रोग निवारण में अग्निहोत्र का उपयोग

May 1978

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प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में मुख द्वारा सेवन कराने या सुई द्वारा रक्त में औषधि पहुँचा कर ही रोग निवारण का उपाय सोचा गया है। शल्य चिकित्सा, रेडियो आइस्टोप, विद्युत संचार जैसी पद्धतियाँ भी विकसित हुई हैं। इन उपचारों में मोटी काट−छाँट, सफाई या मार−काट ही सम्पन्न होती है। विषाणुओं के पेट में घुसकर उन्हें विनष्ट करने के लिए जिस सूक्ष्मता की आवश्यकता है उसे जुटाने का कोई उतना कारगर उपाय ढूँढ़ा नहीं जा सका जो रुग्णता को ही मारता, स्वस्थता को बचा लेता। इस दिशा में होम्योपैथी ने ही कुछ सोचा और कदम बढ़ाया है। वे सूक्ष्मता की उपयोगिता और आवश्यकता समझती तो है—उस दिशा में बढ़ने के लिए सचेष्ट तो है। अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ तो स्थूलता का ही आवरण ओढ़े बैठी हैं। इसलिए उनके हाथ उतना ही लगता है जितना खोदा पहाड़ निकली चुहिया की उक्ति में कहा जाता है।” पीड़ा का सामयिक समाधान ही अभी तक प्रस्तुत चिकित्सा पद्धतियों की एक मात्र उपलब्धि है। रोगों का स्वरूप बदल देना, पीड़ा को स्थानान्तरित कर देना जैसी छोटी−मोटी और भी सफलताएँ हैं जिन पर चिकित्सा शास्त्री गर्व कर सकते हैं। कितना गँवाकर क्या पाया, इस दृष्टि से यदि बीमारियों के विरुद्ध चल रही मुहीम का पर्यवेक्षण किया जाय तो विजय हलकी और पराजय भारी दीखती है।

यज्ञ विज्ञान के अनेक पक्ष हैं। उनमें एक रोगोपचार भी है। मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य की अभिवृद्धि के साथ−साथ शारीरिक रोगों के निवारण में भी उससे ठोस सहायता मिल सकती है। अग्नि के माध्यम से पदार्थ को जितना सूक्ष्म बनाया जा सकता है उतना और किसी प्रकार से नहीं। हलकेपन का चिन्ह है उठना और उड़ना। पदार्थ अपने ठोस या द्रव रूप में भारी ही बना रहता है। वह अपने आप ऊपर नहीं उठता। खींचने, फेंकने, उछालने से बल पूर्वक ही उसे ऊँचा उठाया जा सकता है। धुआँ ऊपर उठता है। इसका अर्थ यह है कि जो वस्तु जली उसके परमाणु इतने हलके हो गये कि ऊपर उठने और हवा के साथ−साथ आकाश में भ्रमण करते हुए कोई कठिनाई अनुभव न करें। देखते हैं कि गन्ध दूर−दूर फैलती है। हवा जिन परमाणुओं को अपने साथ उड़ा ले जाती है। गन्ना से गुड़ बनाते समय जो मिठास हवा में उड़ती है उसका बहुत दूर से ही नाक को पता चल जाता है। घी, तेल के पकवान बनने पर भी उसका पता गन्ध द्वारा ही चल जाता है। मिर्च जैसी वस्तुएँ आग में जल जायं तो उससे दूर तक के लोगों को खाँसी और छींक आने लगती हैं। ये सारे प्रमाण इस बात के हैं कि अग्नि के सम्पर्क से पदार्थ हलका बनता है। उसकी सूक्ष्मता बढ़ जाती है। औषधियों को सूक्ष्म बनाकर यदि शरीर में प्रवेश कराया जा सके तो उसकी व्यापकता और सशक्तता उस सूक्ष्मता के कारण सहज ही कहीं अधिक बढ़ सकती है। यज्ञ प्रक्रिया से रोगों के निवारण में यही सिद्धान्त काम करता है।

एन्टीबायोटिक दवाओं के सारे रसायन मारक शक्ति से ही भरे होते हैं, उनमें पोषण की दृष्टि से कुछ नहीं होता। पोषण के लिए प्रयुक्त होने वाले टॉनिकों में मारक गुण नहीं होते। दोनों ही एकांगी रहते हैं। दोनों का सम्मिश्रण करने पर वे परस्पर ही लड़−भिड़ जाते हैं और शरीर पर प्रभाव डालने वाली क्षमता दोनों ही खो बैठे हैं। इस कठिनाई से निवृत्ति यज्ञ चिकित्सा द्वारा हो सकती है। उस आधार पर मारक और पोषक दोनों ही तत्वों को शरीर में सरलता पूर्वक पहुँचाया जा सकता है।

औषधि उपचार में शरीर के विभिन्न अवयवों तक पदार्थ को पहुँचाने का माध्यम रक्त है। रक्त यदि दूषित निर्बल हो तो वह प्रेषित उपचार पदार्थ का ठीक तरह परिवहन नहीं कर सकता। फिर एक कठिनाई और भी है कि रक्त में रहने वाले स्वास्थ्य प्रहरी−श्वेत कण− किसी विजातीय पदार्थ को सहन नहीं करते और उससे लड़ने मरने को उधार खाये बैठे रहते हैं। औषधि जब तक रोग, कीटाणुओं पर आक्रमण करने की स्थिति तक पहुँचे तब तक उसे इन स्वास्थ्य प्रहरियों से ही महाभारत करना पड़ता है। बीमारी पर आक्रमण होने पर प्रयुक्त औषधि और स्वस्थ कण ही आपस में भिड़ जाते हैं और यह नया विग्रह और खड़ा हो जाता है। पेट की पाचन−क्रिया, रक्त में उन्हीं पदार्थों को सम्मिलित होने देती है जो शरीर संरचना के साथ तालमेल खाते हैं। इसके अतिरिक्त जो बच जाता है वह विजातीय कहा जाता है और उसे मल, मूत्र, स्वेद, कफ आदि के द्वारा निकाल बाहर किया जाता रहता है। इस पद्धति को देखते हुए यह भी एक अति जटिल कार्य है कि औषधियों में रहने वाले रसायन किस प्रकार विषाणुओं तक पहुँचे और किस तरह वहाँ जाकर अपना निवारक उपक्रम आरम्भ करके उसे सफलता के स्तर तक पहुँचायें।

इस कठिनाई का हल यज्ञ प्रक्रिया को चिकित्सा प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने पर सहज ही सम्भव हो जाता है। औषधि को पेट में पच कर रक्त में मिल कर श्वेत प्रहरियों से लड़ने के उपरान्त पीड़ित स्थान तक पहुँचने की लम्बी मंजिल पार नहीं करनी पड़ती। वरन् इस सारे जंजाल से बचकर एक नया ही रास्ता उसे मिल जाता है—साँस द्वारा अभीष्ट स्थान तक पहुँचने का। शरीर शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि मात्र रक्त ही जीव कोशों की खुराक पूरी नहीं करता वरन् साँस द्वारा भी शरीर में आहार पहुँचता है और वह इतना महत्वपूर्ण होता है कि उसकी गरिमा मुँह द्वारा खाये और पेट द्वारा पचाये गये आहार की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं होती। रक्त की भाँति प्राणवायु भी−ऑक्सीजन के रूप में समस्त शरीर में परिभ्रमण करती है। पोषण पहुँचाने और गन्दगी को बुहारने में उसका बहुत बड़ा हाथ है। दृश्य रूप से जो कार्य पाचन और रक्ताभिषरण पद्धति से होता है अदृश्य रूप से वही सारा कार्य श्वासोच्छास क्रिया द्वारा भी सम्पन्न होता है। यह दोनों ही पद्धतियाँ मिलकर दो पहियों की गाड़ी की तरह जीवन रथ को गतिशील बनाये रहती हैं।

स्वास्थ्य सुधार और रोग निवारण की आवश्यकता को पूरा करने के लिए श्वासोच्छास प्रक्रिया को अवलम्बन बनाने पर उससे कहीं अधिक लाभ उठाया जा सकता है जो रक्ताभिषरण पद्धति से आमतौर पर काम में लाया जाता है। यह कार्य यज्ञ चिकित्सा द्वारा सम्पन्न होता है। इस माध्यम से न केवल विषाणुओं से सफलतापूर्वक संघर्ष सम्भव हो सकता है वरन् पोषण की आवश्यकता भी पूरी हो सकती है। यज्ञ द्वारा वायु भूत बनाई गई औषधियां सूक्ष्मता की दृष्टि से इस स्तर पर पहुँच सकती हैं कि विषाणुओं में भी सूक्ष्म होने की विशेषता के कारण उन पर आक्रमण करके सरलतापूर्वक परास्त कर सकें। पाचन, परिवहन और प्रहरियों से उलझनें जैसे झंझट इस मार्ग में नहीं है और विलय का अवरोध भी नहीं है। सांस द्वारा अभीष्ट पदार्थों को शरीर के अन्तरंग में किसी भी अंग अवयव तक आसानी से पहुँचाया जा सकता है।

विषाणुओं का मारण जितना आवश्यक है उतना ही स्वस्थ कोशिकाओं में समर्थता की अभिवृद्धि भी आवश्यक है। अस्वस्थता का एकमात्र कारण विषाणुओं का आक्रमण ही नहीं होता। दूसरा हेतु यह भी है कि सामान्य जीवाणुओं की समर्थता और स्वास्थ्य संरक्षक श्वेत कर्ण की प्रखरता गड़बड़ा जाती है। इसलिए वे रोगों के प्रवेश को रोकने और प्रवेश को निरस्त करने में सफल नहीं हो पाते। यदि जीवनी शक्ति की न्यूनता न हो तो न तो विषाणुओं का शरीर के सुदृढ़ दुर्ग में सहज प्रवेश ही हो सकता है और न प्रवेश करने वालों को देर तक ठहरने की सुविधा ही मिल सकती है। दुर्बलता, क्षीणता यदि बढ़ती जाय तो आवश्यक नहीं कि बाहर से ही रोग प्रवेश करें निरन्तर टूटते रहने वाले अपने ही जीव कोषों की लाशें बाहर ढोकर फेंकी न जाने पर स्वतः सड़ने लगती हैं और उन्हीं का स्वरूप विषाणुओं के रूप में प्रकट होता है।

विषाणु बाहर से आते हैं और उनके आक्रमण से मनुष्य बीमार पड़ता है यह भ्रम अब गहरे अनुसंधानों के कारण प्रायः निरस्त हो गया है। बाहर तो हवा, धूलि, पानी, खाद्य−पदार्थों में सर्वत्र इतनी विषाक्तता भरी रहती है कि उससे बचाव हो ही नहीं सकता, छूत से बचना एक सीमा तक ही सम्भव है। शरीर को शरीर न छुए यह तो हो भी सकता है पर नाक निकली हुई सांस का एक−दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाने पर प्रतिबन्ध कैसे लगे? यह मान्यता अब बहुत पुरानी हो गई कि विषाणुओं का आक्रमण ही रोगों की उत्पत्ति करता है। नया संशोधन यह है कि शरीर में निरन्तर उत्पन्न होते रहने वाले जब ठीक तरह बाहर नहीं निकल पाते तो उन्हीं का संचय सड़ता और विष उत्पन्न करता है। विषाणु बाहर से कम आक्रमण करते हैं उनकी उत्पत्ति अधिकतर भीतरी सड़न से ही होती है। अस्तु रोगोपचार का एक पक्ष जहाँ विष कीटकों का मारना है वहाँ दूसरा पक्ष संव्याप्त दुर्बलता को पूरा करना भी है। यदि दुर्बलता बनी रही तो एक समय में एक प्रकार के रोग को दूर कर भी लिया जाय तो फिर अन्य आकार प्रकार के अन्य रोगों की उत्पत्ति होती ही रहेगी। लक्षण बदलते रहेंगे पर रुग्णता से छुटकारा न मिल सकेगा। इसलिए रोगोपचार का एक पक्ष जहाँ विषाणुओं से लड़ना होना चाहिए, वहाँ दूसरा पक्ष परिपोषण की व्यवस्था जुटाना भी होना चाहिए। दुर्भाग्य से आधुनिक चिकित्सा शास्त्र संहार उपचार पर ही सारा ध्यान केन्द्रित किये हुए है। परिपोषण के आधार ढूँढ़ने के सम्बन्ध में तो एक प्रकार से उपेक्षा ही बरती जा रही है। ऐसे उपाय खोजे नहीं जा सके जिनसे पुष्टाई बढ़ती और जीवनी शक्ति का भण्डार स्वस्थता को सुदृढ़ बनाये रहता। यह अभाव जब तक दूर न किया जा सकेगा, चिकित्सा प्रक्रिया अधूरी ही बनी रहेगी।

यज्ञ चिकित्सा में दोनों ही विशेषताएँ विद्यमान हैं। उसके माध्यम से उपयोगी रासायनिक पदार्थों को इतना सूक्ष्म बना दिया जाता है जिसके कारण वे अपने−अपने उपयुक्त प्रयोजनों को पूरा कर सकें। अणुओं में पाया गया चुम्बकत्व अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए वातावरण में से अभीष्ट वस्तुओं की अभीष्ट मात्रा अनायास ही ग्रहण करता रहता है। यज्ञ प्रक्रिया के सहारे वायु भूत रासायनिक पदार्थ शरीर संस्थान के समस्त भीतरी अवयवों में अनायास ही जा पहुँचते हैं और स्थानीय जीवाणुओं की आवश्यकता पूरी करने का आधार बनते हैं। पेड़ों का चुम्बकत्व आकाश में परिभ्रमण करने वाले बादलों को अपनी ओर खींचता है। घास की पत्तियाँ हवा में रहने वाले जलांश को अपने ऊपर ओस के रूप में बरसा लेती हैं। सशक्त वायुभूत रसायन जब शरीर में भीतर पहुँचते हैं तो वहाँ की आवश्यकता सहज ही पूरी होने लगती है।

प्रकृति एक ओर तो वस्तुओं का परिवर्तन करने के लिए विनाश व्यवस्था चलाती है दूसरी ओर अनावश्यक क्षरण रोकने और क्षतिपूर्ति के साधन भी जुटाती है। इसी सन्तुलन के आधार पर सृष्टि क्रम चल रहा है अन्यथा विनाश या विकास में से एक के अत्यधिक उग्र हो जाने पर एकांगी स्थिति बन जाती और असन्तुलन की अराजकता दिखाई देती। रोग कीटक जिस प्रकार स्वस्थ जीवाणुओं पर आक्रमण करते हैं उसी प्रकार उन्हें भी नियन्त्रित करने के लिए वातावरण में आवश्यक तत्व बने रहते हैं। यज्ञ द्वारा उत्पन्न विशेष गैसों में यह विशेषता रहती है कि वे रोग कीटकों पर नभ सेना की तरह बरस पड़ें। रक्त के श्वेत कण जहाँ भूमि गत लड़ाई लड़ते और आमने−सामने की गुत्थम−गुत्था करते हैं, वहाँ यज्ञ की वायु, नभ मार्ग से बम गिरने की तरह शत्रु सेना को निरस्त करती है। यह उपचार प्राकृतिक परम्परा के अनुसार स्वतः ही सम्पन्न होता है। मनुष्य कृत उपायों का इसमें न्यूनतम भाग ही रहता है। गर्मी के दिनों में सूखी धरती की प्यास शीघ्र ही वर्षा ऋतु को घसीट लाती है। जिस साल गर्मी कम पड़ती है उस साल वर्षा कम होती है। यह प्रकृति चक्र है। जीवाणुओं की दुर्बलता के अन्तराल में एक पुकार रहती है—परिपोषण प्राप्त करने की। बच्चा रोकर माता का ध्यान आकर्षित करता है और उससे अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए पयपान का अनुदान प्राप्त कर लेता है। ठीक इसी प्रकार दुर्बलता ग्रस्त जीवाणु अपने लिए समर्थ परिपोषण की याचना करते हैं। इसकी पूर्ति वे रासायनिक पदार्थ करते हैं जो यज्ञ प्रक्रिया द्वारा वायु भूत होकर जीवाणुओं के निकट जा पहुँचते हैं। इस प्रकार सफाई और परिपोषण के−ध्वंस और निर्माण के दोनों ही प्रयोजन यज्ञ वायु के द्वारा पूरे होने लगते हैं और अस्वस्थता का बहुत हद तक समाधान होता है।

सूक्ष्म जगत की क्षमताएँ विलक्षण हैं। हम फूलों में से शहद हस्त−कौशल या यन्त्रों की सहायता से भी पृथक नहीं कर सकते किन्तु मधुमक्खी अपनी विशिष्ट क्षमता से उसे सम्पन्न कर लेती है। आटे में शक्कर मिली हो तो उसका पृथक्करण सामान्यतया अति कठिन है किन्तु चींटी उस सम्मिश्रण के रहते हुए भी मात्र शकर के कणों को खाती रहती है और आटे वाला भाग छोड़ देती है। हमारे जीवाणुओं में यह विशेषता है कि यदि आसपास के वातावरण में अनावश्यक तत्व मौजूद हों तो वे पोषण एवं संरक्षण की आवश्यक सामग्री स्वयंमेव खींच लेते हैं। संरक्षण वायु जो साँस द्वारा ग्रहण की जाती है उसमें सामान्य जीवन संचार बनाये रहने के कितने ही पदार्थ रहते हैं। रोगी की आवश्यकताएँ विशेष प्रकार की होती है। उसे विशेष मात्रा में विशेष पदार्थ चाहिए इनकी पूर्ति यज्ञ विधि द्वारा विनिर्मित विशिष्ट प्रकार की प्राणवायु द्वारा सम्पन्न होती है।

विष कीटकों को मारने के लिए अनेकानेक विशेषताओं से युक्त औषधियाँ निरन्तर बनती और बढ़ती चली जा रही है। ये सभी ऐसी हैं जो प्रत्यक्ष स्पर्श के उपरान्त ही अपना प्रभाव आरम्भ करती हैं इससे भी सरल तरीका यह है कि मारक पदार्थों को वायु भूत बनाकर वहाँ पहुँचा दिया जाय जहाँ संशोधन की आवश्यकता है। फ्रांस के रसायन शास्त्री डॉक्टर ट्रिनेले ने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया है कि लकड़ी जलाने से जो फार्मिक अल्डीहाइड गैस निकलती हैं उसमें रोग कीटकों से निपटने की अद्भुत क्षमता रहती है। सम्भवतः भारतीय परम्परा में मृत शरीर को जलाने के पीछे यह दृष्टि भी रही होगी कि निर्जीव काया में उत्पन्न होने वाली सड़न से वातावरण को विषाक्त होने से रोकने के लिए उसे अग्नि संस्कार द्वारा समाप्त किया जाय।

सामान्य स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए यज्ञाग्नि द्वारा वायु भूत बनाये गये पदार्थों का सेवन, मुख द्वारा खाये और पचाये गये पौष्टिक पदार्थों की तुलना में कहीं अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकता है। इस प्रकार बीमारियों से लड़ने वाली जीवनी शक्ति को बढ़ाने तथा विषाणुओं के आक्रमण को निरस्त करने में भी यज्ञाग्नि का कारगर उपयोग हो सकता है। क्षय, केन्सर जैसे ढीठ रोगों के उपचार में यदि विज्ञ रसायनवेत्ताओं के परामर्श से चिकित्सा उपक्रम किया जाय तो उसका परिणाम उन औषधियों की अपेक्षा कहीं अधिक हितकर हो सकता है जो बीमारी के साथ−साथ बीमार को भी मारती हैं। स्वास्थ्य रक्षा के अतिरिक्त मनोबल बढ़ाने और व्यक्तित्व को विकसित करने में समर्थ विचारणाओं और भावनाओं का सम्वर्धन इतना बड़ा लाभ है जिसे स्वास्थ्य रक्षा से भी अनेक गुना अधिक महत्वपूर्ण माना जायेगा।


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