“भवति भिक्षां देहि”

May 1978

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“भवति भिक्षां देहि”— का स्वर महर्षि के कानों में पड़ा और वे विनीत भाव से अपने आसन से उठ गये। द्वार पर आकर देखा, तपोरूप दुर्वासा बाहर खड़े थे। महर्षि उन्हें अपनी कुटी पर पाकर हार्दिक प्रसन्न हुए और सादर पाकशाला में ले जाकर जो कुछ भी उपलब्ध था प्रसाद ग्रहण कराया। महर्षि दुर्वासा प्रसन्न हुए और अपने आरण्यक की ओर चले गये।

बात उन दिनों की है जब महर्षि मुद्गल कच्छ तप कर रहे थे। तपश्चर्या की अग्नि जहाँ मन को आग्नेय बनाती है। शुद्ध और प्रखर करती है वहीं उसकी गति को भी अत्यधिक चंचल बनाती है। साधक के लिए यह समय कसौटी का होता है यदि मन की चंचलता को नियंत्रित कर लिया जाता है तो उसकी आग्नेय प्रखरता विराट् आकाश को भी चीर कर अगम्य बिन्दु तक जा पहुँचती है तथा साधक के लिए सिद्धि और सामर्थ्यों के द्वार खोल देती है किन्तु अस्थिर और अधीर साधक सामान्य अवरोध में ही विक्षिप्त हो उठते हैं तब वे न केवल सिद्धि और सामर्थ्य अपितु अपने लक्ष्य तक से भटक जाते हैं। महर्षि मुद्गल के लिए यह वैसा ही चुनौती भरा समय था।

अन्नमय कोश की शुद्धि का क्रम अस्वाद व्रत से प्रारम्भ कर अब वे सप्ताह में केवल एक दिन, एक ही समय, संस्कारित अन्न लेने की स्थिति तक आ गये थे। आज उनके लिये अन्न ग्रहण का दिन था। उस दिन अपनी प्रातःकालीन साधना सम्पन्न करने से लेकर अपराह्न तक का समय अन्न कटे खेतों में गिरे हुए दाने बीनने में लगाया था। कठोर तप ने पहले ही उनकी देह कृश कर दी थी उस पर दिन भर का यह तप, निःसंदेह थकान उत्पन्न करने वाले थे, किन्तु आत्मा की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते हुए तपस्वी की आशा और उत्साह में कहीं कोई अभाव नहीं आया था पर सप्ताहान्त में आये भोजन ग्रहण के समय एकाएक महर्षि दुर्वासा का आगमन निःसन्देह कष्टपूर्ण था किन्तु महर्षि का मन सागर की तरह धीरे गम्भीर, शशि की तरह निर्मल और पारिजात के समान पवित्र था उनके मुख में विषाद का कहीं संकेत भी नहीं था। संतोष की गरिमा मस्तक पर देदीप्यमान थी। मन का यथार्थ निग्रह यही तो कहलाता है।

किन्तु महर्षि दुर्वासा तो जानबूझ कर ही परीक्षा लेने पर तुले थे। एक बार, दो बार अनेक बार उन्होंने यही किया। अन्न ग्रहण न किये हुये महर्षि को कई माह बीत गये, एक मात्र जल ही उनका निर्वाह रह गया उसी से उनके शरीर में इतनी शक्ति शेष थी कि आज उन्होंने अपने अन्न ग्रहण के दिन फिर किसी तरह दो मुट्ठी दाने संग्रह कर लिये। उन्हें ले जाकर पाकशाला में रखा। थोड़ी देर में कुछ शक्ति आ जायेगी इस आशा से उन्होंने आहार पकाया किन्तु तभी वही चिर परिचित ‘भवति भिक्षां देहि’ की स्वरलहरी कानों में पड़ी। महर्षि ने अतिथि का पूर्ववत् सत्कार कर अपने जीवन को धन्य माना।

आज पुनः उनके अन्नाहार का दिन है पर महर्षि में उठने तक की शक्ति नहीं रही। कई बार प्रयास करने पर भी शरीर ने साथ दिया। महर्षि ने प्रयास किया कि किसी तरह बाहर तक जाकर कुछ दूर्वादल ही तोड़ लायें ताकि शरीर थोड़ी शक्ति पाले, किन्तु द्वार तक पहुँचना भी उनके लिए कठिन हो गया। समय हो चुका था। भगवान् भास्कर अस्ताचलगामी हो रहे थे तभी एक बार फिर वही “भवति भिक्षां देहि” का स्वर गूँजा। महर्षि अब तक दहलीज तक आ गये थे। आज अतिथि खाली लौटेंगे इस कल्पना से उनकी आँखें भर आयीं वे महर्षि दुर्वासा के चरणों में गिर उनकी मूक वाणी से विवशता के स्वर अपने आप निकल रहे थे।

दुर्वासा बोले महर्षि अब तुम सामान्य मनुष्य नहीं रहे तुम्हारे अन्दर का ऋषि जाग गया है यह कह कर उन्होंने महर्षि को गले लगा लिया। मुद्गल की निराशा उसी दिन उनकी समाधि में बदली थी।

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