यह एटलस 18वीं शताब्दी पूर्व में तुर्की के एडमिरल पिरीरीस को टापकापी राजमहल से मिला था। पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार यह एटलस वास्तविक नहीं था, अपितु मूल एटलस की नकल था। इस तरह की अनेक नकलें उस एटलस की पहले भी हो चुकी थीं। एडमिरल पिरीरीस के नाम से ही यह एटलस इन दिनों पिरीरीस एटलस के नाम से विख्यात है और इन दिनों भी उसने विशेषज्ञों को आश्चर्य में डाल रखा है कि आज का बुद्धिवाद जिस युग को अन्ध−विश्वास रूढ़ियों, प्रथाओं और परम्पराओं का युग मानते हैं उस युग में इतना अधिक प्रौढ़ बौद्धिक विकास किस तरह हो सकता है। इसका अर्थ तो यह निकाला जायेगा कि यदि उस युग के लोग इतने अधिक बुद्धिमान थे तो फिर उनकी आध्यात्मिक धार्मिक मान्यताओं को ही किस आधार पर अवैज्ञानिक ठहराया जा सकता है। क्यों न उसे अत्यन्त सूक्ष्म और पैनी दृष्टि की यथार्थ अनुभूति माना जाये।
इस एटलस में अमेरिका के पठार, दक्षिणी ध्रुव, महाद्वीपों के भीतर पहाड़ों की चोटियाँ, नदियाँ, द्वीप, समुद्र, पठार आदि सभी कुछ दर्शाये गये हैं। मेडीटेरिन राज्य और डे डसी (मृत सागर) के चारों तरफ के क्षेत्र दिखाये गये हैं। बर्लिन की स्टेट लाइब्रेरी में भी इसी नक्शे की दो नकलें मिली हैं उनके उद्धरणों से भी यह ज्ञात होता है कि मूल अंश इसी पिरीरीस−एटलस से ही उद्धृत किये गये हैं।
अमेरिकन कार्टोग्राफर सर आर्लिंग्टन एच मिलैरी को यह एटलस जाँच करने को दिये गये। उन्होंने मि. वाल्टर्स की मदद से उसे ग्लोब पर चढ़ाकर देखा तो अत्यधिक आश्चर्यचकित रह गये कि उस युग में अक्षाँश, देशान्तरों की इतनी अच्छी जानकारी थी तथा कठिन और दुर्गम स्थानों का सर्वेक्षण किस तरह किया होगा। उसका तो एक ही अर्थ होता है कि वह युग अन्धकार का नहीं प्रकाश का, ज्ञान का युग था जिसमें लोग भौतिक आवश्यकताओं की ओर कम से कम ध्यान देते थे पर ज्ञान विज्ञान की शोधों में ऋषि मनीषी बन कर लगे रहते थे।
इस नक्शे की तरह ही “निपुर” खण्डहरों से 60000 मिट्टी की ऐसी पट्टियाँ मिली हैं जिनमें सुमेरियन सभ्यता का ज्ञान विज्ञान अंकित है। ऐसा लगता है कि “कला पात्र” (टाइम कैपसूल) की तरह सम्भावित परमाणु खतरे से इस ज्ञान को सुरक्षित रखने की दृष्टि से इन्हें मिट्टी की पट्टियों पर लिखा गया होगा जबकि उस युग में भोज पत्र से बढ़िया से बढ़िया कागज बनाने की परम्परा प्रचलित थी। कदाचित उस ज्ञान को पूर्वजों की उपलब्धियों के रूप में सामने रखकर उसके प्रकाश में आज के ज्ञान विज्ञान को संचालित, संयमित और मर्यादित किया जाता तो अनेक अकल्पित आविष्कारों का उन्नयन होता, साथ ही अब जो विज्ञान ध्वंस की दिशा में चल रहा है तब वह कहीं अधिक सोद्देश्य बन सका होता।
इसे मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि धार्मिक मदान्धता और मानवीय अहंकार के कारण ज्ञान विज्ञान के इन स्रोतों को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया गया यही कारण है कि अब उस युग की जो ज्ञान सामग्री मिलती है वह स्फुट और बिखरी हुई मिलती है। सम्पूर्ण क्रमबद्ध नहीं। अधिकांश सामग्री तो नष्ट−भ्रष्ट ही कर दी गई। अलेक्जेन्ड्रिया पुस्तकालय किसी समय 5 लाख ग्रन्थों का महाविद्वान पिटोलेमी सोटेर का संग्रहात देवालय था। उसका कुछ अंश रोमन आक्रमणकारियों ने नष्ट किया, रहा बचा खलीफा उमर ने अलेक्जेण्ड्रिया के सार्वजनिक स्नान घरों का पानी गर्म करने के लिये जलवा दिया।
दक्षिण अमेरिका में “भारतीय विज्ञान विद्या” के अनेक खण्ड 63वें इन्का सम्राट पचकुटि ने नष्ट करा दिये। परगेमोन में 2 लाख बहुमूल्य ग्रन्थों के पुस्तकालय, जिसमें इतिहास, खगोल विद्या दर्शन शास्त्र तथा भारतीय विद्याओं की अलभ्य पुस्तकें थीं। ई. पूर्व 214 में राजनैतिक कारणों से चीनी सम्राट “ची हुआँग” ने जलवा दीं।
यवन आक्रमणकारियों ने नालंदा, तक्षशिला और बीजापुर के ज्ञान मन्दिरों को किस तरह ध्वस्त किया, उसका स्मरण करने से ऐसा लगता है−पुस्तकें नहीं प्रतिभायें और विभूतियाँ कुचल दी गई, अन्यथा आज वैज्ञानिक परीक्षणों में समय, शक्ति और धन की यह बर्बादी न केवल कम हो सकती थी अपितु दुर्लभ जानकारियों का लाभ भी मिल सकता था।
चाइना में किंडर गार्टेन क्रान्ति के समय माओत्सुंग, हिटलर ने बीच सड़कों में प्राचीन ज्ञान ग्रन्थों को नष्ट कराया। मुहम्मद गोरी ने भी इसी तरह के दुष्कृत्यों द्वारा उस अगाध ज्ञान निधि को नष्ट न किया होता तो हम आज अपनी प्रामाणिकता स्पष्ट सिद्ध कर सके होते। फिर भी अभी बहुत कुछ है; यदि उस की शोध, अध्ययन और अपनी अब की उपलब्धियों को उसका योगदान सम्भव हो सके तो हमारी प्रगति और भी प्रखर और सार्थक हो सकती हैं।