सनातन धर्म और उसका आधार

May 1978

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‘सच्चिदानन्द’ परमपिता परमात्मा के अनेक सम्बोधनों में से एक सम्बोधन है− ‘सच्चिदानन्द’ शब्द सत्+चित्+आनन्द इन तीनों शब्दों की परस्पर संधि होने से बना है। ये तीनों शब्द परमात्मा के तीन गुणों के प्रतीक हैं। सत् उसे कहते हैं जो आदि काल से लेकर अनन्त काल तक विद्यमान रहता है। कभी नष्ट नहीं होता। यथा−हम जल को ही लें। पानी आदि काल से लेकर आज तक उपलब्ध है और अनन्त काल तक उपलब्ध है और अनन्त काल तक उपलब्ध रहने की सम्भावना है। यद्यपि पानी का ठोस रूप बर्फ और वायु रूप भाप होता है जो रूप परिवर्तन का द्योतक है। इन्हीं तीन रूपों में पानी आदि से लेकर अब तक विद्यमान है। आदि से लेकर अद्यतन चली आ रही प्रवाहमान धारा को ही सनातन कहते हैं।

जगत में विद्यमान प्रत्येक वस्तु की एक विशेषता होती है। उसका अपना स्वभाव होता है। उसका अपना गुण होता है। वस्तु की इसी विशेषता, स्वभाव या गुण को ही धर्म कहते हैं। उदाहरणार्थ—पानी का गुण या स्वभाव शीतलता प्रदान करना या सृष्टि के प्राणिमात्र की प्यास बुझाना है। इसी प्रकार अग्नि का गुण ताप और प्रकाश प्रदान करना है। सरिता का स्वभाव सतत प्रवाहित रहना है। पक्षियों का स्वभाव सतत चहकते, फुदकते, उड़ते हुये आनन्दित होते रहना है। पशुओं का भी स्वभाव चौकड़ी भरते हुये मस्ती भरे जीवन का आनन्द उठाना है। केवल मनुष्य के सम्पर्क में आने वाले पशु−पक्षी ही, जो मनुष्य की अधीनता का जीवन जीते हैं, उन्हें पराधीनता के कारण आनन्दमय जीवन से वंचित रह जाना पड़ता है और दुःखी जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य का एक मात्र धर्म ‘आनन्द’ ही है। वह सदा आनन्द प्राप्ति की दिशा में ही उन्मुख रहता है। यह बात दूसरी है कि परिस्थितियों की पराधीनता के कारण उसे आनन्द रहित जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ता है, परन्तु सतत् उसकी चिन्तन की धारा दुःख से त्राण पाकर आनन्द प्राप्ति की ओर ही प्रवाहित रहती है। मनुष्य समाज के तत्वान्वेषी ऋषि, मुनि, सन्त, महात्मा, विचारक, चिन्तक आदि जितने भी महापुरुष हो गये हैं तथा जिन्होंने धर्मशास्त्रों का प्रणयन किया है, उन सभी ने एक स्वर से दुःख से त्राण पाने का उपाय और सुख प्राप्ति का मार्ग ही बताया है। सुख प्राप्ति के मार्ग को ही ‘धर्म’ कहा गया है। व्यक्तिगत सुख के मार्ग को ‘व्यक्ति का धर्म’, परिवार को सुखी बनाने वाले मार्ग को ‘कुटुम्ब धर्म’, जिससे समाज को सुख मिले उसे सामाजिक धर्म, जिससे राष्ट्र खुशहाल हो, उसे ‘राष्ट्र धर्म’, जिससे विश्व सुखी हो, उसे सार्वभौम धर्म और जिससे प्राणिमात्र सुख की अनुभूति करें, ऐसे धर्म को ‘सनातन धर्म’ कहा गया है।

यों तो ‘धर्म’ संस्कृत भाषा का एक शब्द है जिसकी शाब्दिक उत्पत्ति ‘धृञ्’=धारणे’ धातु से हुई है। महर्षि व्यास जी ने धर्म की परिभाषा इस प्रकार की है:—

“धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मों धारयते प्रजाः। यत्स्पाद् धारणासयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥”

अर्थ:—धारण करने से इसका नाम धर्म है। धर्म ही प्रजा को धारण करता है। वही निश्चय ही धर्म है। महामुनि कणाद ने कहा है:—

“यतोऽभ्यूदय निश्श्रेयससिद्धिः स धर्मः।

अर्थः—जिससे इस लोक और परलोक दोनों स्थानों पर सुख मिले, वही धर्म है।

आधार उसे कहते हैं, जिसके सहारे कुछ स्थिर रह सके, कुछ टिक सके। हम चारों ओर जो गगनचुम्बी इमारतें देखते हैं; उनके आधार नींव के पत्थर होते हैं। इसी पर वे स्थिर हैं। इसी पर वे टिके हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी आधार पर ही अवस्थित हैं। यहाँ तक कि ग्रह, नक्षत्र, तारे, जो अन्तरिक्ष में, शून्य में अवस्थित प्रतीत होते हैं, वे भी एक−दूसरे की आकर्षण शक्ति को आधार बनाये हुये हैं। आधार रहित कुछ भी नहीं है। बिना आधार के सनातन धर्म भी नहीं है। सनातन धर्म का अपना एक मजबूत आधार है जिसके ऊपर उसकी भित्ति हजारों वर्षों से मजबूती से खड़ी हुई है।

वह आधार क्या है? वह आधार है :—”सर्वभूत हितरताः।” इसे दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं कि सृष्टि के सम्पूर्ण जड़−चेतन में अपनी आत्मा का दर्शन करना। अपने समान ही सबको मानना। जैसा कि यजुर्वेद में कहा गया है:—

“यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति॥”

यजुर्वेद 40 मन्त्र 6

इसी बात को एक अन्य ऋषि ने इस प्रकार कहा है :—

“न तत्पस्स्य संदध्याप्रतिकूलं यदात्मनः।

एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते॥”

अर्थ :—जो कार्य अपने विरुद्ध जँचता हो, दुःखद मालूम होता हो, उसे दूसरों के साथ भी मत करो—संक्षेप में यही धर्म है।

श्रीमद्भागवतकार ने भी ईश्वर की प्रसन्नता के लिये कहा है कि हृदय में सब भूतों के प्रति दया होना तथा यदृच्छ लाभ से सन्तुष्ट रहना।

“दमया सर्वभूतेषु, सन्तुष्टया येन केन वा।”

भगवान कृष्ण कहते हैं—

“अहमुच्चा वर्चेर्द्रव्यैर्विययोत्पन्नयानधे। नैव तुष्येऽर्चितोऽचयां भूताग्रामाव मानिनः॥”

अर्थ :—जो दूसरे प्राणियों को कष्ट देता है वह सब प्रकार की सामग्रियों से विधिपूर्वक मेरा अत्यन्त पूजन भजन भी करे तो भी मैं उस पर सन्तुष्ट नहीं होता।

मनु स्मृति में मनु महाराज ने कहा है :—

“धर्म शनैर्निश्चनुयाद् बल्मीकमिव पुत्तिकाः। परलोक सहायार्थं सर्व भूतान्यपीडयन्॥”

अर्थ :—जैसे दीमक बाम्बी को बनाती है वैसे सब प्राणियों को न देकर परलोक के लिये धर्म संग्रह करें।

महर्षि व्यास ने कहा है—

“श्रूयतां धर्म सर्वस्व, श्रुत्वा चैव धार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचारेत्॥”

अर्थ :—धर्म का सार सुनो। सुनो और धारण करो। अपने को जो अच्छा न लगे, वह दूसरों के साथ व्यवहार न करो।

‘सर्व भूत दया’ ही हमारे सनातन धर्म का आधार है। सब प्राणियों को आत्मवत् मानना ही धर्म का उच्चतम आदर्श है, आधार है। इन्हीं सब कारणों से ही हमारे यहाँ धर्मपालन का निर्देश पग−पग पर दिया गया है जिससे हम अपने आधार को, अपने आदर्श को कभी भी न भूल सकें। जैसाकि कहा गया है कि—

“नामुत्र सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः। न पुत्र दारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः॥”

अर्थ:—परलोक में न माता, न पिता, न पुत्र, न स्त्री और न सम्बन्धी सहायक होते हैं। केवल धर्म ही सहायक होता है।

महर्षि चाणक्य ने भी कहा है :—

“चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितयौवने। चला चलेति संसारे, धर्म एकाहिनिश्चलः॥”

अर्थ :—लक्ष्मी चलायमान है और जीवन भी चलायमान है। इस चराचर जगत में केवल धर्म ही अचल है। सनातन धर्म कोई मजहब या सम्प्रदाय नहीं है जो परस्पर शत्रुता के बीज बो देवे। इस धर्म का आधार अत्यन्त मजबूत है जो हमें आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का पाठ पढ़ाता है। यही वह धर्म है जो “वसुधैव कुटुम्बकम्” की ऊँची शिक्षा देता है। यही वह धर्म है जो विश्वजनीन है। इसी धर्म से विश्व मानव कल्याण को प्राप्त होगा।

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