ही स्वयं बोलें या दूसरों की वाणी से अपनी बात कहें हर हालत में उन्हें अध्यात्म प्रवक्ता के लिए आवश्यक कसौटी पर खरा पाया जा सकता है। कथनी और करनी में अन्तर का यहाँ प्रश्न नहीं। गान्धी, बुद्ध आदि के प्रवचन इसीलिए कोई-कोई मानवों के गले उतरे की उनके प्रतिपादन में वचन ही नहीं, चरित्र एवं व्यक्तित्व भी बोलता था। लगभग ऐसी ही प्रेरक परिस्थितियाँ यहाँ भी हैं।

गुरुकुल और आरण्यकों में जिस शिक्षा पद्धति का समावेश था, वह मात्र बौद्धिक ही नहीं था वरन् उसके साथ श्रद्धासिक्त वातावरण का भी समावेश था। यदि ऐसा न होता तो होटलों, प्लेटफार्मों, मेले ठेले जैसे माहौल में प्रवचन के नाम पर धमाल भर मचता रहता, किसी को बदलने ढालने जैसी बात बनती ही नहीं। तीर्थ का तात्पर्य उच्चस्तरीय वातावरण से है। गुरुकुल आरण्यक ऐसी ही विशेषताओं से भरे-पूरे क्षेत्र में अपना उद्देश्य पूरा कर पाते हैं। आज वैसी परिस्थितियां कहीं ढूंढ़े नहीं मिलतीं। आडम्बर खड़े कर लेना- ऐतिहासिक संदर्भों की उस स्थान के साथ संगति जोड़ना एक बात है और हर दृष्टि से आध्यात्मिकता के अनुरूप वातावरण विनिर्मित करना दूसरी। ऐसे स्थानों को एक प्रकार से वातानुकूलित स्तर का कहा जा सकता है। शान्ति-कुँज में अखण्ड-ज्योति, अखण्ड अग्नि, नित्य एक गायत्री महा पुरश्चरण, नित्य चौबीस हजार आहुतियों का हवन, गंगा-हिमालय का मन्दिर, गायत्री महाशक्ति की नियमित पूजा आरती, प्रमुख तीर्थों की नित्य झाँकी, भावोत्तेजक प्रदर्शनी, जड़ी-बूटी उद्यान, कल्प साधकों की साधना तथा शिक्षा, गंगा की गोद- हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की साधना भूमि, गायत्री के दृष्टा विश्वामित्र की तपस्थली, प्राण प्रखरता की प्रचण्ड ऊर्जा, दिव्य सान्निध्य एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन- संरक्षण जैसी विशेषताओं में से एक-एक का पर्यवेक्षण प्रतीत होता है कि यहाँ वह वातावरण विद्यमान है जिसमें मिलने वाली शिक्षा और की जाने वाली साधना सफल सार्थक हो सकती है। ऐसी व्यवस्था बना लेने के उपरान्त ही अब यह साहस किया गया है कि उपयुक्त वातावरण में उच्चस्तरीय साधना करने के लिए साधकों को आमन्त्रित किया जाय और उन्हें त्रिविधि प्रयोजनों की पूर्ति में सन्तोषजनक सहायता कर सकने वाली कल्प साधना करायी जाय।

कल्प साधना में जो कराया जाता है उसकी पृष्ठभूमि तर्क, तथ्य और प्रमाणों के आधार पर नवम्बर 1982 के अंक में भली-भांति समझाई गई है। इसके लिए आवश्यक पाठ्य सामग्री भी छाप दी गयी है और वह प्रत्येक साधक को अनिवार्यतः पढ़ना होता है। सारे साहित्य का सैट सभी के पढ़ने के लिए निःशुल्क वाचनालय में उपलब्ध रहता है। इसके अतिरिक्त वाणी में भी उनका ऐसा समाधान किया जाता रहता है जो शास्त्र कथन, आप्त वचन की दुहाई देकर थोपा नहीं जाता वरन् बुद्धि संगत आधारों पर हृदयंगम कराया जाता है। यही कारण है कि प्रतिपादन और प्रशिक्षण बेबी फूड की तरह पौष्टिक स्वादिष्ट होने के साथ-साथ हाथों-हाथ पचता भी जाता है।

गायत्री तीर्थ की समग्र शिक्षा पद्धति एवं साधना विधि को अध्यात्म विज्ञान की- ब्रह्म विद्या की पृष्ठभूमि पर आधारित किया जा सकता है। यह शिक्षा नहीं विद्या है। “सा विद्या या विमुक्तये।” विद्या वह जो बन्धन मुक्त करे। “विद्ययामृत मश्नुते” विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। डडडडडड हि ज्ञानेन सदृश पवित्र मिह विद्यते” सद्ज्ञान से श्रेष्ठ इस संसार में और कुछ नहीं है- जैसे अगणित सार सूत्रों में जिस ज्ञान गंगा की महिमा पाई गई है उसे अध्यात्म क्षेत्र की वे विभूतियाँ ही समझा जाना चाहिए- जिन्हें श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा के नाम से जाना जाता है और जिनका प्रतिफल ‘तृप्ति’, ‘तुष्टि’ और ‘शांति’ के नाम से बताया जाता है।

आज शिक्षा की नहीं, इसी ब्रह्म विद्या की आवश्यकता है। जानकारियों के पुतले हर जगह एक से एक कीमती परिवेश पहने, पिटारियों में जहाँ-तहाँ सजधज के साथ बैठे, इठते अकड़ते दिखलाई देते हैं। जानकारियों को देने वाली- प्रदर्शन करने वाली संस्थाओं की भी कमी नहीं है। दुर्भिक्ष तो विद्या के क्षेत्र में ही पड़ा है। आत्म-निर्माण का- देवोपम व्यक्तित्व के निखार वाला जीवन्त प्रशिक्षण चिराग लेकर भी कहीं ढूंढ़े नहीं मिलता। मात्र पुस्तकों में ही ऐसे प्रशिक्षण वाले गुरुकुलों का वर्णन पढ़ने को मिलता है। यदि आज ऐसा शिक्षण कहीं हो भी हो तो उसके साथ प्रशिक्षकों का व्यक्तित्व, भावश्रद्धा उभारने वाला वातावरण एवं हृदयग्राही स्तर का प्रतिपादन ढूंढ़ने पर तो गाड़ी बुरी तरह रुककर खड़ी हो जाती है। मन हताश हो जाता है एवं लगता है अब उस स्थिति को लौटा पाना सम्भव नहीं है। गायत्री तीर्थ में आने वाले हर कल्प साधक को यह विश्वास दिलाया जाता है कि स्थिति उतनी निराशाजनक नहीं है। यहाँ प्रयत्न यही किया गया है कि साधकों को अध्यात्म विद्या का लाभ लेने में उन अवरोधों का सामना न करना पड़े जो सर्वत्र नुकीली चट्टानों के रूप में रास्ता रोके खड़े हैं और एक कदम आगे नहीं बढ़ने देते।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118