एक वृद्ध व्यक्ति की शारीरिक स्थिति अत्यन्त क्षीण हो गई, आँखों से उसे ठीक प्रकार से दीखता नहीं था न ही उसके हाथ पैरों से कोई काम हो जाता था। उसके हाथ दुर्बलता के कारण हिलते रहते थे। उसके बेटे, बहू भी उसकी उपेक्षा करने लगे थे। जब वह भोजन करता तो हाथ से ठीक से कौर पकड़ भी न पाता। बहू उसे घर के बारा मिट्टी के बरतन में भोजन दिया करती थी। एक दिन वृद्ध के हाथ से मिट्टी का बरतन गिर गया व फूट गया। बहू इस पर बहुत झल्लाई व उसने काठ का एक पात्र बनवा कर उसे दिया। वह वृद्ध अब काष्ठ पात्र में भोजन करने लगा! उस वृद्ध का नाती यह सब देखता रहता था। एक दिन उसने वह काष्ठ पात्र लिया व उसी तरह का एक पात्र बनाने के लिए वह लकड़ी के एक टुकड़े को काटने छीलने लगा, पिता ने यह देखा तो उसे डाँटते हुए पूछा कि वह यह क्या कर रहा है। लड़के ने उत्तर में कहा—“आप व माताजी जब दादी की तरह ही वृद्ध हो जावेंगे तब आप दोनों को भोजन कराने के लिए मैं काष्ठ पात्र बनाने का अभी से अभ्यास कर रहा हूँ।”
माता पिता ने सुना तो उनकी आँखें खुल गईं, उन्हें किसी सन्त की यह उक्ति स्मरण हो आई “दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो जो तुम्हें स्वयं अपने लिए पसन्द न हो।”
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