समर्पण योग की आत्म साधना

May 1978

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उच्चस्तरीय आनन्द की प्राप्ति आत्मा की सहज आवश्यकता है और साथ ही उसकी सम्भावना भी सुनिश्चित है। इस मार्ग में एक ही बाधा प्रधान है−अहंता की विकृति और विसंगति। जब मनुष्य आत्म केन्द्रित बनता है तो उसकी महत्वाकांक्षाओं की सीमा नहीं रहती। वे न औचित्य देखती हैं और न उपयोग। न नीति की ओर ध्यान देती है, न मर्यादा स्वीकार करती हैं। महत्वाकांक्षाएँ असीम भोगने, असीम जमा करने और असीम बर्बादी के लिए उद्यत बनी रहती हैं। तथाकथित बड़े आदमियों की इच्छाएँ और क्रियाएँ किस प्रयोजन में संलग्न है इसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आत्म−केन्द्रित व्यक्ति अपनी क्षमताएँ और साधन सम्पदाएँ किस प्रकार कमाते और किस प्रकार उड़ाते हैं। इस प्रकार वह बड़प्पन उनके लिए पतन और दूसरों के लिए विनाश, सन्ताप का कारण बनता है। यद्यपि वे आतंकवादी दबाव से कितने ही लोगों से अपनी मर्जी के काम लेने और इच्छित शब्दावली मुखों से निकलवाने में सफल हो जाते हैं। उन्हें मिलने वाला सम्मान एवं सहयोग ऐसे ही निकृष्ट स्तर का होता है उसके पीछे घृणा और विवशता झाँकती हुई देखी जा सकती है।

आत्म केन्द्रित−संकीर्ण स्वार्थपरता में निमग्न−उद्धत अहंकारी और असीम महत्वाकांक्षी व्यक्ति संसार के लिए भयंकर अभिशाप हैं। माचिस स्वयं तो जलती ही है अपने सम्पर्क क्षेत्र में भी अग्निकांड खड़ा करती है। इसी तरह आत्म−केन्द्रित व्यक्ति किसी तरह ही सफलताएँ तो प्राप्त कर लेते हैं और अपनी प्रतिभा से अनेक को चमत्कृत भी करते हैं, पर अन्तिम परिणाम उनके अपने लिए−सम्पर्क में आने वालों के लिए तथा प्रकारान्तर से समस्त समाज के लिए भयंकर ही होते हैं। वे उद्धत आचरण न भी करें तो भी उनकी सामर्थ्य, साधन सामग्री एवं स्थिति का लाभ जन−समाज को मिल नहीं पाता। यह अनुत्पादन भी एक प्रकार से दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

सामाजिक पातकों में उन दुराचरणों की गणना है, जो दूसरों के अधिकारों पर आक्रमण करते हैं। दुष्टतापूर्वक उपार्जन करते हैं। अनीति पूर्वक त्रास पहुँचाते हैं। चोरी, ठगी, आक्रमण, आदि के अनेक प्रकार प्रचलित हैं और वे दण्डनीय अपराधों की संज्ञा में गिने जाते हैं। अशिष्ट, नीरस, कर्कश, आचरण नागरिक मर्यादाओं का व्यतिक्रम, गन्दगी आदि लोक व्यवहार में हेय गिने जाने वाले अपराध हैं, इन्हें अपनाने वाले व्यक्ति असभ्य माने जाते हैं और दूसरों की सद्भावना गँवा बैठते हैं। आध्यात्मिक अपराध वे हैं—जो व्यवहार में असभ्य और कानून में अपराध न गिने जाने पर भी पातकों की संज्ञा में आते हैं। मानवी गरिमा को गिराने वाले हेय कृत्यों में एक यह भी है कि व्यक्ति आत्म−केन्द्रित होता चला जाय, अपनी ही सुविधा तथा अहंता का परिपोषण सब कुछ समझे और जिस समाज में व्यक्तित्व की जड़ें रस चूसती और कलेवर का अभिवर्धन करती हैं उसके हित साधन को सर्वथा विस्मरण ही कर दे। व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता बाहर से निर्दोष दीखती है और लगता है कि उसमें अनुचित भी क्या है? मनुष्य अपनी कमाई आप ही खाता रहे किसी दूसरे को हिस्सेदार न बनाये तो इसमें बुरा मानने की बात क्या है? इसमें किसका क्या अपराध हुआ? उदारता बरतना अच्छी बात हो सकती है, पर यदि कोई वैसा नहीं करता तो इसमें आक्षेप क्यों लगाया जाय? देखने में यह तर्क निर्दोष मालूम पड़ते हैं और आत्म केन्द्रित व्यक्ति पर कोई दोष मढ़ने की गुंजाइश नहीं दीखती।

पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह कहे जाने का तात्पर्य यह है कि उसकी समस्त प्रगति पूर्णतया अन्यान्यों के विविध−विधि सहयोगों पर निर्भर है। इसलिए उसे समाज से जितना मिला है उतना वापिस लौटा कर सृष्टि सन्तुलन स्थिर रखना चाहिए। यदि प्राप्त ही करते रहा जाय वापिस न लौटाया जाय तो अनुदान के सृष्टि स्रोत समाप्त हो जायेंगे और फिर ऐसा कहीं कुछ शेष ही नहीं रहेगा जिसे उपलब्ध करने की पाने वाले आशा कर सके। जानवर घास खाते हैं बदले में गोबर देकर जमीन की उर्वरता का सन्तुलन बनाते हैं। पेड़ भूमि से जीवन रस पाते हैं साथ ही अपने पत्ते भूमि पर गिराकर खाद वापिस करते हैं, तब कहीं भूमि की उर्वरता स्थिर रहती है। समुद्र से बादल जल लेकर वर्षा का पानी भूमि को देते हैं। भूमि नदियों के माध्यम से उसे फिर समुद्र को वापिस लौटाती है। यदि यह गति चक्र रुक जाय, कोई पाने वाला घटक उसे जमा करने लगे, आगे के लिए न खिसकाये तो अवरोध उत्पन्न हो जायगा और प्रगति पथ ही नहीं रुकेगा, संग्रही के लिए मरण संकट खड़ा हो जायेगा। पेट को भरते तो रहें, पर मल विसर्जन न करें तो दुर्गति ही होगी। मुँह ग्रास को अपने ही कोंटर में रोके रहे, हृदय अपनी रक्त सम्पदा अपनी ही तिजोरी में बन्द कर दे तो शरीर पर क्या बीतेगी और वे संग्रही अवयव कितने घाटे में रहेंगे यह कल्पना मात्र से समझा जा सकता है। आक्रमण गर्हित है। अनीति हेय है, पर संचय भी इन्हीं की भाँति मन्द विष है। उससे सृष्टि क्रम रुकता है। देने वाले स्रोत सूखते हैं। भूमि समुद्र को वर्षा का जल न लौटाये तो सागर का पानी कुछ ही समय में सूख जायेगा, ऐसी दशा में फिर बादल बनने और वर्षा होने की परम्परा ही समाप्त हो जायेगी। तब जल संकट से प्रलय के दृश्य ही उत्पन्न होंगे।

मानव समाज को आदिम परिस्थितियों में लौटना हो तो ही व्यक्तिवाद का समर्थन किया जा सकता है। सहयोग के बिना तो चींटी, दीमक, मधुमक्खी जैसे क्षुद्र प्राणियों तक का काम नहीं चलता। वन्य पशु और घोसलों को अपनाते हैं फिर मनुष्य स्वार्थी होते−होते पारिवारिक कर्तव्यों तक से विमुख होता चला जायगा। स्वार्थ के साथ−साथ निष्ठुरता बढ़ती है। अनुदारता के साथ−साथ असामाजिकता पनपती है। दूसरों के सुख−दुःख का ध्यान नहीं रहता तो सहयोग निर्वाह ही कठिन नहीं पड़ता वरन् शोषण उत्पीड़न को अपराधी प्रवृत्ति अपनाने में भी कुछ हर्ज नहीं दीखता। दुष्ट दुरात्माओं की गतिविधियाँ जिस आधार पर खड़ी होती और पनपती हैं, वह निष्ठुरता अनुदारता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। स्पष्ट है कि स्वार्थ परता के कारण ही अनुदारता और निष्ठुरता के कारण सम्भव हो सकने वाले कुकृत्यों की बाढ़ आती है।

उदारता और सहकारिता को मान्यता का पर्यायवाची माना गया है। उससे आदर्शवादिता उत्कृष्टता जैसे दैवी गुण पनपते हैं और सर्वतोमुखी प्रगति के पथ−प्रशस्त होते हैं। यदि वह परम्परा बन्द हो जाय तो स्वार्थों की खींचातानी में असहयोग पनपेगा और विग्रह बढ़ेगा। सृजन में लगने वाली सहकारी प्रवृत्ति उलट कर असहयोग और विग्रह में लगेगी, फलतः विनाश का वातावरण बनेगा। यह स्थिति अब तक के मानवी प्रगति प्रकरण को उलट देगी और हमें आदिम काल की परिस्थितियों में वापिस जाना पड़ेगा। वहाँ भी चैन नहीं मिलेगा। क्योंकि तब आक्रमण के लिए हाथ या ढेले ही काम में आते थे। तब जमीन भी बहुत खाली पड़ी थी। अब न निर्वाह के लिए खाली भूमि है और न अस्त्र−शस्त्रों से आक्रमण होने पर सुरक्षा के साधन। ऐसी दशा में आदिम काल की स्थिति में लौट जाने पर भी आज की स्थिति में मानवी अस्तित्व का बच सकना कठिन हो जायगा।

उदारता अपनाये बिना न अस्तित्व की रक्षा है और न आदर्शों का संरक्षण। श्रेष्ठ समाज में ही श्रेष्ठ व्यक्ति उपजते और पनपते हैं। अस्तु हमारे तत्व चिन्तन में स्वार्थ−परता को नियन्त्रित और परमार्थ परायणता को प्रोत्साहित करने वाले तत्वों का समावेश अधिकाधिक मात्रा में होना आवश्यक है। उदार समाज सेवियों की प्रतिष्ठा बढ़नी चाहिए और आक्रामक एवं छल−छद्म अपनाने वाले दुरात्माओं की तरह उनकी भी भर्त्सना होनी चाहिए, जिनके लिए स्वार्थ ही सब कुछ है जो वासना, तृष्णा और अहंता के परिपोषण के अतिरिक्त और कुछ सोचने या करने के लिए तैयार ही नहीं होते। लोक हित में जिनकी कोई रुचि नहीं−सामूहिक उत्थान पतन से कोई मतलब न रखकर अपने तक ही जिनकी आकांक्षाएँ सीमित हैं। ऐसे लोग निर्दोष लगते भले ही हैं। वस्तुतः उनका संकीर्ण दृष्टिकोण समाजगत श्रेष्ठता और व्यक्तिगत गरिमा को नष्ट−भ्रष्ट किये बिना रह नहीं सकता। भले ही वह विनाश कृत्य अग्नि−काण्ड या महामारी जैसा न होकर शीत लहर या अनावृष्टि जैसी घटना रहित ही क्यों न प्रतीत होता हो।

अध्यात्म तत्वज्ञान व्यक्ति को अधिकाधिक उदार बनने की प्रेरणा देता है ताकि उसकी सामर्थ्य का उपयोग शालीनता और प्रगतिशीलता के सम्वर्धन में हो सके। ब्राह्मण, साधु, वानप्रस्थ, परिव्राजक आदि को पृथ्वी के देवताओं जैसा सम्मान उनकी लोक−सेवा को ध्यान में रखकर ही दिया गया है। पुण्य परमार्थ की—दान धर्म के माहात्म्य बखाने गये हैं। यह सारा प्रतिपादन मनुष्य में उदारता की मात्रा बढ़ाने वाली सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने के लिए है। यह बढ़ेगी तो निश्चित रूप से व्यक्ति की गरिमा और समाज की सुव्यवस्था बढ़ेगी इससे भौतिक प्रगति और आत्मिक शान्ति के उभयपक्षीय शुभ लक्षण प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगेंगे।

गीताकार ने समर्पण योग का महत्व विस्तारपूर्वक बताया है। भगवान कहते हैं—‘मुझमें अपना मन रख, मुझे बुद्धि सौंप इतने भर से तेरा कल्याण हो जायगा। समर्पण के शरणागति, अनेक आमन्त्रणों में भगवान इतना ही कहते हैं कि अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को ईश्वर को समर्पित कर दें। इसके बाद सच्चे अर्थों में ईश्वर भक्त की स्थिति प्राप्त हो जायगी और भगवान के अनुग्रह से जो लाभ मिलना चाहिए वह निश्चित रूप से मिल जायगा। यहाँ भगवान से मतलब किसी अदृश्य व्यक्ति या सूक्ष्म शरीर धारी देवी−देवता के साथ दोस्ती बढ़ा लेने−मनुहार उपहार के आडम्बर रचने से नहीं वरन् आदर्शों के रूप में विद्यमान विश्व चेतना के सम्मुख आत्मसमर्पण करने से है। इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट समझना हो तो यों कहना चाहिए कि स्वार्थ का परमार्थ में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में, संकीर्णता का उदारता में, निष्कृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन करना है। समर्पण तत्व का महत्व अध्यात्म प्रतिपादनों में अनेक स्थानों पर अनेक ढंग से किया गया है। गोपियों का कृष्ण के साथ रास रचाने के पीछे यही तत्व है कि सभी प्रवृत्तियाँ आत्मा की पुकार का, वेणुवाद का अनुसरण करें। अर्जुन को भी यही करने के लिए कहा गया है। भक्ति योग में इसी समर्पण शरणागति की प्रधानता है। वेदान्त में इसे अद्वैत एकत्व कहा गया है।

रवीन्द्र नाथ टैगोर का प्रतिपादन है—“मनुष्य का स्थायी आनन्द इच्छित वस्तु की प्राप्ति में नहीं, वरन् अपने से महान के लिए आत्मार्पण करने में है। यह महानता उच्चस्तरीय आदर्शों में, महान व्यक्तियों में, देश में, समाज में अथवा परमात्मा में हो सकती है। जब तक अपना सर्वस्व किसी महान उद्देश्य के लिए अर्पण नहीं कर दिया जाता, जब तक क्षुद्रता के बन्धनों से छुटकारा नहीं पा लिया जाता, तब तक मनुष्य निरन्तर अशान्त उद्विग्न ही बना रहेगा।

उपनिषदों में इसी ‘महान्’ को ईश्वर कहा गया है और उसे प्राप्त होने पर पूर्णता का लक्ष्य पूरा होने का तथ्य समझाया गया है। ऋषि गाता है−हे नाविक मुझे पार ले चल मैंने तेरी नाव का आश्रय लिया है। आश्रय लेने का तात्पर्य है माझी के नेतृत्व और नाव के सम्बल पर विश्वास करना। हम ईश्वर पर विश्वास करें उसके आदर्शों को शिरोधार्य करें और उसकी प्रेरणा को जीवन नीति के साथ एकाकार कर दें तो आत्मा के लिए परमात्मा का प्राप्त कर सकना सरल हो जाता है। इस तत्व दर्शन की रहस्यमय दिशा धारा एक ही व्यक्ति आत्म केन्द्रित न रहे, संकीर्णता के बन्धनों में न बँधे वरन् महान आदर्शों के प्रति आत्म समर्पण करके जीवन मुक्त जैसी गतिविधियाँ अपनाएँ और इसी शरीर में देवोपम गरिमा का आनन्द लाभ प्राप्त करें।

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