मनोनिग्रह के लिये उपासना की आवश्यकता

May 1978

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विज्ञ व्यक्ति किसी निष्कर्ष पर पहुँचने, दिशा निर्धारण करने और कदम उठाने के लिए दूरदर्शी विवेकशीलता को कदम आधार मान कर चलते हैं। अपनी सूक्ष्म बुद्धि से इतना ही सोचते हैं कि भविष्य को उज्ज्वल बनाने की सम्भावनाएँ कहाँ हैं? वे जहाँ भी होती हैं उधर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं और गतिविधियों को अग्रसर करते हैं। भले ही इससे उन्हें तात्कालिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए नीरस लगने वाले, श्रमसाध्य और खर्चीले काम करने में भी उन्हें आपत्ति नहीं होती। मन पर उनका इतना अधिकार होता है कि उसे श्रेय पथ पर नियोजित कर सकें। कुसंस्कार आड़े आते हों तो उन्हें निरस्त करके अभीष्ट लक्ष्य पर तत्परता पूर्वक लगे रह सकें।

यह स्थिति सभी की नहीं होती। मनुष्य समाज में बाल बुद्धि स्तर के लोगों का ही बाहुल्य है। उन्हें कुसंस्कारी मन अपनी उँगलियों के इशारे पर नचाता है। संकल्प शक्ति के अभाव में वे उस प्रवाह को रोक नहीं पाते हैं और आँधी में उड़ने वाले तिनकों की तरह इधर−उधर मर्जी पर चलाने वाले मनस्वी व्यक्ति बहुत कम होते हैं, जो होते हैं वो अभीष्ट प्रगति की दिशा में अनवरत क्रम से बढ़ते हैं और सफलता के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं। इसके विपरीत अधिकांश व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें मन अपनी मर्जी पर चलाता है। वह हठपूर्वक जिधर भी चलता है उधर ही बेलगाम घोड़े की तरह धर दौड़ता है और बेचारा मालिक अपने को असहाय अनुभव करके साथ−साथ ही मारा−मारा फिरता है यों कहने को तो पीठ पर नहीं बैठा दीखता है। वस्तु स्थिति यह होती है कि उद्दण्ड घोड़ा ही असली मालिक होता है सवार तो किसी प्रकार अपनी स्थिति बनाये रहने के लिए जान बचा कर जैसे−तैसे बैठा भर रहता है। जिधर जाया जा रहा है उसमें खतरा भी दीखता है किन्तु किया क्या जाय आत्मिक दुर्बलता के कारण मन के पीछे−पीछे दौड़ने के अतिरिक्त और कुछ बन ही नहीं पड़ता। मन की अपनी बेढंगी चाल है। उसे आकर्षण ही रुचते हैं। उन्हीं में वह रमता है। अभ्यास ओछे स्तर के आकर्षणों का रसास्वादन करने का रहा होता है तो उसकी कुचालें, उड़ाने उसी क्षेत्र में अपना कमाल दिखती रहती हैं। किसी अनभ्यस्त दिशा में यदि पहले से भी बड़ा आकर्षण प्रस्तुत न किया जाय तो वह उधर मुड़ता ही नहीं। आवारा लड़कों को उनके अभिभावक प्रयत्न पूर्वक स्कूल भेजते हैं। दुकान पर बिठाते हैं, अन्य उपयोगी कार्य बताते हैं, पर आवारागर्दी इस कदर सवार रहती है कि वे कोई न कोई बहाना बना कर अपने रास्ते पर ही चलते हैं, सौंपे हुए महत्वपूर्ण कामों को बर्बाद करके रख देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। कुसंस्कारी मन की प्रायः ऐसी ही स्थिति होती है। उपासना जैसे नीरस दीखने वाले प्रसंग पर उसे सहज ही जमाया जा सकना सरल नहीं है। इसके लिए एड़ी−चोटी पसीना एक करना पड़ता है। जो लोग आरम्भ में ही ऐसा सोचते हैं कि आसन पर बैठते ही मन लग जाना चाहिए है वे उस अबोध बालक की तरह हैं जो बीज बोते ही पेड़ खड़ा हो जाने की कल्पना करते हैं। मन की एकाग्रता तो आरम्भ में नहीं साधना की सफलता की स्थिति आने तक मिल पाती है। उपासना का तीन चौथाई परिश्रम तो मन की एकाग्रता साधने में ही लग जाता है। ईश्वर के साथ आदान−प्रदान तो इसके बाद अति सरल रह जाता है। इसके उपरान्त एक चौथाई श्रम प्रयास में ही ईश्वर सान्निध्य का आनन्द मिलने लगता है।

जन्म−जन्मान्तरों से कुसंस्कारों का अभ्यस्त मन भौतिक आकर्षण से विरत होकर आत्मिक आनन्द की रसानुभूति करने लगे, इसके उपासना का विज्ञान और सत्परिणाम समझने के लिए अधिक गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न करने की बात कही जा चुकी है। इस दिशा में अधिक चिन्तन करने से, बहुत दिन तक लगातार इस संदर्भ में प्रशिक्षित करते रहने से, स्वाध्याय, सत्संग, मनन चिन्तन के सहारे मन की अभिरुचि बदलती है और वह उस संदर्भ में भी रुचि लेने लगता है। इस संदर्भ में थोड़ी−थोड़ी धीरे−धीरे सफलता मिले तो भी उसे उत्साहवर्धक एवं आशाजनक समझना चाहिए।

बाल बुद्धि और पशु प्रवृत्ति को किसी दिशा में मोड़ने के लिए प्रायः दो उपाय बरते जाते हैं—एक लोभ दूसरा भय। बच्चों को प्रलोभन देकर कुछ कराने और गड़बड़ करने पर डराने की नीति सभी अभिभावकों को अपनानी पड़ती है। एक आँख प्यार की, दूसरी सुधार की रखनी पड़ती है। प्यार का आकर्षण और ताड़ना का भय उन्हें संतुलित रहने के लिए सहमत कर लेता है। पशुओं को चारे का लोभ देकर या छड़ी का भय दिखा कर काम लेने की कला से सभी पशु पालक भली भाँति परिचित होते हैं। वन्य पशुओं को पकड़ कर जब लाया जाता है तब तो इन दोनों क्रियाओं के सहारे ही उन्हें काम करने योग्य (पालतू) बनाया जाता है। बैल और घोड़ों के बछड़े काम में जुतने के लिए आरम्भिक दिनों में कितना परेशान करते हैं और उन्हें काबू में लाने के लिए क्या−क्या करना पड़ता है, उसे पशु पालकों से जाकर पूछा जा सकता है। सरकस में चित्र−विचित्र करतब दिखाने वाले भयानक जानवरों को कलाकार जैसी स्थिति में लाने के लिए उन्हें सिखाने वाले धैर्यपूर्वक अपना चतुरता भरा प्रयास जारी रखते हैं। इस कार्य में उन्हें नरम गरम दोनों ही तरीके काम में लाने पड़ते हैं। इस कार्य में उन्हें चुटकी बजाते सफलता नहीं मिल जाती है। सीखने भूलने का, चलने−हटने का क्रम जारी रखने वाले जानवर कभी तो सहम जाते और कभी उत्तेजित होकर गुर्राते और आक्रमण पर उतारू हुए दीखते हैं। बुद्धिमान शिक्षक इन उतार−चढावों को जानता है। उसे पशु प्रवृत्ति के स्वरूप और उसके परिवर्तन में लगने वाले कौशल की समुचित जानकारी रहती है। अस्तु देर लगने तथा अड़चन पड़ने का उसके मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रयास को निरन्तर जारी रखने पर उसके जानवर देर−सवेर में सध ही जाते हैं। इन प्रशिक्षकों का धैर्य, प्रयास और आत्म−विश्वास देखते ही बनता है। कुसंस्कारी मन को विशुद्ध रूप में वन्य पशु मान कर चलना चाहिए। आमतौर से वह अनगढ़ ही होता है। नर वानरों का, वन मानुषों का ही समूह चारों ओर फिरता है। आजीविका उपार्जन और व्यवहार कौशल की दृष्टि से भले ही उन्हें भला माना जा सके, मन का स्तर देखने पर तो वहाँ बालबुद्धि और पशु प्रवृत्ति का ही साम्राज्य छाया दीखता है। मनस्वी व्यक्ति ही महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करते और अपनी गौरव गरिमा प्रमाणित करते देखे जाते हैं। विकृत मन की मार खाते रहने वाले तो रोते कलपते, हेय और पतित जीवन जीकर किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं। आत्मिक प्रगति की दिशा में, उपासना अभ्यास में, सबसे बड़ा अवरोध इस अनगढ़ मन द्वारा ही उत्पन्न किया जाता है। उसी की रोक−थाम और शिक्षा−दीक्षा के लिए अनेकानेक साधना विधानों का आविष्कार किया गया है यदि धैर्य, साहस और संकल्प पूर्वक उन्हें अपनाये रहा जाय तो समयानुसार सफलता मिल जाना निश्चित है। आतुर और अधीर ही हथेली पर सरसों जमने की अपेक्षा करते हैं और वे ही कुछ दिन बहुत अभ्यास करके, मन न लगने का बहाना बना कर अपने प्रयास से मुँह मोड़ लेते हैं। पानी के बुलबुले जैसा क्षणिक उत्साह कभी−कभी महत्वपूर्ण सफलता को प्राप्त करने का आधार नहीं बन सकता। ऐसे अस्थिर चित्त व्यक्ति उपासना के महान प्रयोजन को भी पूरा नहीं कर पाते।


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