विज्ञान का अधूरापन दूर किया जाय

May 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विज्ञान शब्द व्यापक है, उसमें पदार्थ और चेतना दोनों ही भागों का समावेश होता है, किन्तु आज उसकी एकांगी व्याख्या हो रही है। मात्र पदार्थ और उसका स्वरूप एवं उपयोग की विधि व्यवस्था को समग्र विज्ञान मान लिया गया है। यहाँ तक कि चेतना को भी जड़ तत्वों की प्रतिक्रिया भर सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता रहा है। यह सर्वथा एकांगी तथा अपूर्ण प्रयत्न है।

पदार्थ कितना ही मूल्यवान एवं उपयोगी क्यों न हो, उसकी कोई कीमत तभी है, जब चेतन प्राणी उसे उस प्रकार की मान्यता दे। अन्यथा वस्तु की दृष्टि से हीरा और कोयला लगभग एक ही स्तर के होते हैं। उपयोगिता की दृष्टि से लोहा सोने की अपेक्षा अधिक कारगर है; पर मनुष्य ने इनमें से जिसे जितनी मान्यता दी उसी अनुपात से उसका मूल्य बढ़ा है। पदार्थ अपनी उपयोगिता स्वयं सिद्ध नहीं कर सकते। मनुष्य की बुद्धि ही उन्हें खोजती है और काम में लाने योग्य बनाती है। अस्तु पदार्थ की तुलना में चेतना का महत्व अधिक हुआ। स्वयं विज्ञान का विकास भी बुद्धि कौशल की ही प्रतिक्रिया है। ऐसी दशा में चेतना के मूल अस्तित्व को स्वीकार न करना, उसे जड़ शरीर के सम्मिलन से उत्पन्न हलचल भर मानना यही सिद्ध करता है कि वैज्ञानिकों ने उस क्षेत्र को आधा−अधूरा ही समझा है, जिसमें वे अपनी सारी अन्वेषण प्रक्रिया संजोये हुए हैं।

पदार्थ विज्ञान की ही बात लें तो प्रतीत होगा कि उसकी खोज के साधन रूप में जड़ पदार्थों का ही उपयोग होता है। जिन यन्त्र उपकरणों के माध्यम से प्रकृति गत हलचलों का पता लगाया जाता और उपलब्ध ज्ञान का उपयोग किया जाता है वे स्वयं जड़ पदार्थों के बने हुए होते हैं। उसकी पकड़ और पहुँच अपनी सीमा तक ही काम कर सकती है। मस्तिष्क का सचेतन इन्द्रियगम्य ज्ञान विशुद्ध भौतिक है। इसे मन कहते हैं। जानकारियाँ प्राप्त करना और खोज कुरेद करना इसी का काम है। बुद्धि और अन्वेषण उपकरणों की सहायता से ही वैज्ञानिक खोजबीन का ढाँचा खड़ा किया जाता है। ऐसी दशा में चेतना सत्ता का वास्तविक स्वरूप और बल प्रकट नहीं हो सकता। उसके प्रकटीकरण में चेतना का वह भाग प्रयुक्त करना होता है जिसे अन्तर्मन, उच्च मन, अन्तरात्मा अतीन्द्रिय तत्व कहते हैं। ब्रह्म विद्या इसी की विवेचना करती है। तत्व−दर्शन का आविष्कार इसी निमित्त हुआ है। ऋतम्भरा, प्रज्ञा, भूमा, घी इसी प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होती है। अतीन्द्रिय ज्ञान के सहारे ही चेतना तत्व का ज्ञान प्राप्त कर सकना सम्भव है। इसकी उपेक्षा करके जो विज्ञान काम में लाया जा रहा है उसे अपूर्ण ही कहना चाहिए।

वैज्ञानिक विचारक एडिंगटन ने इधर विज्ञान की इस मान्यता पर कि वही वस्तुओं का सही−सही वर्णन कर सकता है, अनेक प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं। अपनी पुस्तक “द फिलॉसफी आफ फिजिकल साइन्स” में उन्होंने कहा है कि जब हम अणुओं अथवा किसी तत्व के गुणों की चर्चा करते हैं, तो ये गुण उन अणुओं या पुद्गल तत्वों के एकमात्र वास्तविक गुण कदापि नहीं माने जा सकते, अपितु ये तो वे गुण हैं, जो हमने अपनी प्रेक्षण−विधि द्वारा उन अणुओं या पुद्गल−तत्वों पर आरोपित कर दिया है। इस प्रकार एडिंगटन ने निष्कर्ष निकाला है कि विज्ञान जिस जगत का वर्णन करता है, वह और भी अधिक आत्म−परक होता है, जबकि अभी तक कथित पदार्थवादी या वैज्ञानिक भौतिकतावादी इसी बात पर जोर देते थे कि अध्यात्मवादियों का सम्पूर्ण चिन्तन आत्मनिष्ठ होता है, वस्तुपरक नहीं और वस्तुपरक चिन्तन तो मात्र विज्ञान द्वारा ही सम्भव है।

एडिंगटन ने अपनी बात एक उदाहरण द्वारा समझाई है। उनका कहना है कि जिस प्रकार एक मछुआ कुछ मछलियों को पकड़ता है, फिर वह वर्णन करता है कि मछलियाँ इस−इस तरह की होती हैं। अब, मछुए का यह वर्णन सिर्फ उन्हीं मछलियों पर लागू होता है, जिन्हें उसने पकड़ा है। उसी प्रकार भौतिक−शास्त्र का विश्व−सम्बन्धी ज्ञान केवल उन्हीं वस्तुओं पर लागू हो सकता है, जिन्हें हम अपनी इन्द्रियों, उपकरणों तथा बुद्धि की पकड़ में ला सकते हैं। इस प्रकार भौतिक शास्त्र में जिसे हम सामान्य कथन या प्रकृति के नियम कहते हैं, वे एक ऐसे संसार का वर्णन है जो हमारे अपने बोध पर निर्भर है। इसे ही एडिंगटन “चयनात्मक आत्मनिष्ठतावाद” (सेलेक्टिव सब्जेक्टिविज्म) कहते हैं।

इसीलिए जाक रुएफ ने “फ्राम द फिजिकल टू द सोशल साइन्सेज” में लिखा है—”हमारे पास यह कहने का कोई आधार नहीं है कि भौतिक शास्त्र के सिद्धान्त जिन कारणों का उद्घाटन करते हैं, वे वस्तुओं की असली प्रकृति हैं।” उदाहरण के लिए इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि को लें। इनकी असली प्रकृति क्या है, यह पूरी तरह कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता। जिस रूप में इनका वर्णन किया जाता है, वह वैज्ञानिकों के विभिन्न प्रेक्षणों (आब्जर्वेशन्स) को सम्बद्ध करने के लिए आवश्यक गुण मात्र हैं। इनकी वास्तविक सत्ता का पूर्ण विवरण ज्ञात नहीं है।

विज्ञान के द्वारा आविष्कृत इस ‘अनिश्चयात्मकता’ ने आज जहाँ एक ओर ऐसे ‘दर्शनों’ को जन्म दिया है, जो ‘दर्शन−शास्त्र’ मात्र के विरोधी हैं, तथा जिनका कहना है कि सृष्टि सम्बन्धी कोई भी दार्शनिक−समीक्षा मात्र परिकल्पनात्मक होती है, उसकी वास्तविकता की जाँच सम्भव नहीं है; वहीं दूसरी ओर अनेक स्थापित वैज्ञानिक सिद्धान्तों के पैर उखाड़ दिए हैं।

विटगेन्स्टाइन तथा अन्य तर्कमूलक भाववादियों (लाजिकल−पाजिटिह्विस्ट्स) की मान्यता है कि प्रकृति के नियम सामान्य कथन नहीं हो सकते, बल्कि वे ‘प्रोपीजीशनल फन्क्शन’ मात्र होते हैं। उनके द्वारा विवर्तमात्र मूल्यों के विभिन्न मान रखकर परीक्षण के लिए विशेष कथन तो प्राप्त किए जा सकते हैं, पर कोई सामान्य कथन नहीं निकाले जा सकते; जबकि वैज्ञानिक प्रवर आइन्स्टाइन मानते थे कि प्रत्येक वैज्ञानिक इस निश्चित धारणा के साथ ही अनुसंधान करता है कि यह विश्व एक सुसंगत तथा कारण−कार्यमूलक इकाई है। देखने में ये दोनों निष्कर्ष परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, पर ये वैसे हैं नहीं। ये वस्तुतः यथार्थ के दो भिन्न−भिन्न स्तरों के भिन्न−भिन्न विश्लेषण हैं।

आज विज्ञान भी यथार्थ एवं आभास का अन्तर कह−मान रहा है। वेदान्त−मत में इसी ही पारमार्थिक सत्य तथा व्यावहारिक सत्य के रूप में विश्लेषित किया गया है। वैज्ञानिकों द्वारा यथार्थ का यह परीक्षण कि सृष्टि की मूल सत्ता उस रूप में नहीं है, जैसी कि व्यवहारतः हम जानते−मानते हैं, वेदान्त के सर्वथा अनुरूप है। यह ध्यान रहे कि वैज्ञानिक यह कतई नहीं मानते कि विश्व कुछ है ही नहीं और सब ‘शून्य’ है।

एडिंगटन ने ‘न्यू पाथवेज इन साइन्स’ नामक ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि “मेरा तात्पर्य यह कदापि नहीं कि भौतिक विश्व का अस्तित्व ही नहीं है।” वस्तुतः भौतिक विश्व व्यवहारतः पूर्ण सत्य है, उसमें एक निश्चित विधि−व्यवस्था है, क्रमबद्धता है। अनिश्चय के सिद्धान्त का भी यह अर्थ नहीं कि इस दुनिया में सभी कुछ अनिश्चित है। इससे सर्वथा विपरीत वैज्ञानिकों और वेदान्तियों का यह मत है कि सृष्टि में सर्वत्र कारण−कार्य भाव विद्यमान है। प्रत्येक कार्य का एक निश्चित कारण है। अनिश्चय के सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा हम सृष्टि की मूल सत्ता को पूरी तरह कभी नहीं जान सकते; क्योंकि प्रयोग के उपकरण और माध्यम भी उसी दृष्टि के अंश है, जिसका परीक्षण किया जा रहा है।

वैज्ञानिक विश्लेषणों के तीन मुख्य दार्शनिक निष्कर्ष हैं—

(1) ब्रह्माण्ड का आदि कारण कोई अति सूक्ष्म एकमेव सत्ता है, जो चेतन है, किन्तु पूरी तरह पदार्थ विहीन नहीं। तरंगों का जो रूप ज्ञात हुआ है, वह प्रकृति की मूल शक्ति के सापेक्ष स्वरूप को स्पष्ट करता है। प्रकृति की यह मूल शक्ति वेदान्त−विचार की माया की तरह अवरार्य, अव्यारव्येय है। शुद्ध माया या मूलशक्ति तो चेतन से घनिष्ठता से सम्बद्ध है, पर वह स्वयं चैतन्य−मात्र नहीं। वह पूरी तरह ‘द्रव्यातीत’ नहीं है।

(2) सृष्टि का ठीक−ठीक स्वरूप जाना नहीं जा सकता। क्योंकि हमारे ज्ञान की सीमाएँ हैं, उसके द्वारा हम उससे परे का यथार्थ नहीं जान सकते।

(3) वैज्ञानिकों का तीसरा निष्कर्ष यह है कि भौतिक विश्व आभास का (एपियरेन्स का) क्षेत्र है, यथार्थ का नहीं। यथार्थ उसकी पृष्ठभूमि में है। अर्थात् विश्व की व्यावहारिकता सत्ता है, पारमार्थिक या परम् यथार्थ सत्ता नहीं है। स्पष्टतः यह वेदान्त मत के अनुसार है।

अपनी पुस्तक “द न्यू बैकग्राउंड आफ साइन्स” में सर जेम्स जीन्स ने भी कहा है—”सृष्टि में हम जो विधि−व्यवस्था पाते हैं, वे अत्यन्त स्पष्टता तथा सरलता से आइडियलिज्म की भाषा में वर्णित−व्याख्यापित हैं।”

यथार्थ और आभास (रियलिटी एण्ड अपियरेन्स) की विवेचना करते हुए वैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि प्रकृति को हम पूरी तरह कभी भी जान नहीं सकेंगे। उसका मूल स्वरूप सदा ही अज्ञात रहेगा। क्योंकि जैसे ही हम ‘जानने’ की चेष्टा करते हैं, हम उसमें ‘व्यवधान’ उपस्थित करने लगते हैं। इसीलिए महान वैज्ञानिक हेजनबर्ग ने ‘अनिश्चय का सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी माध्यम के द्वारा फिर वह प्रकाश हो, ऊर्जा हो या कुछ और जैसे ही हम ‘मैटर’ के किसी अंश से सम्पर्क करते हैं, हम उसके प्राकृतिक स्वरूप में व्यवधान उपस्थित कर देते हैं। इस प्रकार इलेक्ट्रान का असली स्वरूप क्या है, यह कभी भी नहीं जाना जा सकता। जब हम इलेक्ट्रान की स्थिति एवं वेग का प्रकाश की सहायता से सूक्ष्म उपकरणों द्वारा परीक्षण करते हैं, तो प्रकाश का यह सहयोग कथित ‘इलेक्ट्रान’ की स्वाभाविक दशा को निश्चित ही प्रभावित कर देता होगा। फिर परीक्षण के लिए प्रयुक्त उपकरण भी उसी सृष्टि के एक अंश हैं, जिनके द्वारा कि उस ‘सृष्टि’ का रहस्य जानने का प्रयास किया जा रहा होता है। इन उपकरणों का सम्पर्क परीक्षित किए जा रहे अंश को स्वाभाविक नहीं रहने दे सकता। इस प्रकार प्रयोगों द्वारा यथार्थ सत्ता का ज्ञान असम्भव है।

जगत का स्वरूप समझने की वैज्ञानिक विधि इन्द्रिय−ज्ञान तक सीमित है। सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों द्वारा एकत्र जानकारी मस्तिष्क को इन्द्रियों द्वारा ही मिलती है। स्थूल दृश्य जगत की यथार्थता जानने−समझने में ही हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बराबर धोखा खाती रहती हैं, मस्तिष्क भी पग−पग पर भ्रम में पड़ता रहता है। स्पष्ट है कि इन आधारों पर जब प्रत्यक्ष−जगत के बारे में ही सही निष्कर्ष निकाल पाना सम्भव नहीं, तो अदृश्य सूक्ष्म जगत में तो हमारी सीमाएँ स्पष्ट हैं। अणु संरचना के स्पष्टीकरण में उपकरणों द्वारा जो जानकारी और सहायता एकत्र की गई है, उससे अधिक आश्रय अनुमान पर आधारित गणित परक आधारों का लिया गया है, तभी कुछ निष्कर्ष निकाले जा सके हैं।

यथार्थ की तह तक पहुँचने के लिए, सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए परख के आधार को अधिक विस्तृत करना होगा। प्रत्यक्ष में अतीन्द्रिय ज्ञान को भी सम्मिलित करना होगा। अध्यात्म−प्रयोगों के निष्कर्षों की प्रमाणिकता की जाँच कर उनको भी समझना होगा। अदृश्य जगत की सम्भावनाओं के द्वार पर ठिठके खड़े विज्ञान को ऋतम्भरा, प्रज्ञा, योग भूमिका जैसे आधारों को भी समझना आवश्यक है, आगे के क्षेत्र में इनसे ही सहायता मिल सकती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118