एकाग्रता के सम्पादन के लिये त्रिविध योग साधन

May 1978

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उथली जानकारियाँ तो आँखों से देखकर या अन्य इन्द्रियों के सहारे प्राप्त की जा सकती हैं किन्तु किसी विषय का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करने के लिए एकाग्रता की आवश्यकता होती है। इसके बिना गहराई में गोता लगा सकना और कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं होता। रसायन शास्त्री, पदार्थविज्ञानी, खगोलवेत्ता, साहित्यकार, दार्शनिक किन्हीं महत्वपूर्ण निष्कर्षों पर अपनी एकाग्रता शक्ति के सहारे ही पहुँच सकते हैं। सामान्य जीवन में भी इसका बड़ा उपयोग है। विद्यार्थी, यदि ध्यानपूर्वक न पढ़ें, श्रोता यदि मन लगाकर न सुनें, दर्शक ऐसे ही अन्यमनस्क होकर देखें तो जो कुछ सामने प्रस्तुत हुआ उसका छोटा अंश भी पल्ले न पड़ेगा। अपने−अपने कामों में प्रवीण पारंगत कहलाने वाले व्यक्तियों की वे विशेषताएँ कहीं से उपहार−अनुदान में प्राप्त नहीं की होती। वे उन्होंने एकाग्रता द्वारा उपार्जित मनोयोग के सहारे ही उपलब्ध की होती है। इसका अभाव रहने पर जो भी काम किया जायगा उसमें अस्त-व्यस्तता, अपूर्णता और कुरूपता ही दृष्टिगोचर होती रहेगी। विभिन्न क्रियाकलापों में मिलने वाली असफलता-सफलता के पीछे अन्य कारण उतने प्रमुख नहीं होते जितनी कि एकाग्रता की कमी वेशी काम करती है।

मस्तिष्कीय चेतना की समुचित मात्रा हर किसी के भीतर प्रचुर परिमाण में मौजूद है। जन्मजात मानसिक अपंगता या दुर्बलता भी किन्हीं अविकसित संरचना के रोगियों में पाई जाती है, पर वह अपवाद है सामान्य नियम नहीं। औसत मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी होती है जिसके आधार पर उसे बुद्धिमान घोषित किया जा सके। प्रश्न इस बुद्धिमत्ता को अविकसित स्थिति में पड़े रहने देने या विकसित करने का है। यह मनुष्य के अपने प्रयत्नों पर निर्भर है। यदि एकाग्रता की क्षमता बढ़ा ली जाय और अपने चिन्तन या कर्म में तन्मयता पूर्वक संलग्न हुआ जाय तो निश्चित ही गहरी जानकारी और कुशल प्रवीणता हस्तगत होती चली जायगी। यही है प्रगति और सफलता का आधार अवलम्बन।

एकाग्रता, अभ्यास साध्य है। जिस प्रकार अभ्यास से खेल−कूद में अथवा शिल्प संगीत में मनोयोगपूर्वक लगने से उनमें प्रवीणता प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार अन्य विषयों में भी तन्मय हो सकना सम्भव हो सकता है। दिलचस्पी का इस संदर्भ में बड़ा योगदान रहता है। किसी विषय में रुचि हो तो मन का आकर्षण सहज ही उस पर केन्द्रित रहेगा। उदासीनता अथवा उपेक्षा बुद्धि रहने से महत्वपूर्ण कार्य भी निरर्थक लगते हैं और उन्हें करने के लिए जी नहीं होता।

एकाग्रता का घेरा बना देने से अभीष्ट एवं आमन्त्रित विचारों का ही प्रवेश मस्तिष्क में हो पाता है। यदि ऐसा घेरा न हो तो फिर खुले खेत में जिस प्रकार हर दिशा से पशु पक्षी घुस पड़ते हैं उसी प्रकार अनावश्यक और अवांछनीय विचार मस्तिष्क में घुस पड़ते हैं और मानसिक क्षमता की खेती को ऐसे ही खा पी कर समाप्त कर देते हैं। असंबद्ध और अनर्गल विचारों में उलझा हुआ व्यक्ति चिन्तन प्रवाह का रचनात्मक उपयोग कर नहीं पाता। फलतः मानसिक उत्पादन भाप की तरह उड़ता और अन्तरिक्ष में विलीन होता रहता है। इस अपव्यय को यदि रोका जा सके और निहित प्रयोजन के लिए लगाया जा सके तो शक्ति के नये स्रोत खुलते हैं और प्रतीत होता है कि प्रवीणता प्राप्त कर सकने की सामर्थ्य का किसी दिव्य लोक से अभिनव वरदान प्राप्त हुआ है।

भाप नित्य ही चूल्हे पर चढ़े खुले बर्तनों से उड़ती रहती है। इस भाप को अवरुद्ध कर देने पर उससे प्रेशर कुकर के सहारे मिनटों में अच्छी रसोई बन जाती है। थोड़ी-सी भाप रेलगाड़ी के विशालकाय ढाँचे का सहज ही द्रुत गति से घसीटती चली जाती है। इंजन में दृष्टिगोचर होने वाली प्रचण्ड शक्ति वस्तुतः कुछेक बाल्टी पानी को गरम एवं एकाग्र करके प्राप्त की जाती है। जमीन पर ऐसे ही बिखरी पड़ी रहने वाली धूप साधारणतया थोड़ी-सी गर्मी और रोशनी भर दे पाती है किन्तु वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे सूर्य बैटरी, सूर्य चूल्हा आदि बनते हैं। निकट भविष्य में उसी के सहारे विशालकाय बिजली घर चलाने की योजना है। जो धूप समुद्र से बादल उठाने में समर्थ है उसी का सदुपयोग करने पर ऊर्जा की मानवी आवश्यकता सहज ही पूरी की जा सकती है। दो इंच जगह की धूप को आतिशी शीशे के सहारे केन्द्रित करके उससे क्षणभर में ऐसी आग उत्पन्न की जा सकती है, जिसे दावानल के रूप में परिणित किया जा सके। बन्दूक से निकलने वाली गोली मात्र बारूद का चमत्कार नहीं है उसे गर्मी तथा एक दिशा देने से ही लक्ष्य बेध होता है। यह एकाग्रता की ही शक्ति की महत्ता है जिससे बाण सही निशाने पर लगता है और मनुष्य अभीष्ट सफलताएँ उपलब्ध करता है। संसार में वैज्ञानिक आविष्कारों से लेकर अनेकानेक आश्चर्यजनक अनुसंधानों, आविष्कारों एवं निर्माण में यह एकाग्रता की शक्ति ही छाई हुई देखी जा सकती है। मूर्तिकार, चित्रकार, कलाकार अपनी इसी एकाग्रता शक्ति द्वारा अपना कौशल प्रकट कर सकते हैं। मन का बिखराव रहने पर समस्त साधन होते हुए भी महत्वपूर्ण उपलब्धि सम्भव न हो सकेगी।

एकाग्रता की शक्ति भौतिक सफलताओं की तरह आत्मिक प्रगति के लिए भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। ध्यान को अध्यात्म साधना में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ध्यान की उपयोगिता, महत्ता एवं आवश्यकता को साधना विज्ञान के अन्तर्गत बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया है। साधना के प्रत्येक उपचार में मन को एकाग्र रखने पर जोर दिया जाता है। अपने अन्तर की प्रसुप्त शक्तियों को जगाने और उसे उपयोगी प्रयोजनों के लिए प्रशिक्षित करने के लिए उस एकाग्रता की शक्ति का ही उपयोग करना पड़ता है। नोकदार सुई को ही ठीक तरह चुभाया जा सकता है। नोंक पैनी न होने पर छेद करने वाला कोई भी उपकरण अपना काम ठीक तरह न कर सकेगा। चिन्तन को नोकदार बनाने के लिए उसे एकाग्रता के पत्थर पर घिसना पड़ता है। मानसिक बिखराव को फैली हुई सूर्य−किरणों के समतुल्य समझा जा सकता है। आतिशी शीशे के सहारे उनका केन्द्रीकरण किया जाता है। यह प्रखर एकाग्रता मनः संस्थान के जिस भी केन्द्र पर अपना प्रभाव डालती है उसमें गर्मी उत्पन्न होती है। गर्मी से हर चीज फैलती और उठती है। अन्तःक्षेत्र की संकीर्णता और प्रसुप्त स्थिति को सक्रिय बनाने में ध्यान जन्य एकाग्रता बहुत काम करती है। मुख्यतया इसी के सहारे आन्तरिक जागरण के—आत्मोत्कर्ष के अनेक आधार खड़े होते हैं और उच्चस्तरीय सफलताओं का प्राप्त कर सकना सम्भव होता है।

एकाग्रता का प्रमुख आधार है दिलचस्पी। मन वहीं केन्द्रित होता है जहाँ दिलचस्पी होती है। किसी वस्तु के प्राप्त होने पर क्या−क्या लाभ मिल सकता है इस पर विचार करने से उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है। इसी आकर्षण के चुम्बकत्व से मन उसमें संलग्न रहने के लिए सहमत होता है। ईश्वर भक्ति इसी प्रयोजन की पूर्ति करती है। परमात्मा कितना महान है उसका सान्निध्य अनुग्रह कितना श्रेयस्कर है। यह तथ्य जितनी अच्छी तरह हृदयंगम किया जा सकेगा उतना ही आकर्षण बढ़ता चला जायगा। यह आकर्षण ही प्रेम है। प्रेम का ही दूसरा नाम भक्ति है। भक्ति भावना द्वारा ही ईश्वर के प्रति आत्मीयता बढ़ती है और आकर्षण उत्पन्न होता है। नाम महात्म भजन प्रभाव, भगवान की भक्त वत्सलता जैसी भक्ति भावनाओं के प्रति प्रगाढ़ता उत्पन्न करने वाले स्वाध्याय, सत्संग, मनन चिन्तन से ईश्वर प्राप्ति के लिए उत्सुकता बढ़ती है। यह उत्सुकता जितनी ही प्रगाढ़ होगी उतना ही मन उसमें सरसता अनुभव करने लगेगा और उसी के इर्द−गिर्द छाया रहेगा। एकाग्रता का यह प्रथम सौपान है। भौतिक प्रयोजनों में भी मन लगाने के लिए यही करना पड़ता है। शिक्षा, शिल्प, खेल, धन, यश, शोध, अध्ययन आदि का माहात्म्य जितनी अच्छी तरह समझ लिया गया होगा। उसके प्रति जितना आकर्षण उत्पन्न कर लिया गया होगा उतना ही मन उसमें लगेगा। मनुष्यों के परस्पर संबन्धों में भी चित्त से न उतरने वाली घनिष्ठता उसी आधार पर उत्पन्न होती है। दाम्पत्य प्रेम या अन्य लोगों के प्रति जितना प्रेम−भाव होगा उतना ही उनके सम्बन्ध में मन रमता रहेगा। यह कार्य उदासीनता की स्थिति में सम्पन्न हो नहीं सकता। मन को यदि किसी केन्द्र पर गहराई के साथ नियोजित करना हो तो सर्वप्रथम उस संदर्भ में आकर्षण बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। भक्ति योग का यही उद्देश्य है।

मनोनिग्रह एवं मनोलय योगाभ्यास का केन्द्र बिन्दु है। उसका उद्देश्य एकाग्रता का उत्पादन है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके सहारे ही भौतिक सिद्धियाँ और आत्मिक ऋद्धियाँ हस्तगत होती हैं। मनोलय का प्रथम चरण भक्ति योग है। द्वितीय चरण ज्ञानयोग और तृतीय कर्मयोग है। ज्ञानयोग में ध्यान करना पड़ता है। ध्यान का तात्पर्य है चिन्तन को एक ही प्रवाह में बहने देना। उसे अस्त−व्यस्त उड़ानों में भटकने से रोकना। यह कार्य किसी एक ही लक्ष्य पर कुछ समय तक विचार तरंगों को केन्द्रीभूत किये रहना। वैज्ञानिक अपनी शोध परिधि में, साहित्यकार अपने सृजन क्षेत्र में, उपासक अपने इष्ट देव में सारी विचार शक्ति को नियोजित करते हैं। एक बिन्दु पर केन्द्रीकरण आरम्भ में ही सम्भव नहीं। इसलिए उपासना में कोई साकार दृश्य निर्धारित करना होता है। इष्टदेव की प्रतिमा—प्रभात कालीन सूर्य, दीपशिखा, विराट् ब्रह्माण्ड आदि कुछ भी प्रतीक बनाया जा सकता है पर होना उसका आकार चाहिए। ध्यान में प्रधानतया किसी आकृति का ही निर्माण करना होता है। पंचतत्वों में अग्नि तत्व प्रधान है। उसकी तन्मात्रा रूप है। रूप के द्वारा मन पर जितना प्रभाव पड़ता है, उतना अन्य किसी प्रकार नहीं। यों उसके दूसरे प्रकार भी हैं। शरीर पंचतत्वों से बना है। उनकी पाँच तन्मात्रा है। पाँच ज्ञानेन्द्रिय उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती हैं। शब्द पर दिव्य कर्णेन्द्रिय द्वारा ध्यान केन्द्रित हो सकता है। नादयोग में शब्द श्रवण का यही उद्देश्य है। नासिका द्वारा गन्ध को, जीभ द्वारा स्वाद को, त्वचा द्वारा सर्द−गर्म या किसी अन्य प्रकार के स्पर्श को माध्यम बना कर ध्यान योग का अभ्यास किया जा सकता है। सांसारिक विषयों में, योजनाओं में अन्वेषणों, कल्पनाओं में भी एक सीमाबद्ध क्षेत्र बना कर उसमें तन्मय हुआ जा सकता है। इसमें एक निर्धारित रूप न होकर अनेक आकृतियाँ मस्तिष्क में होकर गुजरती रहती हैं पर होती एक क्षेत्र की ही हैं। सीमित परिधि का सभी चिन्तन ध्यानयोग के अन्तर्गत आ जायगा। दिशा धारा का अतिक्रमण न करने से काम चल जाता है। नदी एक दिशा में बहती रहे तो काम चल जाता है। उसमें लहरें उठती रहें। भँवर पड़ते रहें तो इससे कोई विशेष हर्ज नहीं है। एक केन्द्र बिन्दु पर यदि एक मिनट मन स्थिर हो जाय तो योगनिद्रा का आनन्द मिल सकता है और यदि तीन मिनट की स्थिरता रहने लगे तो समाधि की स्थिति बन जायगी। वह स्थिति समय साध्य है। मध्यवर्ती ध्यान प्रयोजन तो इतने से ही सध जाता है कि विचारों की दिशा धारा अपने निर्धारित सीमा बन्धनों में बंध कर प्रवाहित होती रहे। ज्ञानयोग का माध्यम ध्यान है। भक्ति योग द्वारा गहरी दिलचस्पी, प्रेम भावना, सघन आकर्षण उत्पन्न कर लेने के उपरान्त चिन्तन प्रवाह को एक दिशा धारा में प्रवाहित करने वाली ध्यान धारणा कुछ कठिन नहीं रह जाती।

योगाभ्यास का तीसरा चरण है—कर्मयोग। अन्तःकरण की, कारण शरीर की, आकांक्षाएं, भाव संवेदनाएँ मस्तिष्क को उत्तेजित करती हैं और प्रस्तुत अभिरुचि को पूरा करने के लिए ताना−बाना बुनने का निर्देश करती हैं। वह उत्साही वकील की तरह तर्क−कुशल, आर्किटेक्ट की तरह नक्शे बनाना और चतुर व्यवस्थापक की तरह साधन जुटाने के लिये आवश्यक दौड़-धूप आरम्भ कर देता है। जिस प्रकार भावनाओं को ज्ञान−संस्थान के सहारे अपनी आकांक्षा पूरी करने का अवसर मिलता है उसी प्रकार चिन्तन को मूर्त रूप दे सकना क्रिया−कलापों के द्वारा ही बन पड़ता है। कार्य रूप में परिणित किये बिना तो मस्तिष्कीय भाग-दौड़ मात्र कल्पना या योजना बना कर रह जायगी।

विचार और कार्य के संयोग से प्रवीणता उत्पन्न होती—संस्कार बनते हैं। अभ्यास से स्वभाव बनता है। उसी के फलस्वरूप व्यक्तित्व का ढाँचा खड़ा होता है। साधनों का जुटाना इसी प्रखरता के लिए सम्भव होता है। तन्मयता जब तत्परता का रूप धारण करती है तो विचारों को मूर्तिमान बनने का अवसर मिलता है। सफलता इसी स्थिति का नाम है। भाव का वाहन−मस्तिष्क और मस्तिष्क का वाहन−शरीर है। वे अपना−अपना योजन अपने सेवकों से पूरा कराते हैं। शरीर के भी दस सेवक हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ। क्रिया−कलाप इसी की सहायता से संभव होते हैं। कर्म के फलस्वरूप जो उपलब्धियाँ होती हैं उन्हीं को सिद्धि या सफलता कहा जाता है।

आत्मिक प्रगति के प्रयोजनों में क्रिया योग का विस्तार धर्मानुष्ठान एवं कर्मकाण्डों के रूप में हुआ है। जप, पूजन, अभिषेक, आसन, प्राणायाम, परिक्रमा, हवन, स्नान, तीर्थ यात्रा, दान पुण्य, व्रत−उपवास आदि शरीर तथा वस्तुओं की सहायता से बन पड़ने वाले सभी क्रियाकृत्य इसी श्रेणी में आते हैं। इन में विचार और कार्य का समन्वय होने से अन्तःक्षेत्र में तदनुरूप संस्कारों की स्थापना होती है। वे ही परिपक्व होकर आत्मिक प्रगति के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।

सामान्य जीवन में श्रम की महत्ता से भी परिचित हैं। साधनों और श्रम का समन्वय होने से प्रत्येक प्रकार का उत्पादन होता है और उस उपार्जित वैभव द्वारा ही विभिन्न प्रकार के सुख साधन खरीदे जाते हैं। तरह−तरह की सफलताएँ मिलने का श्रेय मिलता है। कर्म की महत्ता से हर कोई परिचित है। कर्म की उपेक्षा करने वाले को कर्महीन, अकर्मण्य, निकम्मा कह कर भर्त्सना की जाती है। आलस्य को शारीरिक और प्रमाद को मानसिक, शिथिलता को दरिद्रता एवं दुर्गति का आधारभूत कारण माना गया है। कर्म लेख की चर्चा भाग्यवादी करते रहते हैं। उसमें भी देर सवेर के कर्मों के फलस्वरूप सुख−दुःख मिलने का ही प्रतिपादन है। गीता के कर्मयोग में विकास की सर्वतोमुखी सम्भावनाओं के लिए कर्त्तव्य परायणता को ही सर्वोपरि स्थान दिया गया है।

योग का अर्थ है जोड़ना, मिलना, घुलना। आत्मा को परमात्मा के साथ घुला देने का, तुच्छता को महानता में परिणत कर देने का उद्देश्य जिस प्रक्रिया से पूरा होता हो उसी का नाम योग है। मन को अन्तःकरण से व्यक्ति को समाज से तथ्य को आदर्शों से जोड़ देने वाले महान प्रयास को योग कहा गया है। योग द्वारा भौतिक क्षेत्र में समृद्धियाँ और आत्मिक क्षेत्र में विभूतियाँ उपलब्ध करने का जो माहात्म्य बताया गया है वह शास्त्र सम्मत भी है और विज्ञान संगत भी। योग साधक को भक्ति योग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की समन्वित साधना करनी पड़ती है। इस प्रयास में सच्चे मन से संलग्न होने वाले लौकिक और पारलौकिक उभय पक्षीय सुख−शान्ति का लाभ प्राप्त करते हैं और स्वर्ग मुक्ति का इसी जीवन में रसास्वादन करते हैं।


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