सर्वशक्तिमान माता−पिता की संतान

May 1978

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जिनमें एक ही प्रकार के गुण हों ऐसे तत्वों की कुल संख्या अब मुश्किल से 101 तक पहुँची है। किन्तु विभिन्न परिणाम, ताप और वायु−दबाव आदि के साथ भिन्न−भिन्न, तत्वों के मिश्रण से अब तक लगभग आठ लाख यौगिकों के निर्माण की पुष्टि हो चुकी है। यह विचित्र बात है कि तत्व परस्पर मिलकर एक ऐसी विलक्षण तीसरी रचना उत्पन्न कर देते हैं जिनमें न माँ के गुण हों न बाप के फिर भी माँ−बाप विद्यमान दोनों ही रहते हैं।

उदाहरण के लिए हाइड्रोजन व ऑक्सीजन दोनों ही गैसें हैं। दोनों ही ज्वलनशील हैं, किन्तु जब यही दोनों मिलकर एक हो जाते हैं तो न केवल वे गैस से तरल स्थिति में आ जाते हैं अपितु जलाने की अपेक्षा उसका गुण बुझाने का हो जाता है। इस स्थिति में ज्वलनशीलता नष्ट नहीं होती अपितु वह भीतर रहकर पोषण और शक्ति का आधार बन जाती है।

मनुष्य भी इसी तरह परमात्मा व प्रकृति, विचार सत्ता तथा पदार्थ सत्ता दोनों की समन्वित सत्ता है। देखने में उसमें न परमात्मा का−सा उच्च प्रकाश है। न गति ऊर्जा, सक्रियता और सम्वेदनशीलता न ही पूरी तरह जड़ता के गुण, इसी कारण उसे त्रैत् संज्ञा अर्थात् जीव नाम से सम्बोधित किया जाता है। दोनों ही शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं, हम चाहें तो परमात्मा तत्व को जागृत कर महापुरुषों की श्रेणी में पहुँचने का सम्मान प्राप्त कर लें या भौतिक गुरुता विकसित कर आर्थिक, औद्योगिक, स्वास्थ्य, खेलकूद, शिक्षा आदि किसी भी क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति कर अपना भौतिक जीवन और भी सुखी समुन्नत बना लें। दोनों को सन्तुलित रखकर भी क्रमशः आत्मोन्नति की सीढ़ियाँ पार की जा सकती हैं। एक दिशा यह भी है कि अपनी तामसिक प्रवृत्तियों में ही पड़े रहकर कृमि−कीटकों का-सा परवर्ती और पीड़ितों जीवन जियें। यह सब मनुष्य के अपने वंश की बात है, वह कंचन बने या काँच।

प्रख्यात वैज्ञानिक सर जे.जे. टामसन ने हिसाब, लगाकर बताया है कि यदि किसी एक परमाणु के भीतर जो शक्ति संगठित है, वह बिखर जाय, तो क्षणांश में ही लन्दन जैसे घने बसे तीन बड़े शहर राख हो जायँ। यह विद्युदणुओं की शक्ति पर आधारित गणना थी। अब पता चला है कि इन विद्युदणुओं की मूल इकाई अति सूक्ष्म प्रकाशाणु हैं। उनकी शक्ति अनेक गुना अधिक है।

इन तथ्यों से पता चलता है कि हम मानसिक दुश्चिन्ताओं से, भौतिक आकांक्षाओं, लालसाओं से जितने हल्के रहते हैं उतने ही शक्तिशाली और श्रेष्ठ बनते हैं। हमारे भीतर एक शक्ति सम्पन्न राक्षस भी बैठा है—वह है अहं—जब यह उग्र हो उठता है तो व्यक्तिगत जीवन में भयंकर कुण्ठायें, असम्मान तथा अमर्यादा के कारण घोर संघर्ष आ घेरता है, सामाजिक जीवन में वहीं अशान्ति, अव्यवस्था उत्पन्न करता है। तथा ऐसे उपद्रव खड़े करता है जिससे विनाशकारी दृश्य उपस्थित होते देखे जाते हैं, पर यदि प्रकाश की तरह हलके हों तो हमारा दृष्टिकोण प्रकाश की तरह व्यापक, निर्मल तथा गतिशील होता है हमारा चिन्तन अपने तक ही सीमित न रहकर प्राणि मात्र के हित की बात सोचने लगता है। यह स्थिति अपने आप में ही एक ऐसी आन्तरिक स्फुरणा प्रदान करती है, जिसमें शान्ति, शीतलता, सन्तोष और प्रसन्नता की निर्झरणी अपने भीतर ही फूटती प्रतीत होती है।

इस तरह अत्यन्त भार वाले तत्व भी भले ही देर से ज्ञात हों—शक्ति के पुंज हैं और सृष्टि के आविर्भाव से ही विद्यमान सूक्ष्म तत्व भी। दोनों तत्व परस्पर गुम्फित होने से जड़−पदार्थ तो दृश्य हो जाता है, चेतन अदृश्य रहता है। कारण यह है कि अत्यान्तिक वेग के कारण भार रहित पदार्थ भी भारयुक्त हो जाता है। सूर्य से आने वाली किरणें सूक्ष्म हैं किन्तु आकार की तुलना में उनका भार बहुत अधिक है। सूर्य से धरती पर बरसती रहने वाली प्रकाश किरणों का भार यदि लिया जाये तो प्रतिदिन हजारों टन तथा वर्ष भर में लाखों टन उनका भार निकले। प्रोफेसर एडिंगटन ने तो उस भार का हिसाब भी लगाया है कि जो कण जितने ही सूक्ष्म हैं उनका वेग उतना ही अधिक है और जिनका वेग जितना अधिक है उनके आकार की तुलना में उनका भार उतना ही अधिक होगा।

न तो यह गति ही आधुनिकतम यन्त्रों से नापी जा सकती है न भार, क्योंकि इन उपकरणों की एक सीमा है, जबकि यह तत्व असीम और अनन्त है। इस रूप, इस श्रेणी में मन, भावानुभूतियाँ तथा संकल्प ही आते हैं। इसी बात को यह कह सकते हैं कि परमात्मा ही अनादि, अनन्त, अद्भुत, सर्वव्यापी और प्रकृति में घुला हुआ एक मात्र चेतन तत्व है हमें उसे समझने का भी प्रयत्न करना चाहिए, मात्र दृश्य व भौतिक पदार्थों की जड़ता में ही नहीं पड़े रहना चाहिये। प्रकाश में भार की तरह भौतिक शक्तियाँ तो उस तत्व की अनिवार्य उपलब्धि हैं। खेती गेहूँ की होती है भूसा तो अपने आप मिलता है। हम अपनी आध्यात्मिकता सार्थक कर सकें तो भौतिक अभाव आज जो कष्ट देते हैं, वे कल अनुचर अनुगामी बन कर भी पीछे−पीछे चल सकते हैं। दोषी न तो परमात्मा है न प्रकृति। दोनों तत्व हमारी रचना, पोषण और विकास में लगे हैं, पर अपनी दृष्टि में ही कुछ ऐसे दोष हैं कि हम स्वयं उस करुणा को हृदयंगम करने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे समर्थ माता−पिता का पुत्र होकर मनुष्य दीन−हीन जीवन जिये यह खराब बात है। उसका मूल कारण अज्ञान ही है यह अज्ञानता ही मिटाई जानी चाहिये।

हम देख सकें, ऐसे प्रकाश−कणों की सघनता की एक सीमा है। जहाँ ये फोटोन बहुत सघन रूप में हो तथा प्रचुर परिणाम में हों, वहाँ वे हमारे लिए अगोचर हो जायेंगे, अतः प्रचण्ड प्रकाश की स्थिति वहाँ होने पर भी मानवीय दृष्टि से वहाँ घोर अन्धकार ही होगा। उस प्रखण्ड प्रकाश की तुलना में सूर्य का प्रकाश बहुत अधिक स्थूल है।

“तमसो मा ज्योतिर्गमय”—हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो “तेजो वै तेजो में देहि” दिव्य प्रकाश रूप परमेश्वर हमें प्रकाश दें—प्रार्थनाओं में परमात्मा को उसी तरह के सूक्ष्म और सर्वव्यापी प्रकाश के रूप में अस्तित्व में सिद्ध किया है। वैज्ञानिक और वेदान्त दोनों का एक ही निष्कर्ष है कि हमें दिखाई देने वाला प्रकाश तो स्थूल है। सूक्ष्म तत्व स्थूल आँखों से दर्शनीय न होने पर भी हमें चारों ओर से आच्छादित किये रहते हैं। उन्हें अनुभव करने के लिए ज्ञान की आत्म−ज्योति जागृत करने वाली साधनाओं की आवश्यकता होती हैं। अतएव उपासना और स्वाध्याय हमारे जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण अपेक्षायें हैं, इनके बिना विवेक जागृत ही नहीं होता। स्थूल पदार्थों को ही देखते और उन्हीं में उलझे रहते हैं, सूक्ष्म तत्वों की अनुभूति के लिए हमारी उस तरह की तैयारी भी होनी चाहिए। हमारी पहुँच मन को नियन्त्रित रखने और उसे यथार्थ लक्ष्य की ओर नियोजित रखने की स्थिरता भी चाहिये।

मन विचार और भावनाओं की सत्ता सर्व समर्थ है यह न तो काल्पनिक है न ही ऐसे कि उन तक पहुँच न हो। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन की मान्यता यह थी कि संसार में प्रकाश ही सर्वोपरि वेग वाला तत्व है किन्तु अमेरिका के ही एक अन्य वैज्ञानिक डॉ. गेरार्ड फीनबर्ग ने ऐसे द्रव्याणुओं की कल्पना का समर्थन किया है जिनकी गति प्रकाश के कणों से भी बहुत अधिक है अमेरिका की टैक्सास यूनिवर्सिटी में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिक डॉ. ई. सी. जी. सुदर्शन ने तो यह बात और आधारभूत तथ्यों को व्यक्त करके सिद्ध कर दी है।

बात चाहे वैज्ञानिक ढंग से कही जाये चाहे श्रद्धा विश्वास और आस्तिक−आस्था के रूप में दोनों अन्ततः एक ही स्थान तक पहुँचते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि अत्यंत सूक्ष्म और सक्रिय परमाणुओं का एक अलग ब्रह्माण्ड है जहाँ पदार्थ नहीं अपदार्थ शक्ति ही शक्ति भरी है। वेदान्त कहता है वह परमात्मा प्रकृति से भिन्न गुणों वाला है, पर उसने व्यवस्थायें प्रकृति के हाथों सौंप दी है और स्वयं प्रकृति रूप हो गया अर्थात् उन्हीं में समा गया। दोनों ही शक्ति के स्वामी दोनों ही परम पोषक और कल्याण कारक है व्यक्त रूप से हमारा पोषण अपनी माँ−प्रकृति से होने पर भी शक्ति का आधार पिता ही रहता है। हम माँ की उपासना उसी रूप में करें जिससे हमारी श्रद्धा अपने पिता के प्रति भी अभिव्यक्त होती रहे। जीवन की समस्वरता और आनन्द के लिये एक नहीं दोनों सत्तायें आवश्यक और अनिवार्य हैं, इनमें से उपेक्षा एक की भी नहीं करनी चाहिए।


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