“सर्वस्या उन्नतेर्मूलं महताँ संग उच्यते”

March 1983

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पारस के संपर्क में आने पर लोहे का टुकड़ा भी सोना बन जाता है। चन्दन वृक्ष की समीपस्थ झाड़ियां भी सुगन्ध से ओत-प्रोत होती पायी जाती हैं। संपर्क सान्निध्य एवं वातावरण का प्रभाव व्यक्ति को आमूल-चूल बदलकर उसे कहीं से कहीं पहुँचा देता है। ऐसी कई साक्षियाँ हैं जो बताती हैं कि जिन्होंने महामानवों का पल्ला पकड़ा, उनकी दी हुई शिक्षा पर चले तथा उनके संपर्क में रहकर अपने गुण, कर्म, स्वभाव को वैसा ही बनाने का प्रयास किया तो वे भी उसी राजमार्ग पर चल पड़े। शक्तिपात या कुण्डलिनी जागरण होता है अथवा नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से तो कहा नहीं जा सकता, पर तथ्य एवं प्रमाण बताते हैं कि श्रेष्ठ सान्निध्य का प्रभाव इससे कम नहीं होता।

समर्थ गुरु रामदास को योग्य शिष्य की तलाश थी तथा शिवाजी को एक छत्रछाया की। वह सब उन्हें मिला। साथ में मिला समयानुकूल प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं मुगलों से जूझने हेतु शस्त्र विद्या का शिक्षण। अपने गुरु का दामन पकड़ कर वे छत्रपति बन गए और संस्कृति के रक्षक कहलाए। रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य ने विवेकानन्द को अल्पायु में ही विश्व बंधु सन्त बना दिया तथा प्रज्ञा चक्षु विरजानन्द जी के मार्गदर्शन ने सत्य की खोज में भटक रहे मूलशंकर को आर्य समाज का संस्थापक कुरीतियों से जूझने वाला एक प्रखर संन्यासी दयानन्द। बुन्देलखण्ड के राजा छत्रसाल को यदि स्वामी प्राणनाथ न मिले होते तो वे सम्भवतः उतने प्रखर पुरुषार्थी न बन पाते। यह सब चमत्कार उसी सान्निध्य का है जिसकी यशोगाथा गुरु शिष्य परंपरा में हमेशा से गायी जाती रही है।

इसी क्रम में सहज ही हमें एक सौम्य सरल एवं कार्य कुशल व्यक्ति की याद हो आती है जिसे बापू का सान्निध्य मिला, जो चम्पारन के एक साधारण से किसान से स्वतन्त्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति बना। बाबू राजेन्द्र प्रसाद को कौन नहीं जानता। पर कम को ही विदित है कि इस पद तक पहुँचने के पूर्व उन्हें समर्पण सेवा लगन की कितनी कड़ी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के संपर्क में अनेकानेक व्यक्तियों में से कइयों ने अपने त्याग-बलिदान के बदले स्वतन्त्र राष्ट्र में उच्च पद पाए। किसी के भी समर्पण की परस्पर तुलना कर पाना सम्भव नहीं। नेहरू अधिक त्यागी थे अथवा पटेल, मौलाना आजाद अथवा राजाजी। प्रश्न इस बात का नहीं। परन्तु जैसा बापू चाहते थे वैसा ही सीधे सादे स्तर पर बने रहकर यदि किसी ने महान बनने का प्रयास किया है तो उसमें राजेन्द्रबाबू का नाम बड़े श्रद्धा से लिया जाता है, लिया जाता रहेगा।

इतिहास साक्षी है कि राजेन्द्रबाबू उसके बाद बिना श्रेय की कामना के कई बार जेल गए लेकिन अंग्रेजों के नीली कोठी वाले साहबों के प्रयासों को कभी सफल नहीं होने दिया। चम्पारन के आन्दोलन को राष्ट्रीयता स्वतन्त्रता के रूप में 1947 में हुए उपसंहार की भूमिका माना जा सकता है। दृष्टा गाँधी ने जैसा कहा था, वही हुआ। इस संपर्क वार्तालाप के ठीक 29 वर्ष बाद भारत को स्वतन्त्रता मिली और विदेशियों के हाथ से सत्ता का हस्तान्तरण सर्वप्रथम संविधान सभा के अध्यक्ष श्री राजेन्द्रबाबू के हाथों में हुआ।

बिहार का एक सीधा-सादा यह किसान अपनी लगन कर्मठता एवं समर्पण के कारण ही उस उच्चतम पद को विभूषित कर सकने में समर्थ हुआ, जिसे स्वतन्त्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति नाम दिया गया। पद लिप्सा से कोसों दूर, सादगी की प्रतिमूर्ति राजेन्द्रबाबू जब तक जीवित रहे, इसी सिद्धांत की बानगी बने रहे कि श्रेष्ठ सान्निध्य एवं गुण ,कर्म, स्वभाव के परिष्कार से व्यक्ति महामानव बन सकता है। यही है वह चमत्कार जिसकी कामना तो लोग करते हैं, पुरुषार्थ नहीं करते।


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