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“देवो दानाट् द्योतनाद् दीपना द्वा” के अनुसार समाज को देने वाला, समाज की सहायता व रक्षा करने वाला ही देवता माना गया है। देवता वह जो औरों को दे। जो व्यक्ति अपनी ज्ञानाग्नि से अपने समस्त कषाय−कल्मषों को जला कर स्वयं प्रकाशरूप हो, दूसरों के अन्धकारमय जीवन को “प्रकाशित” करता हो, अपने ज्ञान से दूसरे भूले−भटकों को मार्ग दिखाता हो तथा इस तरह पूरे समाज का सत्पथ प्रदर्शक बने उसे ही “देवता” माना जाता है।
अपने में निहित शक्ति की उपयोगिता जगती में सिद्ध कर सूर्य, चन्द्र वायु, अग्नि आदि ने ‘देवता’ की संज्ञा प्राप्त की है। यह निरन्तर देते रहते हैं। सृष्टि में विद्यमान चेतना और वैभव सब इन्हीं देवशक्तियों की देन है। इस उत्सर्ग की भावना ने ही उन्हें यह पदवी दिलाई। “देवत्व” ने ही सूर्य चन्द्र आदि को “देवता” के रूप निरूपित किया अन्यथा स्थूल रूप में तो ये ग्रह उपग्रह पिंड आदि ही वैज्ञानिकों द्वारा माने गये हैं।
जिन प्रकाश−पुँज व्यक्तित्वों के व्यवहार्य सिद्धान्तों एवं कृतित्व से संतप्त प्राणियों को मार्ग मिले, उसके कषाय−कल्मषों को दूर करने की प्रेरणा मिले, सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाने का पथ−प्रशस्त हो वे “देव तुल्य “ ही माने जाकर सम्मानजनक स्थान प्राप्त करते हैं।
देवता होने के लिए मात्र ज्ञान व शक्ति का पुँज होना ही पर्याप्त नहीं, वरन् अपनी शक्ति व ज्ञान से लोक−मंगल व लोक−निर्माण के कार्य करना भी है अपनी शक्तियों का लोक−मंगल में उत्सर्ग किये बिना कोई भी देवता नहीं बन सकता।
—डॉ. राधाकृष्णन्
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