काम और क्रोध (kahani)

May 1978

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काम और क्रोध पर विजय पाकर एक दिन विचित्र वेष बनाकर एक व्यक्ति किसी गृहस्थ के यहाँ गया, गृहस्थ ने उसकी उपस्थिति को अशुभ माने उससे पूछा—“तुमने यह कैसा विचित्र-सा वेष बना रखा है” नवागन्तुक ने बताया उसने काम, क्रोध पर विजय पा ली है व उनके दुःख में उसने यह वेष बना लिया है। गृहस्थ ने उसे पागल समझ अपने नौकर से बाहर निकलवा दिया। आगन्तुक फिर आ गया तो फिर निकलवा दिया गया। इस तरह पच्चीसौ बार उसे तिरस्कृत हो निकलना पड़ा व बार−बार वह उसी गृहस्थ के पास आया। अन्त में गृहस्थ ने आगन्तुक से क्षमा याचना की व उससे विनयपूर्वक कहा—”महानुभाव आप वास्तव में क्रोध में जीत लिया है। “अतिथि ने कहा”—वत्स मेरी अधिक प्रशंसा न करो, अधिक प्रशंसा सुनकर तो मुझमें अहंकार का भाव जाग जाएगा”। गृहस्थ ने अपना भाग्य सराहा कि आज उसने एक सन्त के दर्शन किए जो काम, क्रोध व अहंकार से मुक्त है।

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