महत्व प्रवृत्तियों का नहीं, उनके उपयोग का है।

May 1978

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सर्दी और गर्मी दोनों के अपने उपयोग हैं। इन्हें एक−दूसरे को पूरक कह सकते हैं। सृष्टि सन्तुलन प्राणि जगत का व्यवस्थित विकास उन दोनों के समन्वय से ही होता है। जहाँ शीत का बाहुल्य होगा वहाँ का वातावरण न प्राणियों के निर्वाह योग्य रहेगा और न वनस्पतियों के उगने की व्यवस्था बनेगी। सामान्य स्वास्थ्य पर इन दोनों की प्रतिक्रिया का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि दृढ़ता एवं सहन शक्ति बढ़े तथा प्रतिकूलता से जूझने वाली जीवनी शक्ति का विकास होता चले।

रात्रि और दिन देखने में परस्पर विरोधी लगते हैं, पर वस्तुतः दोनों एक−दूसरे के पूरक हैं। सदा दिन रहे तो उत्तेजना और थकान से चूर−चूर रहकर प्राणियों को दम तोड़ना पड़े और पदार्थ जल भुनाकर नष्ट होने लगें। सदा रात्रि रहे तो भी सर्वत्र आलस्य उदासी छाई रहे तो निस्तब्धता की नीरसता में दम घुटने लगे। सुख और दुःख भी यों एक−दूसरे के प्रतिकूल हैं, पर इन उतार−चढ़ावों के सहारे के अनुभव बढ़ता है, व्यवहार कुशलता आती है तथा सन्तुलन की आवश्यकता गले उतरती है। जिसे इनमें से एक ही परिस्थिति में रहना पड़े, उनका व्यक्तित्व सर्वथा एकांगी और अपूर्ण रह जायगा। समुद्र में ज्वार−भाटे आने से ही उसकी स्थिरता में प्रवाह की आवश्यकता पूरी होती है। यदि वह उतार−चढ़ाव न आवें तो समुद्र कुछ ही समय में सड़न, दुर्गन्ध और विषाक्तता से भर जाय।

बुद्धि क्या है? नीर−क्षीर विवेक की प्रवृत्ति। मन में एक पक्षीय कल्पना तरंगें उठती हैं। उन्हीं के प्रेरणा, प्रवाह में निम्न स्तर वाले प्राणी बहते रहते हैं। मनुष्य की मानसिक विशेषता यह है कि वह उचित−अनुचित, लाभ−हानि का उभयपक्षीय विचार करता है और उस उलटे सीधे मन्थन के उपरान्त जो युक्ति संगत निष्कर्ष निकलता है, उसे निर्णयात्मक एवं स्वीकार्य मानकर ग्रहण करता है। इसी का नाम बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता या विवेकशीलता है। इसी मन्थन एवं निष्कर्ष क्षमता का जिसमें जितना विकास हुआ है वह उतना ही बुद्धिमान समझा जाता है और अपनी इस विशेषता के कारण उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचता है। बढ़ी−चढ़ी सफलताएँ प्राप्त करता है। जिनमें यह विशेषता नहीं होती वे भावुक अथवा मूर्ख कहे जाते हैं। अपनी इसी कमी के कारण वे किधर भी भटकते हैं—हवा के साथ उड़ने वाले पत्तों की तरह दिशा विहीन उड़ते हैं, घाटा उठाते और ठोकरें खाते हैं तथा धूर्तों के चंगुल में फँसकर भयंकर बर्बादी के गर्त में जा गिरते हैं। श्रद्धा और विश्वास की अपनी उपयोगिता है किन्तु सतर्कता और आशंका का संरक्षण न रहे तो वह अन्ध श्रद्धा भी मनुष्य को ले डूबती है। श्रद्धा के साथ विवेक का, भावना के साथ तर्क का, समन्वय होना ही चाहिए।

सद्गुणों और दुर्गुणों के सम्बन्ध में भी हमें मौलिक रूप से विचार करना चाहिए और दोनों की उपयोगिता पर विचार करना चाहिए। उचित स्थान पर हर बात का उपयोग श्रेयस्कर है। निन्दा तो अनुचित प्रयोग भर की होती है। गलत जगह पर किसी वस्तु या वृत्ति का प्रयोग किया जायगा तो ही उससे गड़बड़ी उत्पन्न होगी। खीर में नमक और दाल में चीनी डालने वाले रसोइये पर डांट पड़ेगी। न चीनी व्यर्थ है और न नमक। दोनों का उचित स्थान पर उपयोग किया जाय तो स्वाद मिलेगा और स्वागत होगा। चाकू से शाक काटा जाय तो लाभ है किन्तु उससे उँगली काट ली जाय तो फिर उसकी निन्दा ही होगी। माचिस से दीपक जलाना ठीक है पर उसी से छप्पर में आग लगा दी जाय तो उस वस्तु को निन्दा का ही भाजन बनना पड़ेगा। गुणकारी औषधि भी यदि गलत तरीके से गलत रोग में दे दी जाय तो उसमें हानि ही उठानी पड़ेगी।

उदाहरण के लिए प्रेम और घृणा को दो परस्पर विरोधी वृत्तियों में लिया जा सकता है और यह देखा जा सकता है कि उनमें से जिस प्रेम की प्रशंसा की जाती है क्या वह सर्वथा निर्दोष ही है? और जिस घृणा को हेय ठहराया जाता है क्या उसे सर्वथा त्याज्य ही समझा जाय? मोटेतौर पर जो कहा सुना जाता रहता है, वह एकांगी और एक पक्षीय है। उसे अविवेक पूर्ण ही कहा जायगा। आमतौर से सबसे सद्व्यवहार करने की बात कही जाती है, पर यदि उसी सिद्धान्त को आँखें मूँदकर व्यवहार में लाया जाय तो इसका परिणाम निश्चित रूप से अनर्थ के रूप में ही सामने आवेगा। क्षमा, दया, करुणा आदि गुणों की बहुत प्रशंसा है पर यदि इन्हें कुपात्रों और कुकर्मियों के लिए भी प्रयुक्त किया जाने लगे तो समझना चाहिए कि इस अविवेक के कारण मात्र सर्वनाश ही उपस्थित होगा।

प्रेम तत्व की महिमा सर्वत्र गाई गई है और उसे परमेश्वर का रूप बताया गया है। इस मान्यता की गरिमा तभी है जब वह प्रेम सज्जनों के साथ सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाय। यदि दुष्ट, दुराचारी परस्पर कुकर्म करने के लिए आपस में घनिष्ठता उत्पन्न करें तो उन मित्रों के लिए, समाज के लिए, आदर्शों के लिए, भयंकर दुष्परिणाम ही उत्पन्न होंगे। यह प्रेम तत्व का अवांछनीय उपयोग हुआ, इसलिए उसे हेय ठहराया गया। अन्धा, अनाचार उत्पन्न करने वाला ‘प्रेम’ उस अर्थ में नहीं लिया जा सकता जिसको ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शियों ने प्रेम तत्व को इतना गौरव प्रदान किया था। सत्पात्र एवं सदुद्देश्य की शर्त पूरी करने के बाद ही प्रेम की सराहना की जायेगी अन्यथा दुष्प्रयोजन में संलग्न होने पर तो वह शत्रुता से भी गया बीता और हेय निन्दित ठहराया जायगा।

प्रेम का प्रतिकूल पथ है—घृणा। आमतौर से इसे निन्दित ठहराया जाता है, पर देखना यह है कि क्या अनाचार से घृणा करना भी अनुचित है। स्पष्ट है कि अवांछनीयता के प्रति—पाप और दुष्कर्मों के प्रति जितना गहरा घृणा भाव रहेगा उतना ही उनसे बचाव सम्भव होगा। यदि पाप और पुण्य दोनों से उपेक्षा भाव बरता जाय तो मनुष्य भावनात्मक दृष्टि से नपुंसक ही ठहराया जायगा। भले और बुरे में अन्तर करने पर ही बुराई से बचना और भलाई को अपनाना सम्भव होगा। यह कार्य घृणा और प्रेम की प्रखरता से ही सम्भव हो सकता है। यदि एक ही लाठी से पाप और पुण्य को भले और बुरे को हाँका जाने लगा तो समझना चाहिए कि विवेकशीलता का अन्त हो गया। ऐसी सम दृष्टि या तो परमहंसों के लिए सम्भव हो सकती है या फिर उसे वज्र मूर्ख ही अपना सकते हैं। व्यावहारिक क्षेत्र में उससे मात्र अनर्थ ही उपस्थित हो सकता है।

अनजान बालकों से व्यवहार ज्ञान की कमी के कारण जो भूलें होती रहती हैं उन्हें अबोधता की मनःस्थिति का ध्यान रखते हुए क्षमा किया जा सकता है। किन्तु दुष्ट, अनाचारी, आक्रमणकारी, आततायी, षड्यन्त्रकारी भी उन्हीं अबोधों की श्रेणी में खड़े होकर क्षमा मांगने लगें तो फिर न्याय की, दण्ड व्यवस्था की, कोई आवश्यकता ही न रहेगी। जन साधारण की धर्म भीरुता का लाभ उठा कर दुष्ट−दुराचारी क्षमा याचना करते और दया की भिक्षा माँगते देखे गये हैं। पकड़ में आजाने पर इसी ढाल से वे अपना बचाव कर लेते हैं और जैसे ही अवसर टला अपनी चतुरता पर मूंछें ऐंठते, दुर्बल मनोभूमि वालों को उल्लू ठहराते, चौगुने उत्साह के साथ फिर उसी दुष्कर्म में लगते हैं। उन्हें भरोसा रहता है कि इसी हथकण्डे को अपना कर वे बार−बार अपना बचाव करते हुए कुकर्मरत रह सकते हैं।

कोई अपराधी सच्चे मन से क्षमा याचना नहीं कर सकता और सुधर नहीं सकता, यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है। पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त यदि वास्तविक हो तो उससे जीवन क्रम में आमूल−चूल परिवर्तन भी हो सकता है, पर उसमें सच्चाई होनी चाहिए। सच्चे मन से क्षमा याचना की जा रही है या नहीं इसकी दो कसौटियाँ हैं—एक यह कि लोक निन्दा का दण्ड स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करने के लिए जो कुकर्म किये हैं उन्हें जी खोल कर उगल दे। इसके अतिरिक्त अनीति उपार्जन को वापिस लौटाने का साहस दिखायें। उस कमाई से लाभ−उठाने का लोभ त्यागें, वापसी में आनाकानी न करें। प्रायश्चित्त इसी का नाम है। सचाई का प्रमाण इससे क्रम में नहीं मिलता यदि दुष्कर्म को उगलने और पाप उपार्जन को वापिस करने की बात नहीं तो समझना चाहिए कि क्षमा याचना थोथी है और उसे दण्ड अवसर चुकाने के लिए एक धूर्ततापूर्ण हथकण्डे के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में क्षमादान का पुण्य वस्तुतः पाप पोषण का अनर्थ करने के समान ही भयंकर होता है।

भगवान के अवतार में अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना की दो प्रतिज्ञाएँ जुड़ी हुई है। नाश पर उतारू तभी हुआ जा सकता है, जब उसके लिए घोर घृणा हो। स्थापना की बात तभी बनेगी जब उस कार्य में अतिशय प्रेम और उत्साह हो। भगवान का प्रत्येक अवतार इन दोनों प्रकार की प्रखरताओं से भरा−पूरा रहा है। भगवान राम ने राक्षसों द्वारा खाये जाने पर ऋषियों की अस्थियों के ढेर देखे, उन्हें देखने पर उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। ऋषियों को अकारण जिस अनीति का शिकार होना और उत्पीड़न सहना पड़ा उससे भगवान के मन में जो करुणा उत्पन्न हुई वह निर्जीव नपुंसकों जैसी नहीं थी वरन् उसमें पौरुष पराक्रम एवं शौर्य साहस से भरा−पूरा प्राण भी जुड़ा हुआ था। इसलिए उन्होंने करुणा व्यक्त करने के साथ−साथ दूसरे ही क्षण भुजा उठाकर ‘निश्चर हीन करो मही’ की प्रतिज्ञा भी कर डाली। तथा उस संकल्प को पूरा करके भी दिखाया। धर्म की स्थापना के लिए राम अवतरण हुआ था। पर वह एक पक्षीय क्रिया−कलाप अपनाने से सम्भव नहीं था, उसके लिए असुरता का उन्मूलन भी समान रूप से आवश्यक था। विनाश के लिए घोर घृणा और स्थापना के लिए प्रबल−सद्भावना की आवश्यकता है। दोनों बातें एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। फिर भी उनका समन्वय रहने से ही भगवान राम को, भगवान कृष्ण को अथवा अन्यान्य अवतारों के लिए अपना अवतरण उद्देश्य पूरा कर सकना सम्भव हुआ।

स्वाभिमान और अहंकार में थोड़ा−सा ही अन्तर है। आत्मिक गरिमा को उत्कृष्टता के आधार पर अक्षुण्ण बनाये रहने के वृत्ति को स्वाभिमान कहते और सराहते हैं। धन, रूप, पद, बल आदि भौतिक सम्पदाओं के आधार पर जो अहमन्यता उत्पन्न होती है वह अहंकार है। आत्म−गौरव प्राप्त करने की एक ही चेष्टा दो भिन्न आधारों में जब फूटती है तो वह एक स्थान पर प्रशंसनीय और दूसरे पर निन्दनीय बन जाती है।

समाज को अपना श्रेष्ठतम प्रतिनिधि−सभ्य नागरिक देकर जीने की भावना से किया हुआ सन्तानोत्पादन एक प्रकार का बलिदान एवं सृजन निर्माण है। इसके विपरीत कामुकता से प्रेरित होकर अश्लील क्रिया−कलाप में जुट जाना और कुसंस्कारी पिल्ले जनते रहना पाप कर्म है। काम प्रवृत्ति के सदुपयोग और दुरुपयोग की कसौटी पर ही उसे श्रेष्ठ और निकृष्ट ठहराया जाता है।

सदुद्देश्य के लिए आत्मीयता की सघनता को प्रेम और व्यक्तिगत व्यामोह से प्रेरित होकर व्यक्ति विशेष की अनुचित आकांक्षाओं को पूरा करना अथवा उसके लिए अनावश्यक वैभव छोड़ना मोह है। प्रेम में गुणों का सम्वर्धन और मोह में तुष्टीकरण जुड़ा रहता है, जो भले ही अनुचित रहा हो। प्रेम और मोह में राई रत्ती का अन्तर है और उसे उत्कृष्टता निष्कृष्टता की कसौटी पर ही परखा जा सकता है।

उद्दण्ड और शूरवीर में—सत्याग्रही और अनुशासनहीन में, संयमी और कृपण में, कायर और अहिंसक में बाहरी दृष्टि से बहुत थोड़ा अन्तर मालूम पड़ता है, पर अन्वेषण से पता चलता है कि एक ही प्रवृत्ति को गलत एवं सही तरीके से प्रयोग करके उसे निकृष्ट अथवा श्रेष्ठ बना दिया गया है। यहाँ सदुपयोग−दुरुपयोग की बात को ही महत्व दिया जा सकता है।

क्रोध की उपयोगिता उस कथा में प्रकट होती है जिसमें एक सर्प ने किसी महात्मा का उपदेश सुनकर अहिंसा का व्रत ले लिया था। फलतः बच्चों ने पीट पाट कर उसका भुर्ता बना दिया। पीछे उसे एकांगी सज्जनता की भूल मालूम हुई तो फुंसकारना आरम्भ किया और पीटने वालों की डराकर अपनी जान बचाई। यहाँ सन्तुलित क्रोध की उपयोगिता सिद्ध होती है। द्रोणाचार्य के कन्धे पर धनुष और हाथ में शास्त्र रहता था। वे कहते थे दुष्टता से निपटने के लिए शस्त्र और सज्जनता को बढ़ाने के लिए शास्त्र की आवश्यकता है। दोनों एक−दूसरे से प्रतिकूल दीखते हैं, पर आवश्यकतानुसार दोनों का प्रयोग करने से ही व्यावहारिकता की नीति अपनाई जा सकती है। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने शिष्यों को एक हाथ में भाला और दूसरे में माला धारण करने का गुरु मन्त्र दिया था। इस प्रकार के प्रशिक्षण की उपयोगिता भी है और आवश्यकता भी। बुद्ध के शिष्यों ने एकांगी अहिंसा का प्रचार करके जनसाधारण को निस्तेज बना दिया फलतः मुट्ठी भर आक्रमणकारी इतने बड़े देश को पैरों तले कुचल डालने और लम्बे समय तक नृशंस शासन कर सकने में सफल हो सके। यह अनीति के प्रति आक्रोश ठण्डा कर देना और अहिंसा के अतिवाद का ढिंढोरा पीटने का ही दुष्परिणाम था।

भारतीय धर्म संस्कृति में आदर्शों के एकांगी उपयोग का कहीं समर्थन नहीं किया गया है वरन् देश, काल, पात्र की स्थिति को समझते हुए तदनुसार रीति अपनाने का निर्देश किया गया है। इसमें दक्षिणाचार और वामाचार दोनों की समान रूप से गुंजाइश रखी गई है। सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, करुणा, दान आदि सभी सद्गुणों की शास्त्रकारों ने भूरि−भूरि प्रशंसा की है पर साथ ही पात्र कुपात्र का ध्यान रखने का कठोर निर्देश भी किया है अन्यथा यही सद्गुण समझी जाने वाली सत्प्रवृत्तियाँ दोष−दुर्गुणों से भी अधिक भयंकर दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं। डाकुओं के घर में घुस आने और पकड़ लेने पर घर का माल कहाँ रखा है यह सच-सच बता दिया जाय तो उससे अपने ऊपर निर्धनता का अभिशाप चढ़ेगा और डाकू सरलतापूर्वक सम्पन्न बन कर अधिक उत्साहपूर्वक दुष्टता अपनायेंगे। ऐसी दशा में उन्हें सत्यवादियों के घरों पर डाका डालना ही अधिक लाभदायक प्रतीत होगा। मिलिट्री के कप्तान अपनी भावी योजना को सचाई के नाम पर प्रकट कर दिया करें, गुप्तचर विभाग के लोग अपना पद और उद्देश्य सच−सच घोषित करते फिरें तो फिर वे अपने कर्त्तव्य से च्युत ही गिने जायेंगे। सच बोलना नहीं, सत्य, आदर्शों की रक्षा करना आवश्यक है। इसके लिए युक्ति−युक्ति असत्य को भी अपनाया जा सकता है। भगवान कृष्ण का जीवन ध्यानपूर्वक पढ़ने से प्रतीत होता है कि उन्होंने सत्य की रक्षा के लिए असत्य के शस्त्र को अपनाने में कहीं भी आनाकानी नहीं की है। श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए श्रेष्ठ साधन की नीति सन्त परम्परा में चलती रही है और चलनी चाहिए, पर वह सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में यदि उसी को मान्यता मिलने लगे तो समझना चाहिए कि अब सर्वनाश ही होकर रहेगा।

सत्य की अपनी उपयोगिता है और असत्य की अपनी। प्रश्न केवल उपयुक्त स्थान पर उन्हें प्रयोग करने का है। अहिंसा की गरिमा बताई गई है, पर वह भी सापेक्ष है। आततायियों को मृत्यु दण्ड देने में प्रत्यक्षतः हिंसा कृत्य मालूम देता है, पर वस्तुतः वह हिंसा अनाचार की रोकथाम का उद्देश्य पूरा करने में अहिंसा से भी अधिक उपयोगी है। सज्जनों से, सदुद्देश्यों से प्रेम करना उचित है। पर दुष्टता के प्रति जितनी गहरी घृणा होगी, उतना ही उस पर नियन्त्रण करने वाले रोष आक्रोश का, विरोध असहयोग का जगाया जा सकना सम्भव होगा। यदि सज्जनता से भी प्रेम, दुर्जनता से भी प्रेम करने की नीति अपनाई गई तो उसे आदर्शों के साथ किया गया व्यभिचार ही माना जायगा। अबोधों को क्षमा किया जाना चाहिए, पर दुष्टता के अभ्यस्त कुचक्रियों को दण्ड दिलाने में भी उतना ही उत्साह होना चाहिए। दान उत्तम है किन्तु ढोंगियों, निठल्लों और विकृतियाँ उत्पन्न करने वाले लोगों को यदि आँखें मूँद कर दान दिया जाता रहा तो पुण्य दीखते हुए भी निश्चित रूप से पाप जैसे दुष्परिणाम उत्पन्न करेगा। ऐसे लोगों के साथ उदारता बरतने की अपेक्षा निष्ठुरता अपनाने में ही अधिक भलाई है।

मानवी प्रवृत्तियों में सत् और तम की दोनों प्रवृत्तियों का भगवान ने विचार पूर्वक समावेश किया है। उन्हें उचित स्थान पर उचित रीति से प्रयोग में लाया जाय तो दोनों ही अपनी−अपनी उपयोगिता सिद्ध करती हैं। अनर्थकारी कोई प्रवृत्ति नहीं। मात्र उनका दुरुपयोग ही हानिकारक है। प्रवृत्तियों को महत्व देने की अपेक्षा उनके औचित्य और उपयोग स्थल का ध्यान रखा जाय।

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