सृष्टि की प्रत्येक रचना का कोई न कोई रचनाकार होता है। कापी पर बनी व्यवस्थित ड्राईंग देखते ही पहला प्रश्न यह होता है इसे किसने बनाया? कार्टून देखकर बड़ी प्रसन्नता होती है, पर उस प्रसन्नता से सर्वप्रथम प्रसूत जिज्ञासा यह होती है कि उसे बनाया किसने? कोने में दृष्टि डालने से उसका समाधान नाम पढ़ने से हो जाता है, किन्तु परमात्मा को किसी ने नहीं बनाया इसलिए उसकी सत्ता—स्वयंभू—कहलाती है।
उसकी सृष्टि के विकास के साथ अनेक प्रकार के तत्व, यौगिक और उनसे विनिर्मित मनुष्य, जीव जगत, वनस्पति आदि जन्मे। दृश्य प्रकृति में जो कुछ भी है अच्छी और बुरी दो प्रवृत्तियों में बँटा हुआ है। जीवन की सूक्ष्मतम अवस्था जीवाणु का अध्ययन करें तो एक दूसरा तथ्य भी उपस्थित होता है वह यह कि अच्छाइयाँ और बुराइयाँ किसी और की देन नहीं यह भी स्वयंभू हैं। मनुष्य का अपना देवत्व ही अच्छी प्रवृत्तियाँ विकसित कर लेता और उनके सत्परिणामों से लाभान्वित होता है जबकि उसका अन्तःपिशाच ही दुष्प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट हो उठता और न केवल उसे अपितु दूसरों का भी सर्वनाश करके छोड़ता है। जीवाणु अर्थात् देवत्व की शक्ति , प्रति जीवाणु या विषाणु असुरता का प्रतीक है।
सैल्यूलोज आवरण से आच्छादित तरल प्रोटोप्लाज्मा से बने जीवाणु किसी भी स्थान पर नमी, आदि पाकर स्वयं ही जन्म ले लेते हैं यह इतनी सूक्ष्म सत्ता है कि एक इंच की लम्बी लकीर में इन्हें पंक्ति बद्ध खड़ा किया जाये तो 25000 जीवाणु बड़े मजे में खड़े हो जायेंगे। इतने आदमी एक पंक्ति में खड़े किये जायें और यह माना जाये कि एक व्यक्ति औसतन 1 फुट जगह लेगा तो कुल आदमियों के लिए 5 मील लम्बी सड़क की आवश्यकता होगी। देवत्व सूक्ष्म तत्व है अनुभूति के लिए वैसी ही सूक्ष्म बुद्धि दूरदर्शी समीक्षा चाहता है यह न हो तो मनुष्य सामान्य स्वार्थ का ही इस श्रेणी में मानकर उसके लाभों से वंचित हो सकता है।
विषाणु तो उससे भी सूक्ष्म और प्रभावी सत्ता है। एक इंच में यह 141000 आसानी से बैठ सकते हैं—अर्थात् यदि वह एक आदमी बराबर हों और यह माना जाये कि उनमें से प्रत्येक को 1 फुट ही जगह चाहिए तो 26 मील सड़क की आवश्यकता होगी। तात्पर्य यह हुआ कि बुराई की शक्ति अत्यन्त सूक्ष्म है। वह कब आ धमके यह पता लगाना भी कठिन है जब तक कि उतनी ही पैनी और सूक्ष्म निरीक्षण बुद्धि न रखें।
दूसरी ओर विषाणु हैं जो जीवाणु के ही पैरों में लगा चला आता है। बुराइयाँ सदैव छद्म वेष में देवत्व के बाने में आती हैं अन्यथा उन्हें स्थान ही न मिले इसलिए अच्छाइयाँ जहाँ हमारे जीवन की अभीष्ट हैं। वहीं सतर्कता भी उतनी ही आवश्यक है। इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि अतिथि और मित्र बनकर आये परिजनों में ही कहीं कोई अपनी दुविधा और भ्रम का लाभ उठाकर कोई चोर उचक्का तो नहीं आ धमका।
दूध में पड़ा बैक्टीरिया उसे दही बना देता है देवत्व और श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति समाज को भी उसी तरह सुन्दर बना देती है, जैसे दूध की अपेक्षा दही अधिक सुपाच्य हो जाता है। अपने जीवन में छोटी से छोटी वस्तु का उपयोग है। यदि हम भलाई के हर कण को अपनाने की कला सीख जायें तो हर किसी के आदर और विश्वास के पात्र बन सकते हैं, पर विषाणु जहाँ भी पहुँच जायें वहीं बीमारी पैदा कर दें अर्थात् बुराई के कर्म ही नहीं विचार भी हमारे पतन का आधार बन जाते हैं।
जीवाणु तथा विषाणु दोनों की ही संचार और विस्तार व्यवस्था बड़ी व्यापक है, पक्षियों के परों में लिपटे जहाजों में चढ़ कर यात्रियों के माध्यम से भी ये एक स्थान से एक देश से दूसरे स्थान दूसरे देश पहुँच जाते हैं। और सर्वत्र महामारी की स्थिति पैदा कर देते हैं कुछ न मिले तो हवा ही उनके लिए उपयुक्त वाहन है। इसी से यह कहीं भी जा पहुँचते हैं। अच्छाइयों और बुराइयों का क्षेत्र भी उसी तरह सर्वत्र खुला पड़ा है। स्वाध्याय के माध्यम से हम अर्वाचीन युग के देवत्व को भी अपने वर्तमान जीवन में बुला सकते हैं और नाटकों, फिल्मों से भी अच्छे बनने की प्रेरणा ले सकते हैं। दूसरों के अच्छे आचरण हमारे जीवन दीप बन सकते हैं और उनकी शिक्षायें भी वही प्रेरणा दे सकती हैं। बुराइयों के लिए भी ठीक यही स्थिति है बुलायें तो मन ही मन से करोड़ों मनोविकार आमन्त्रित कर लें दृढ़ता हो तो दृष्टि में पड़ने वाली कुत्सा भी अन्दर झाँकने न पाये।
हमारे भीतर आसुरी प्रवृत्तियाँ जड़ न जमा पायें उसके लिए उन्हें मारने की मुहिम जागृत रखनी चाहिए। एण्टी बायोटिक औषधियाँ जिस तरह शरीर में पहुँच कर वहाँ के विषाणुओं को चारों ओर से घेर कर रसद मार्ग काट कर उन्हें आत्मघात को विवश करती हैं। उसी तरह आत्म सुधार के लिए हमें प्रलोभनों को मार भागने का, बुराइयों से लड़ने का माद्दा अपने अन्दर से ही पैदा करना चाहिए। यदि ऐसा कर लें तो वह हमारी उसी तरह हानि नहीं कर सकतीं जिस तरह हास्पिटलों में टी.बी., कैन्सर आदि के मरीज भरे पड़े रहते हैं। स्वाभाविक है कि वहाँ विषाणुओं का सरोवर लहरा रहा हो किन्तु उसी वातावरण में डॉक्टर लोग दिन−दिन भर काम करते रहते हैं। फिर भी उनका रत्ती भर भी अहित नहीं हो पाता।
दैवी अंश प्रबल हों तो वह सशक्त जीवाणुओं की तरह शरीर की ढाल का कार्य करते हैं। उससे असुरता हावी नहीं होने पाती, आत्म सुधार की सबसे अच्छी प्रक्रिया यह है कि हम निरन्तर रचनात्मक विचारों को मस्तिष्क में विकसायें, रचनात्मक कार्य करते रहें उससे बुराइयाँ अपने आप ही झाँक कर लौट जाती हैं। जिस घर में पहले ही समर्थ लोग रहते हों वहाँ चोर उचक्के झाँक कर ही लौट जाते हैं।
लेकिन यदि सीलन, सड़न, गलन अपने भीतर ही हो तो कमजोर भले मानस को भी सशक्त बदमाशों द्वारा सताये जाने की तरह बुराइयों को पनपने का भीतर ही आधार मिल जायेगा। बाहर के विषाणु शरीर में आयें पर शरीर सशक्त हो, पाचन यन्त्र ठीक काम करते हों, रुधिर में श्वेताणुओं की कमी न हो तो विषाणु रत्ती भर असर नहीं डाल पायेंगे उल्टे नष्ट हो जायेंगे पर भीतर विजातीय द्रव्य भरा हो। आदमी में आकर्षणों की सड़न भीतर−भीतर बुझ रही हो तब तो वे अपनी शक्ति भीतर ही बढ़ा कर हमारे विनाश का कारण बन जायेंगे यहीं नहीं विजातीय द्रव्य के बाद वे शरीर की कोशाओं को भी खाने लगेंगे तब फिर जीवन का अन्त होगा ही।
प्रकाश में विषाणुओं को मार देने की शक्ति है। हमारे जीवन में प्रकाश तत्व बना रहे, विवेक बना रहे तो न केवल भलाई की शक्ति, देवत्व का विकास और उसके फलितार्थों से लाभान्वित होते रह सकते हैं। आसुरी तत्व वे चाहे कितने ही अदृश्य और शक्तिशाली क्यों न हों जानकारी में आते रहें और उन्हें नष्ट करने, मार कर भगा देने का साहस हमारे जीवन में बना रहना चाहिए।
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