मृत्यु से वापस लौटने वालों के अनुभव

March 1983

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पुराने शरीर का अन्त और नवीन का आरम्भ होने के मध्य क्या स्थिति रहती है, इसका परिचय दो आधारों पर प्राप्त किया जा सकता है। एक घोषित मृत्यु के बाद फिर पुराने शरीर में वापस लौट आने वालों द्वारा उस थोड़ी अवधि में प्राप्त हुये अनुभवों से। दूसरों प्रेत स्तर पर अपने अस्तित्व का प्रमाण देने वाली आत्माओं की हलचलों से।

यह दोनों ही संयोग हर मरने वाले को प्राप्त नहीं होते। न तो हर मरने वाला वापस लौटता है और न हर किसी का भूत-प्रेत बनना आवश्यक है। फिर भी जब-तब, जिस-तिस को इस स्थिति में पाया जाय और उसके कथन तथा हलचलों को नोट किया जाय। यदि ऐसे संयोग बैठ जाते हैं तो उन साक्षियों के आधार पर दो जन्मों की मध्यवर्ती अवधि में प्राणी को किन परिस्थितियों में गुजरना पड़ता है, इसका आभास मिल जाता है। ऐसे कुछ प्रामाणिक प्रसंग उपलब्ध भी हैं।

विज्ञान की एक नयी शाखा विकसित हो रही है, जो मरणासन्न व्यक्तियों का अध्ययन करती है। इस विधा में यह जानने का प्रयास करते हैं कि क्या इन व्यक्तियों को मृत्यु का भय होता है? निकटतम आ रही मृत्यु के बारे में बोध होने पर इन व्यक्तियों को कैसी अनुभूति होती है? मृत्यु संबंधी ऐसे तथ्यों का अध्ययन करने वाले इस विज्ञान को ‘थेनेटालॉजी’ कहते हैं। थेनेटॉस (ग्रीक शब्द) का अर्थ है मृत्यु।

पश्चिमी जर्मनी के एक डाक्टर लोथर विट्जल ने मरणासन्न मरीजों से उनकी मृत्यु के 24 घंटे पूर्व बातचीत की। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे मृत्यु आती है मरणासन्न व्यक्ति में उसका भय मिटता जाता है- बीमारी की वृद्धि के साथ-साथ ऐसे व्यक्तियों की धार्मिक आस्था दृढ़ होती चली जाती है और चिन्ताएँ कम होती जाती हैं।

‘मैसाचुसेट्स मेडिकल सोसायटी’ के बोस्टन निवासी डॉ. मूर रसेल क्लेचर ने लगभग पच्चीस वर्षों तक गहन अन्वेषण करने के पश्चात इन तथ्यों को “ट्रिटॉइज ऑन सस्पेण्डेड-एनीमेशन’ नामक ग्रन्थ में लिपिबद्ध किया है, जिसमें मरने के उपरान्त फिर से जी उठे लोगों के अनुभव हैं। डॉ. फ्लैचर ने अपनी इसी पुस्तक में गार्नाइट शहर निवासी श्रीमती जान डी. ब्लेक के बयान के अनुसार लिखा है कि वे तीन-दिन तक मृतावस्था में पड़ी रही थीं। डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया किन्तु घर वालों ने शरीर गर्म देखते हुए नहीं दफनाया। तीन दिन बाद वे जी उठीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ऐसे लोक में जा पहुँची थीं जिसे सचमुच ‘परीलोक’ कहा जा सकता है। वहाँ बहुत-सी आत्माएँ उन्हें प्रत्यक्ष प्रसन्न उड़ती दिखाई दीं, जिनमें उनकी कुछ मृत सहेलियाँ भी थीं। ऐसे कई प्रसंग पिछले दिनों शोधकर्ताओं की जानकारी में आए हैं जिनसे मरने के बाद जी उठने वाले व्यक्तियों ने अपनी सुखद-दुखद अनुभूतियों को व्यक्त कर एक अदृश्य लोक पर पड़े पर्दे को उठाने में मदद की है।

दस वर्षीया बालिका डेजी ड्राइडन की मृत्यु दस वर्ष की आयु में टाइफ़ाइड के बिगड़ जाने के कारण हुई। मरने से दो-तीन दिन पूर्व उसे परलोक के दृश्य प्रत्यक्ष दीखने लगे थे। उसने जो बताया उसके आधार पर ‘जीवन के उस पार’ नाम से अनुभव प्रकाशित हुए हैं। डेजी के कथनानुसार अपनी इसी दुनिया की तरह एक-दूसरी दुनिया भी है, जिसमें मृतात्माएँ और देवात्माएँ उसी प्रकार निवास-निर्वाह करती हैं जैसे कि अपने इस लोक के निवासी।

मृतक समझे गये रोगियों को पुनर्जीवित करने के लिए किये गये प्रयासों का विशिष्ट अध्ययन मनोविज्ञानी स्टेनिस्लाव ग्रोफ और जॉनहेलिफाक्स ग्रोफ ने किया है। इन्होंने अपने शोध प्रकाशनों में ऐसे कई रोगियों का वर्णन किया है, जो मरकर जी उठे और मरण क्षणों के मध्यवर्ती अनुभव बता सकने में समर्थ हुए। कैन्सर से मरे डीन गिबसन नामक एक रोगी ने पुनर्जीवित होने पर बताया कि पहले वह गहरे अन्धकार में डूबा, इसके बाद उसे प्रकाश दीखा और उस पर फिल्म के पर्दे की तरह जीवन में किये गये भले-बुरे कर्मों की तस्वीरें फिल्म की तरह दिखाई पड़ीं। उसे लगा कि यह किसी न्यायाधीश का काम है। जो दण्ड-पुरस्कार देने से पहले यह दृश्य साक्षियां प्रस्तुत कर रहा है।

हृदय रोग से मृत एक महिला ने शोधकर्ताओं को बताया कि वह रुई के रेशों की तरह हल्की बनकर अस्पताल की छत तक उड़ी चली जा रही थी। डाक्टर नर्स आदि यथास्थान दीख रहे थे। दूसरी महिला को ‘मृत्यु का क्षण’ दुखद नहीं प्रतीत हुआ अपितु मृतक संबंधियों की समीपता, जो कि उसके स्वागत के लिए खड़े थे, सुखद ही लग रही थी। अधिकांश मृत व्यक्तियों को प्रकाश ज्योति के दर्शन हुए जिसमें स्नेह और सहयोग का अनुदान झरते हुये अनुभव हुआ।

सत्य की शोध में चेतना के सिद्धांत का कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं है- इस निष्कर्ष पर पहुँचे सर आलिवर लॉज एवं विलियम क्रुक्स जैसे भौतिकविदों ने इस तथ्य को मुक्त कण्ठ से स्वीकारा है। उनका मत है चेतना पदार्थों के संघात का प्रतिफल मात्र नहीं अपितु उससे भिन्न स्वतन्त्र है, जो शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहती है। इस तथ्य के प्रमाण में उन्होंने कई मृतात्माओं का सहयोग परक आह्वान किया, जिसके फलस्वरूप आत्माओं ने उसे स्वीकारा और उन्हें सहयोग भी प्रदान किया था। ‘केरी ऑन टाकिंग’ पुस्तक में कई प्रेतात्माओं के वैज्ञानिकों द्वारा टेप किये गये सन्देशों का वर्णन है। इससे अदृश्य जगत के अस्तित्व की पुष्टि ही होती।

मृत्यु के समय अलग-अलग लोगों को इस लोक में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव होते हैं। इसका वर्णन करते हुए लेखक खेरेण्ड सीडेट्रन टॉमस ने अपनी पुस्तक “इन दी डान बियाण्ड ऑफ’ में एक व्यक्ति के मृत्यु के समय के अनुभवों को इन शब्दों में व्यक्त किया है- “मेरा हृदय बैठा जा रहा था। दिन का प्रकाश समाप्त होता जा रहा था। एकदम अंधेरा छा गया- फिर वायुमण्डल में कुछ उजाला दिखाई दिया। मेरे पिता, मेरे भाई तथा अनेक सम्बन्धी जो मुझ से पहले मर चुके थे उनकी आवाजें साफ सुनाई दे रही थीं, वे सब मेरे पास ही उपस्थित थे।”

“फ्रन्टियर्स आफ द आफ्टर लाइफ” के लेखक एडवर्ड सी. रेण्डेल ने ऐसी ही एक दिवंगत आत्मा के अनुभवों को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है- “मरने के बाद मैंने स्वयं को चारों ओर से स्वजन संबंधियों से घिरा हुआ पाया। पहले पहल अपने आपको ऊपर उठते हुए देखा फिर धीरे-धीरे नीचे आ गया। एक शरीर बिस्तरे पर पड़ा था तो दूसरा मैं खड़ा था। शारीरिक वेदनायें समाप्त हो गई थीं। जो आत्मायें मुझे लेने आयी थीं, उन्होंने मुझसे चलने को कहा। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मैं मर चुका हूँ। संयोगवश मेरा पुनर्जीवन हुआ लेकिन स्मृति उन क्षणों की भी रही।

मूर्धन्य मनोविज्ञानी कार्लजुंर्ग ने अपने निजी मरणोत्तर जीवन का रोचक वृत्तांत स्वलिखित “मेमोरीज ऑफ ड्रीम्सरिफ्लेक्शंस” में लिखा है। सन् 1944 में उन्हें भयानक दिल का दौरा पड़ा। डाक्टर उन्हें मरणासन्न स्थिति में अनुभव कर रहे थे और आक्सीजन के सहारे बचाने का प्रयत्न कर रहे थे। इसी समय जुंग ने अनुभव किया वे हजारों मील ऊपर उड़ गये और अधर में लटके हुए हैं। इतने हल्के हैं कि किसी भी दिशा में इच्छानुसार जा सकते हैं। ऊपर से ही उन्होंने यरूशलम नगर का दृश्य तथा और भी बहुत-सी चीजें देखीं। उन्हें लगा वे अब पहले की अपेक्षा बहुत बदल गये हैं। बहुत देर इसी स्थिति में रहने के बाद उन्हें अपने पुराने शरीर में पुनः लोटना पड़ा और शरीरगत जीवन पुनः प्रारम्भ हो गया। जुंग ने लिखा है “मरणोत्तर जीवन की इस अलौकिक अनुभूति ने मेरे समस्त संशय समाप्त कर दिये और यह समझा दिया कि मरने के बाद क्या होता है?” इसी प्रकार सुप्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डॉ किंग हृेलर ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “दी इम्मार्टल सोल” में ऐसी अनेकों घटनाओं को संकलित कर मृत्यु से वापस लौटे व्यक्तियों की अनुभूतियों का वर्णन उसमें किया है।

ओटोरियो (कनाडा) कोस्टल क्षेत्र के एक एन्थ्रापॉलाजीस्ट डॉ. हर्बग्रिफिन को सन् 1974 में तीन बार हृदय के दौरे पड़े। हर बार उन्हें डाक्टरों द्वारा मृतक घोषित कर दिया गया। पर आश्चर्य कि वे दौरे के कुछ मिनटों बाद ही जीवित हो उठते थे। मृत्यु के उपरान्त उन्हें जो अनुभूतियां होती थी, वे लगभग समान थीं। ग्रिफिन का कहना है कि- प्रत्येक मृत्यु के उपरान्त के अनुभव में मैंने अपने को तेज प्रकाश से घिरा पाया वह प्रकाश मेरी ओर बढ़ रहा था। साथ ही आवाज हुई- ‘आ जाओ- सब ठीक है।’ अचानक मेरे सीने पर तेज आघात हुआ, आवाज भी सुनाई दी- ‘क्या मैं बिजली के झटके दूँ? दूसरी ओर से आवाज आई- ‘नहीं अभी नहीं। ऐसा लगता है कि जीवन अभी शेष है स्वयं यह श्वास लेने लगेगा।’ इसके बाद मैं अस्पताल में पड़े अपने शरीर में वापस पहुँच गया। जहाँ मेरे दोनों ओर दो चिकित्सक खड़े थे। एक के पास डिफिब्रिलेटर ( शॉक देने वाली मशीन) व दूसरे पास निदान के उपकरण थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अगस्त सन् 1944 को एक फौजी अफसर से संबंधित एक घटना मित्र राष्ट्र गजेटियर में प्रकाशित हुई थी। आफीसर स्काउट कार द्वारा जा रहा था तभी जर्मन टैकों ने उस पर सीधा प्रहार किया। उसकी कार में भी विस्फोटक पदार्थ भरा था। उसमें तुरन्त आग लग गयी। गजेटियर में लिखा है- “जैसे ही विस्फोट हुआ, मैं 20 फुट दूर जा गिरा। ऐसा लगा मानो मैं दो भागों में विभक्त हो गया हूँ। मेरा एक शरीर नीचे जमीन में पड़ा तड़प रहा है उसके कपड़ों में आग लगी है। दूसरा ऊपर आकाश में हवा की तरह तैर रहा है। वहाँ से सड़क पार की, वस्तु युद्ध का दृश्य, झाड़ियां, जलती कार आदि सब कुछ मैं देख रहा था। तभी अंतःप्रेरणा उठी कि तड़फड़ाने से कुछ लाभ नहीं, शरीर को मिट्टी से रगड़ दो ताकि आग बुझ जाये। शरीर ने ऐसा ही किया। वह लुढ़क कर बगल की नम घासयुक्त खाई में जा गिरा, आग बुझ गयी। फिर मैं वापस उसी शरीर में आ गया। अब शरीर की पीड़ा का आभास हुआ जो असहनीय था। जबकि थोड़ी देर पूर्व ही मैंने इस दृश्य को देखा था।

‘थेनेटॉलाजी’ विज्ञान के इस पक्ष पर जब वैज्ञानिक बड़ी गहराई से ध्यान दे रहे हैं। मरण प्रक्रिया के मनोसामाजिक पक्षों का अध्ययन ही इसका केन्द्र बिन्दु है। कई घटनाओं के विश्लेषण एवं किसी भी प्रकार के ‘फ्राड’ का खण्डन कर वैज्ञानिक अब क्रमशः इसी निष्कर्ष पर पहुंचते जा रहे हैं कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। चेतना शाश्वत है व आत्मा शरीर क्षय के बाद भी बनी रहती है। एक नहीं, सहस्रों ऐसे उदाहरणों ने इस पूर्वार्त्त दर्शन के सिद्धांत की पुष्टि भी की है। वैज्ञानिकों ने भी अपना दुराग्रह छोड़ा है और तथ्यों को अंगीकार किया है।

इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात के जीवन के अन्तिम समय का वर्णन मरण के समय की अनुभूतियों का एक सत्यापित दस्तावेज कहा जा सकता है। शासकों के निर्देशानुसार सुकरात को जहर दिये जाने की तैयारी चल रही थी। इस महाप्रयाण की घड़ी में उनके सभी शिष्य, मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी वहाँ उपस्थिति आँसू बहा रहे थे। पर सुकरात पर इसका कोई प्रभाव नहीं था। उल्टे उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा उनके मुख मण्डल पर प्रसन्नता, प्रफुल्लता, और भी अधिक परिलक्षित हो रही थी। ऐसा लगता था मानो किसी प्रियजन से मिलने की उत्सुकता हो। मित्रों ने, शिष्यों से जब इस आतुरता का कारण रोते हुये पूछा तो सुकरात ने कहा- “मैं मृत्यु से साक्षात्कार करना चाहता हूं और यह जानना चाहता हूं कि मृत्यु के बाद हमारा अस्तित्व रहता है या नहीं। मृत्यु जीवन का अन्त है अथवा एक सामान्य जीवन क्रम”।

सुकरात को निर्धारित समय पर विष दे दिया गया। सभी के नेत्र सजल हो उठे। उन्होंने उपस्थित आत्मीयजनों को संबोधित कर कहना शुरू किया- ‘मेरे घुटने तक विष चढ़ गया है। पैरों ने काम करना बन्द कर दिया। वे मर चुके, किन्तु मैं फिर भी जीवित हूँ। मेरे हाथ, कान, नाक सभी निर्जीव हो चुके, पर मैं पूर्ण हूँ। मरो अस्तित्व पूर्ववत ही है। जीन की वास्तविकता को समझने का यह एक अलभ्य अवसर है। तुम्हें इसका लाभ लेना चाहिए। मृत्यु की अवधि से गुजरता हुआ एक व्यक्ति तुम सबको सन्देश दे रहा है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं एक अविरल प्रवाह है। जीवन की सत्ता मरणोपरान्त भी बनी रहती है।


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