हम खुली सीपी सहस्रों जन्म की (kavita)

May 1978

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हम उमर खय्याम होते किस तरह?

अश्रु को जिन्दा किये, जीते रहे, जो मिला अमृत-गरल, पीते रहे, आदमी की जिन्दगी के चिथड़े, बन सका जितना उन्हें सीते रहे!

रात-दिन संग्राम-रत साँसें रहीं,

कामना के कल्पतरु अभिराम होते किस तरह? हम उमर खय्याम होते किस तरह? दर्द की वह सोमपायी चेतना, जागती फौलाद की छाती बना, ज्ञान के युग-सुर्य की जागी जवानी, देखकर तम-तोम का सीना तना! त्रास की युग-यामिनी में हम जगे, कुम्भकरणी नींद में, अविराम सोते किस तरह? हम उमर खय्याम होते किस तरह? सत्य का मणिधर नहीं यों रीझता, हर शिवम्-स्वर अन्धता पर खीझता। काल-भेदी बीन का स्वर फूँकना-

मन्त्रपूता, चेतना को ही पता! मूढ़ता को कर नमन, विभचारिणी, कल्पना के साथ हम बदनाम होते किस तरह? हम उमर खय्याम, होते किस तरह? है जिन्हें हाला मिली उन्माद की! याद उनको है सुरा के स्वाद की,हम खुली सीपी, सहस्रों जन्म की,

ताकते हैं बूँद स्वाति, समाधि की! चिरतृषा से ही अधर पपरा रहे, हम सुराही और साकी-जाम होते किस तरह? हम उमर खय्याम, होते किस तरह?

-लाखनसिंह भदौरिया सौमित्र

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*समाप्त*


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