मनोबल द्वारा आतंक का शमन

March 1983

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सत्साहस जिसे आत्मबल कहते हैं, सामने की कठिन परिस्थितियों को सरल कर सकता है, कठोरों को नरम बना सकता है और आक्रमण की क्षमता को कुंठित कर सकता है।

प्राचीनकाल की ऐसी कितनी ही घटनाएं हैं। बुद्ध ने दुर्दान्त अंगुलिमाल को पानी-पानी कर दिया था। शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, नारद आदि के चरित्रों में ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिनमें उनके प्राण घातक शत्रु भी उनके समक्ष नतमस्तक हो गये थे और विरोध छोड़कर सहयोगी, आज्ञाकारी के रूप में परिवर्तित हुए थे।

चेतना क्षेत्र की इस महती शक्ति का कभी भी कोई भी प्रयोग कर सकता है और उसके चमत्कारी प्रतिफल हाथोंहाथ देख सकता है।

सर्प का एक नाम विषधर है। विषैले जंतुओं में वे ही सबसे अग्रणी होते हैं। यो बिच्छू भी कम जहरीला नहीं, उसके दंश की जलन एवं पीड़ा असह्य होती है जबकि साँप के काटने पर अफीम पीने जैसा नशा ही आता है और पीड़ा नहीं होती। फिर भी सर्प के काटने से जितने मरते हैं, उनकी तुलना में बिच्छू दंश से कम ही मरते हैं। इसके बाद ही अन्यान्य विषैले जंतुओं की गणना होती है।

यो सभी सर्प तो विषैले नहीं होते। उनमें से बहुत से मात्र आकृति की दृष्टि से ही डरावने होते हैं। जहर उनमें नाम मात्र का होता है फलतः काटने पर मरने का खतरा नहीं रहता। विषैले सर्पों की कुछ जातियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें से कुछ तो ऐसी हैं कि काटना तो दूर उनकी फुंसकार भर प्राण हरण कर सकती है। विषधर जातियों में भारत में प्रायः 171 जातियाँ प्रख्यात हैं। इनमें कोबरा, बाइपर करैल, रसैल, घोड़ा पछाड़ , धामन, तक्षक आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।

आमतौर से सर्पों से सभी डरते हैं और उन्हें काल रज्जु मानते हैं, पर अब प्रयोग परीक्षणों में यह सिद्ध हुआ है कि उन पर भी भावना का प्रभाव पड़ता है और यदि उन्हें डराया, छेड़ा न जाय और स्वयं भयभीत न हुआ जाय तो विषैले सर्प भी नरम पड़ जाते हैं और बिना हानि पहुँचाये मनुष्य के साथ रहने के लिए तैयार हो जाते है।

इस अविश्वस्त तथ्य को विश्वस्त सिद्ध करने के लिए दक्षिण भारत में पिछले दिनों ऐसे कई प्रदर्शन हुए हैं जिनमें कुछ साहसी लोगों ने लम्बे समय तक विषधर जाति के सर्पों के साथ निरन्तर रहने का कीर्तिमान स्थापित किया है। इनके निवास ग्रह पारदर्शी काँच के बनाये गये। भीतर हवा, रोशनी पहुँच सके और रहने वाले को शौच, स्नान , भोजन , शयन आदि कि सुविधा रह सके, ऐसे कक्ष बनाये गये। ताकि बाहर के लोग भीतर की गतिविधियों को भली प्रकार देख सकें।

ऐसे प्रदर्शनों का कीर्तिमान स्थापित करने वालों को सर्पों के विषधर होने की बात सिद्ध करनी पड़ती है, साथ ही यदि मृत्यु हो जाय तो उसकी लिखित जिम्मेदारी भी अपनी घोषित करनी पड़ती है।

ऐसे सर्प सान्निध्य प्रदर्शन की एक घटना ‘गिनीज बुक आफ रिकार्डस्’ में भी अंकित है। सन 1979 में एक अठारह वर्षीय अफ्रीकी लड़की लेइथान ड्रेनवर्ग ने 65 विषैले सर्पों के साथ 65 दिन रहने का कीर्तिमान स्थापित किया था। जिसे पिछले दिनों एक दक्षिण भारत के युवक ने तोड़ा व अपना नाम 1982 की रिकार्ड बुक में शामिल करवाया।

इस प्रकार के प्रदर्शन गत दो वर्षों में भारत में बहुत हुए हैं। पूना में नीलम कुमार खरे ने 70 सांपों के साथ 70 घंटे तक रहे। इसके बाद इन प्रदर्शनों की होड़ लग गई। केरल के एक बिजली कर्मचारी टी. बेला युधन ने 75 दिन तक 75 सर्पों के साथ समय बिताया। यह आयोजन बड़ा था। इसे देखने बहुत लोग आये। ख्याति मिली और दर्शकों पर एक रुपया टिकट लगा देने से आजीविका भी अच्छी हुई। तमिल नायडू शिवाकाशी की वेत्रिवन्दन ने 137 साँपों को साथ रहकर दिखाया। भेलापुरम की एक महिला फातिमा बीबी भी इस प्रदर्शन में अपना स्थान बना गई। वे गाड़ी में एक बच्चा भी साथ लेकर काँच के कमरे में सांपों के साथ रहीं।

मदुराई के टी. पी. हारि ने अपने कक्ष में 101 साँप रखे। जिनमें 67 कोबरा, 15 वाइपर 23 करैत और 6 रसैल बिरादरी के थे। एक साँप के काट लेने पर उन्हें अस्पताल भर्ती होना पड़ा और प्रदर्शन बीच में ही छूट गया। वे बच गए पर अभी भी बड़ा संकल्प लेने को कटिबद्ध हैं। कोयम्बटूर में एन. पार्थ सारथी अपना प्रदर्शन 100 दिन तक करने वाले थे। उनके साथ 150 साँप थे। उनने सर्पों के अतिरिक्त काले बिच्छुओं का एक झुण्ड रखा। पर यह प्रदर्शन 34 दिन में ही बन्द करना पड़ा।

अन्तिम सफल प्रदर्शन कोच्चिं का सत्ताईस वर्षीय डाक्टर टायलाम्बी का था। उनने 127 दिन 152 सांपों के साथ बिताये। 12 अक्टूबर 1980 से लेकर 15 फरवरी 1982 तक यह प्रदर्शन चला। इससे आगे की चुनौती आर किसी ने नहीं दी तो उस विश्व रिकार्ड की गिनीज बुक में अंकित करा दिया गया है।

डाक्टर नाम्बी का कथन है कि साँप जहरीला तो अवश्य होता है, पर उसे निर्भयता निश्चिन्तता और स्नेह-सौजन्य की अनुभूति कराई जा सके तो वह सर्प हानि रहित जन्तु है। वह अकारण हमला नहीं करता। डराने और छेड़ने पर ही उसका क्रोध उमड़ता है। यदि उसे दुलार सहकार की अनुभूति कराई जा सके तो वह मनुष्यों से दूर नहीं भागता वरन् उनके साथ रहना पसंद करता है।

विषैले सर्पों के साथ रहकर खतरे भरा जीवन जीकर दिखाने के पीछे प्रदर्शन वृति काम करती है, यह कहना ठीक नहीं। यह तो अन्तः की एक प्रसुप्त सामर्थ्य की नगण्य-सी अभिव्यक्ति भर है। आत्मबल हर किसी की अमूल्य सम्पदा है। शरीर समर्थ हो, भुजाएँ बलशाली हों पर यदि अन्दर से उसका सुनियोजन करने वाली सामर्थ्य न उभर पाए तो वह जीवन भी व्यर्थ है। ऐसा शरीर तो मात्र अपना भार ढोता रहता है। शरीर भले ही बलवान न हो, मन में यदि अनीति से जूझने की, खतरों से खेलने की, आत्म-रक्षा हेतु लड़-भिड़ने की सामर्थ्य है तो ऐसा व्यक्ति कई गुने अधिक शक्तिशाली व्यक्तियों को भी प्रचण्ड आत्म-बल के सहारे परास्त कर देता है।

आत्मबल सम्पन्न मनुष्य किसी से भी नहीं डरता। सर्प से भी नहीं, सिंह से भी नहीं। शिवाजी सिंहनी का दूध दुहकर लाए थे और बालक भरत सिंह शावकों के साथ खेलता था। निर्भयता युक्त आत्मबल के ऐसे चमत्कार कहीं भी देखे जो सकते हैं।


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