मानवी मस्तिष्क-एक जादुई पिटारा

March 1983

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खोपड़ी की चहारदीवारी में जो लिबलिबा-सा पदार्थ भरा है उसका विश्लेषण करने पर वैसा ही आश्चर्य होता है जैसा कि ब्रह्मांड की रहस्यमयी क्षमताओं पर दृष्टिपात करते समय। यह संरचना अद्भुत है। यों शरीर के जीवकोश भी कम रहस्यमय नहीं हैं, पर उनकी प्रधानता शारीरिक गतिशीलता बनाये रहने तक सीमित है। उसे प्रकृति का प्रतिनिधि कह सकते हैं। मस्तिष्क का दर्जा उससे कहीं ऊँचा है। वह ब्रह्मांडीय चेतना का- परमात्मा का प्रतीक है। शरीर पदार्थ विज्ञान है तो मस्तिष्क ब्रह्म विज्ञान। स्वभावतः गरिमा चेतना की ही मानी जायगी क्योंकि शरीर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष गतिविधियों पर उसी का नियन्त्रण है। इतना ही नहीं मस्तिष्क जिस व्यापक चेतना केन्द्र के साथ आदान-प्रदान स्थापित करने में समर्थ है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि परमात्मा और आत्मा के बीच विद्यमान एकात्मता की तरह मस्तिष्क भी विश्व चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहने के कारण उतना ही सशक्त है।

विज्ञान के विद्यार्थी के लिए प्रकृति के रहस्योद्घाटन की तरह ही समझने योग्य मस्तिष्कीय विचित्रता का क्षेत्र भी है। उसे समझा जा सके और सन्निहित संभावनाओं का थोड़ा भाग भी हस्तगत किया जा सके तो प्रकृति सम्पदा के पर्वत जुटा लेने की तुलना में वे मुट्ठी भर चेतनात्मक उपलब्धियाँ अधिक सुखद एवं श्रेयस्कर सिद्ध हो सकती हैं। चेतना विज्ञान का नाम ही ब्रह्म विज्ञान है।

सामान्य जीवन में शरीर यात्रा भर के नगण्य से प्रयत्न चलते रहते हैं फलतः उस छोटे काम के लिए मस्तिष्क का तनिक-सा अंश ही काम में आता है। जो प्रयुक्त न हो वह निष्क्रिय रहेगा ही। यही कारण है कि सर्वजनीन मस्तिष्कीय क्षमता को समूचे समुद्र में से भरे गये एक चुल्लू के बराबर समझा जा सकता है। शेष को समझने, उभारने और अपनाने का प्रयत्न किया जाय तो मानवी वैभव को आज की तुलना में असंख्यों गुना अधिक बढ़ाया जा सकता है।

मस्तिष्कीय विकास की बिजली कभी-कभी कौंधती है तो आश्चर्यचकित ही रह जाना पड़ता है। जो संयोग उपलब्ध हुआ उसे प्रयत्नपूर्वक उगाने-उभारने की पूरी-पूरी गुँजाइश है। आवश्यकता लगनशील प्रयत्नों की है। पदार्थ विज्ञान द्वारा भौतिक उपलब्धियाँ भी इसी मार्ग पर चलते हुए हस्तगत हुई हैं। यह मार्ग आत्मिक विभूतियों के उपार्जन में भी क्रियान्वित होता है।

कुछ वर्ष पूर्व इच्छा शक्ति के चमत्कारों का प्रत्यक्ष प्रदर्शन के लिए डॉ. एलेक्जेण्डर ने एक सार्वजनिक प्रदर्शन मैक्सिको में किया था। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाये बादलों को किसी भी स्थान से- किसी भी दिशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसे ही शकल दी जा सकती है। उन्हें बुलाया जा भगाया जा सकता है। नियत समय पर प्रदर्शन हुआ। उस समय आकाश में एक भी बादल नहीं था। पर प्रयोगकर्ता ने देखते-देखते घटायें बुला दीं और दर्शकों की माँग के अनुसार बादलों के टुकड़े अभीष्ट दिशा में बखेर देने और उनकी विचित्र शक्लें बना देने का सफल प्रदर्शन किया।

अमेरिका के अलवामा राज्य में ‘गाड्स डेन’ नगर के समीप एक इसी प्रकार का आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न युवक फ्रैंक रेन्स रहता है। उसे सिर्फ अंग्रेजी ही आती है। इस युवक की विशेषता यह है कि आप दुनिया की कोई भी भाषा उसके सामने किसी भी लहजे में बोलें, वह आप के साथ-साथ उसी लहजे में धारा प्रवाह बोलता चला जायेगा। एक शब्द के बाद दूसरा कोन-सा शब्द बोला जाएगा यह उसे खुद-ब-खुद मालूम हो जाता है और सेकेंड का भी अन्तर किये बिना वह सारी बातें उस व्यक्ति के साथ-साथ बोलता चला जाता है। इसे देखने में ऐसा लगता है मानो एक ही ग्रामोफोन से बस्टिरियों की तरह दो लाउडस्पीकर जुड़े हुए हों। टी. वी. के कुछ कार्यक्रमों में फैंकरेन्स ने गाने भी गाये। गीत साथ वाले गायक के स्वर लय से मिलाकर इस प्रकार गाया गया मानो फ्रैंक को वह गीत पहले से ही आता हो। एक अन्य अवसर पर रेन्स को लोलोब्रिगिडा नामक एक महिला से पाला पड़ा। वह अनेक भाषाएँ जानती थी, किन्तु फ्रैंक उन सभी भाषाओं को उसी प्रकार दोहराता गया जैसे वह महिला बोल रही थी। लोलोब्रिगिडा ने कुछ बनावटी शब्द भी कहे जिनका न तो कोई अर्थ था न ही वे किसी भाषा से संबद्ध थे। पर फ्रैंक ने उन्हें ज्यों का त्यों दुहरा दिया।

वैज्ञानिकों के लिए अतीन्द्रिय क्षमताएँ चुनौती और गुत्थी बनकर खड़ी हैं जो उनके वैज्ञानिक नियमों को ऐसे लांघ जाती हैं जैसे वायु बहुमंजिली इमारतों को। इटली का गियोवानी गलान्ती रात के अन्धेरे में ऐसे पढ़ता है जैसे सूरज की रोशनी में सामान्य आदमी। जम्मू शिक्षा विभाग के एक कर्मचारी गोपीकृष्ण साधारण हिन्दी पढ़े हैं, छोटी कक्षाओं के अध्यापक थे। एक बार उन्हें ऐसा लगा कि वे कई भाषाएँ जानते हैं। तब से वे जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक, अरबी, संस्कृत आदि कई भाषाओं में न केवल वार्तालाप करने लगे वरन् भावभरी कविताएँ भी रचने लगे। उस विलक्षण उभार के सम्बन्ध में अनेक अनुसंधानकर्ताओं ने खोजबीन भी की है।

जापान के हनावा होकाइशी अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण ज्ञान के अवतार कहे जाते थे। 1722 में जन्म लेकर 101 वर्ष की अवस्था में 1823 में मरने वाले हनावा होकाइशी की 7 वर्ष की अवस्था में नेत्र ज्योति चली गई थी। नेत्रहीन होकर भी उन्होंने 40 हजार से अधिक पुस्तकें पड़ डालीं। बहुत-सी पुस्तकें तो उन्होंने केवल एक ही बार सुनी थीं। उनके मस्तिष्क में ज्ञान का असीम भण्डार जमा हो गया था। अपने मित्रों के आग्रह पर एक पुस्तक लिखाकर उन्होंने तैयार कराई जिसके 2820 खण्ड बने।

स्काटलैंड के जेम्स क्रिस्टन ने 12 वर्ष की आयु में अरबी, ग्रीक, यहूदी तथा फ्लैमिश सहित विश्व की 12 भाषाएँ सीख ली थीं। इसी प्रकार फ्रांस में जन्मे लुईस कार्डक 4 वर्ष की आयु में अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन तथा अन्य योरोपीय भाषाएँ बोल लेते थे। जब वे 6 माह के थे तभी से बाइबिल पढ़ने लगे थे। 6 वर्ष के हुए तो गणित, इतिहास एवं भूगोल के प्रकाण्ड पण्डित बन गये। ऐसे अनेकानेक उदाहरण मिलता हैं जिनमें कम आयु में ही प्रतिभा मुखरित हुई। व्लेहस पास्कल ने 12 वर्ष की आयु में ध्वनि शास्त्र पर निबन्ध लिखकर सारे फ्रांस को आश्चर्य में डाल दिया। जोन फिलिप बेरोटियर को 14 वर्ष आयु में ही डाक्टर आफ फिलॉसफी की उपाधि मिल गई। उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि जो पढ़ते, सुनते उन्हें याद हो जाता और वे हू-बहू वैसा ही सुना देते। ट्रिनिटी कालेज का एक विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में ही एक-दूसरे मैरीलेण्ड कालेज में प्रकृति विज्ञान का प्रोफेसर नियुक्ति हो गया, वह पढ़ता भी रहा और पढ़ता भी। नियुक्ति के समय कुछ डिग्रियाँ दो वर्ष के भीतर प्राप्त कर लेने की शर्त उस पर लगाई गई थी। वह उसने समय से पूर्व ही पूरी कर दी। साथ ही अपने कालेज की पढ़ाई भी यथावत् जारी रखी।

लेबनान के केन्टुकी नगर का मार्टिन जे. स्पैल्डिंग 14 वर्ष की आयु में प्रोफेसर बना। उन दिनों मैरीज कालेज में विद्यार्थी था। किन्तु गणित सम्बन्धी उसकी अद्भुत प्रतिभा को देखते हुए उसे उसी कालेज में उस विषय के प्रोफेसर की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। बड़ा होने पर उसे वाल्टीमोर के आर्क विशप पद पर प्रतिष्ठित किया गया। हालैण्ड-लेडन का जान डाइस्की पूरे 17 वर्ष का भी नहीं होने पाया था कि उसे इंग्लैंड के राजा किंग जेम्स प्रथम ने राजकीय धर्मोपदेशक नियुक्त किया। तब तक वह न केवल धर्म-शास्त्र का विशेषज्ञ बन चुका था वरन् हिब्रू और यूनानी भाषाओं में भी प्रवीण था।

सेना में भर्ती होते समय मारक्लिस डी. नैनाजिस की आयु मात्र आठ वर्ष की थी। इतनी छोटी आयु में उसने यह प्रवेश नियमानुसार नहीं, अपनी विशिष्ट प्रतिभा का प्रमाण देकर पाया था। उसने पूरे 52 वर्ष तक फ्रांसीसी सेना में काम किया। इस बीच क्रमशः ऊंचे पदों का अधिकारी बनते-बनते फील्ड मार्शल बन गया था। इसी पद में सेवा करते-करते उसकी मृत्यु हुई। निवृत्ति के नियम उस पर लागू नहीं किए गए। इंग्लैंड के रोज पब्लिक स्कूल में फिलिप हैरिंधम तब विद्यार्थी ही था। पर विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने उसे पढ़ते रहने के साथ-साथ हैडमास्टर का पद सम्भाल लेने के लिए भी सहमत कर लिया गया। तब वह मात्र 16 वर्ष का था। उसने अपनी शिक्षा जारी रखी और सौंपी गई जिम्मेदारी भी भली-भाती निबाही। एक अंग्रेज कवियित्री अपनी अठारह वर्ष की आयु में ही इतनी ख्याति प्राप्त कर चुकी थी कि उस आयु में नियम के विरुद्ध भी संसद सदस्यता के लिए खड़े होने पर उसे भारी बहुमत से सफलता मिली।

अमेरिकी पाल मार्फी ने स्नातकोत्तर परीक्षा ही नहीं वकालत की पदवी भी 19 वर्ष की आयु में प्राप्त कर ली। इन दिनों परीक्षा देने में आयु का कोई प्रतिबन्ध नहीं था। इसलिए प्रवेश और उत्तीर्ण होने पर तो ऐतराज नहीं उठा, पर कानून की डिग्री देते समय विश्व विद्यालय ने उस पर विशेष प्रतिबन्ध अंकित किया कि वह 21 साल का होने तक वकालत का व्यवसाय न कर सकेगा।

शिकागो विश्व विद्यालय के संस्थापक विलियन रैने हार्वर जब 12 वर्ष के थे तभी उन्होंने माध्यमिक शिक्षा पूरी करके ओहियो कालेज में प्रवेश पा लिया था। कानूनी वयस्कता प्राप्त होने से पूर्व ही उन्होंने प्रख्यात शिकागो विश्वविद्यालय की नींव डाली। प्रभावित जनता ने पूरा साथ दिया और वह विशाल संस्था बन कर खड़ी हो गई। अन्य कालेज उन्हें अपने यहाँ बुलाना चाहते थे इसलिए उनमें से 9 के विभागोध्यक्षों ने त्याग पत्र देकर उनके लिए स्थान खाली किया था।

पैरिस की रायल लाइब्रेरी का सर्वोच्च अधिकारी फैन्कोइसे आगस्टे जब उस पद पर आसीन किया गया तब 12 वर्ष का था और कुछ ही वर्ष बाद वयस्क होने से पूर्व उस संपूर्ण पुस्तकालयों की संचालन समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। उसका पुस्तकीय ज्ञान तथा पुस्तकालयों के संचालन सम्बन्धी कोशल असाधारण था।

फ्राँस की ग्राण्ड असेम्बली की संसद सदस्या जीन बैप्टिस्ट टैसटे को 13 वर्ष की आयु में ही चुन लिया गया था। उसमें उन दिनों बड़े तेजस्वी व्यक्ति ही चूने गए थे। फ्रांसीसी विद्रोह के उपरान्त वही उच्चतम प्रशासन संस्था थी।

विक्टर डी. ज्वाय जब फ्रांसीसी एकेडेमी की सदस्या चुनी गई तब वे 13 वर्ष की थी। उन्हें वाल्टेयर की कृतियाँ कंठस्थ थीं। यह साहित्य 36 ग्रन्थों में है और उसमें तीस लाख शब्द हैं।

जर्मनी के एल्डार्फ विश्वविद्यालय का रीडर काउण्ट वान पैपनेहम नियुक्त हुआ तब वह 14 वर्ष का था। इसके बाद उसने सेना में प्रवेश किया और जीवन भर हर महत्वपूर्ण लड़ाई में प्रमुख पद सम्भालता रहा। उसने छोटी-बड़ी 101 लड़ाइयों की कमान सम्भाली और अन्ततः लड़ते-लड़ते ही शहीद हुआ।

फ्रांस का काउंट डी. टेण्डे बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। 13 वर्ष की आयु में ही उसने अपने कंधों पर अत्यन्त महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व उठाये और हरेक को पूरी तरह निभा कर दिखाया। वह राज्य सभा का सभासद, संसद के एक विभाग का प्रबन्धक, प्रोवेन्स प्रान्त का राज्यपाल, थल सेना का लेफ्टिनेण्ट जनरल और जल सेना का सेनाध्यक्ष था। इतनी छोटी उम्र में इतने महत्वपूर्ण पद उसे शासन ने किसी पक्षपात से नहीं वरन् उसकी प्रतिभा से कायल होकर सौंपे।

यह उदाहरण हर विचारशील को इस दिशा में प्रोत्साहित करते हैं कि संयोगवश प्राप्त हो चुकी मस्तिष्कीय क्षमता को विकसित करने के लिये कारगर प्रयत्न होने चाहिए। सुविधा साधन जुटाने वाले पदार्थ विज्ञान को जितना श्रेय, श्रम, एवं अनुदान मिला है उतना ही आत्म विज्ञान के आधार पर मानसिक क्षमताओं को समुन्नत करने और सच्चे अर्थों में विभूतिवान् बनने के निमित्त भी होने चाहिए। उसके बिना हमारे प्रगति प्रयास अपूर्ण ही बने रहेंगे।


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