अन्तश्चेतना जब जागती है तो भोग में डूबे व्यक्ति को भी सही दिशा देकर वैराग्य की ओर मोड़ देती। मिथिला देश के अधिपति राजा नमि “याव त् जीवेत् सुखं जीवत्...........” मन्त्र को मानने वाले, सदैव विलास में रत, अपनी दृष्टि में सुखी व्यक्ति थे। भोग-विलास की अति की परिणति हुई- दाह ज्वर के रोग में जो भयंकर रूप में उनकी त्वचा को फोड़कर बह निकला। जीवन भार में बदल गया। वे ही सुख-साधन अब भारभूत नजर आने लगे।
वैद्यराज के आदेश से चन्दन का लेप आरम्भ किया गया। राजा के प्रति समर्पित उनकी रानियों ने चन्दन घिसने, परिशोधित करने व अपनी भावनाओं से अनुप्राणित करने का कार्य अपने जिम्मे लिया। अपने प्रति इस अनुराग को देख राजा भाव विभोर हुए लेकिन रानियों के चन्दन घिसते समय चूड़ियों के मिलने से होने वाला शोर उनकी रोगी काया को सहन नहीं हुआ। रानियों ने विकल्प सोचा तथा सौभाग्य सूचक एक-एक चूड़ी रखकर अपना काम चालू रखा। अब वातावरण शान्त था तथा चन्दन का लेप सतत् राजा को दिया जा रहा था।
राजा सहज ही पूछ बैठे- कोलाहल न होने का कारण क्या है? चन्दन यदि घिसा जा रहा है तो क्या रानियों द्वारा नहीं, कहीं और से मँगाया जा रहा है? उत्तर मिला- “हर रानी के हाथ में मात्र एक चूड़ी होने से घर्षण नहीं हो रहा। “राजा को अनायास अन्तर्बोध हुआ। एकत्व की महत्ता उन्हें पहली बार ज्ञात हुई। एकत्व असंगत्व की पराकाष्ठा वैराग्य के रूप में हुई और रोगमुक्त हो वे आत्म साधना के राजपथ पर चल पड़े। उन्हें यह बोध न मिला होता तो सम्भवतः रोगों से ग्रसित वह काया कष्ट निवारण के बाद पुनः उस अधोगामी पथ पर चल पड़ते अन्तबोध- आत्म जागृति की प्रेरणा सदैव मनुष्य को श्रेष्ठ पथ पर ले जाने की होती है। जरा कोलाहल तो थमे, उस ओर ध्यान तो जाए।