दुनिया को जैसी कुछ हम देखते हैं वस्तुतः वह वैसी ही है उसमें संदेह की पूरी−पूरी गुंजाइश है। यदि हमारी आँखों की वर्तमान क्षमता में थोड़ा−सा अन्तर होता है और वे इन्फ्रारेड किरणों को देख पातीं तो दुनिया इससे बिलकुल भिन्न प्रकार की दीखती जैसी कि अब हमें दीख पड़ती है। प्राणि जगत के विभिन्न प्राणी अपनी इन्द्रिय शक्ति के सहारे अपने सम्पर्क में आने वाले पदार्थों और प्राणियों के बारे में मत निर्धारित करते हैं। ये अनुभूतियाँ एक से दूसरे को इस प्रकार होती हैं जिसमें परस्पर तनिक भी समानता नहीं रहती। दीमक के लिए तीतर साक्षात यमराज है, पर बाज के लिए वह चलते फिरते स्वादिष्ट भोजन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। ऊँट नीम की पत्तियों को स्वाद पूर्वक खाता है किन्तु हमें वे कड़ुई लगती हैं। रासायनिक विश्लेषण से नीम का सार तत्व एक ऐसा रसायन है जिसे विभिन्न प्राणियों की जिह्वा विभिन्न प्रकार के स्वादों में अनुभव करेगी। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की संरचना के आधार पर वस्तुओं की तथा प्राणियों की उपस्थिति की चित्र−विचित्र प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इसमें मस्तिष्क की बनावट और प्राणी की वंश परम्परा गत संचित अनुभूतियाँ भी बहुत बड़ा कारण हैं। विज्ञानी रेनाल्ड के अनुसार यह दृश्य संसार परमाणुओं की धूलि का उड़ता हुआ अन्धड़ मात्र है। कणों के इकट्ठे होने और बिखरने से विभिन्न पदार्थ बनते बिगड़ते रहते हैं। प्राणी किस वस्तु को किस रूप में समझे और उनसे क्या अनुभूति उपलब्ध करें यह पदार्थ के ऊपर नहीं, जीव धारियों की अपनी संरचना पर निर्भर है। संसार का असली रूप और प्रभाव क्या है यह जानना असंभव है क्योंकि हमारी जानकारी जिन इन्द्रियों पर निर्भर है वे स्वयं ही एक विशिष्ट प्रकार की है और जैसी कुछ वे हैं उनका ज्ञान भी उसी प्रकार पर बनता है। इन अनुभूतियों में वास्तविक नगण्य और संरचना का ही प्राधान्य है।
कामुकता की वृत्ति को ही लें उसका रसास्वादन एक प्राणी से दूसरे के लिए सर्वथा भिन्न प्रकार का है। यह उसके अपने स्नायु संस्थान मनःतन्त्र एवं इन्द्रिय संरचना की प्रतिक्रिया भर है। स्पर्श कितना उत्तेजक, कितना सरस नीरस कितना भार भूत होता है यह सब हर प्राणी की अपनी−अपनी स्थिति पर निर्भर है। साथी के योगदान और सरसता मिलने की बात समझी भर जाती है वस्तुतः वह सब कुछ होता अपनी ही स्थिति की प्रतिफल है।
आँखों की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। उनकी प्रामाणिकता भी माननी पड़ती है। प्रत्यक्ष दर्शन की बात सही मानी जाती है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि आँखें जो कुछ देखती हैं वह सही ही होता है। मृग मरीचिका, इन्द्रधनुष, भूत−प्रेत आदि आँखों से दीखने पर भी मिथ्या ही सिद्ध होते हैं। सिनेमा में चलती फिरती तस्वीरों का दीखना आँखों का भ्रम है वस्तुतः वे अचल होती हैं। जिस तेजी से फिल्म घूमती है उतनी तेजी से आँखों के ज्ञान−तन्तु मस्तिष्क तक सही सूचना पहुँचा सकने में समर्थ नहीं होते। फलतः फिल्में चलती−फिरती दीखने लगती हैं। जब सामान्य घटना क्रमों के सम्बन्ध में यह बात है तो संसार की, जीवन की वस्तुस्थिति समझने में तो आँखें और भी कम काम करती हैं। भगवान का, आत्मा का, दर्शन दिव्य चक्षुओं से, ज्ञान नेत्रों से ही सम्भव है। चर्म−चक्षुओं से चेतना तत्व को देख सकना तो दूर भौतिक जगत में प्रत्यक्ष विद्यमान विद्युत प्रवाह, रेडियो विकरण, श्रवणातीत ध्वनियाँ जैसे तथ्यों को भी नहीं देखा जा सकता सामने प्रस्तुत कितनी ही वस्तुएँ खुली आँख से नहीं दीखतीं सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों के सहारे ही उनका पता चलता है। टेलिस्कोप सामने के वे दृश्य दिखाता है जो आँखें नहीं देख पातीं।
ज्ञान प्राप्ति के माध्यमों से सुनना और देखना अति महत्वपूर्ण है। मस्तिष्कीय विकास में इन्हीं दो माध्यमों की भूमिका प्रधान है। स्वाध्याय में आँखें और सत्संग में कान ही मस्तिष्क तक ज्ञान का प्रवाह पहुँचाते और उसे सुसम्पन्न बनाते हैं। यों अन्य माध्यमों से भी कई तरह की उपयोगी जानकारियाँ मिलती हैं, पर प्रधानता इन्हीं दो की है।
भगवान ने दस इन्द्रियाँ मनुष्य को दी हैं, पर ज्ञानभंडार को भरने में आँख और कान का योगदान जितना काम करता है उतना अन्य सब ज्ञान उपार्जन−साधन मिल कर भी नहीं कर पाते। यह दोनों इन्द्रियाँ कुछ अन्धे बहरों को छोड़ कर होती तो सभी के हैं, पर उनका ठीक उपयोग विरले ही जानते हैं। जो जानते हैं वे इन दोनों गुरुओं से वैसा ही महत्वपूर्ण शिक्षण प्राप्त करते हैं जैसा कि व्यास ने वशिष्ठ और विश्वामित्र से प्राप्त किया था।
उपेक्षा पूर्वक पढ़ने और पढ़ाने से कुशल अध्यापक और सुयोग्य विद्यार्थी भी लाभान्वित नहीं हो पाते। ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक सुविधा और उसे ग्रहण करने के लिए मस्तिष्कीय प्रखरता होने पर भी बहुत बार मनुष्य ज्ञान सम्पदा से वंचित ही रह जाता है अथवा सुविधा की तुलना में स्वल्प लाभ ले पाता है। इसमें प्रधान कठिनाई इन दोनों ज्ञानेन्द्रियों के ठीक तरह उपयोग न करने की ही होती है।
ध्यान पूर्वक सुनने से सामान्य चर्चा में भी कितनी ही सारगर्भित बातें समझ में आती हैं। उपेक्षा पूर्वक सुनने से जो शब्द कान में पड़ते हैं, उनका आधा−चौथाई भाग भी पल्ले नहीं पड़ता। जो सुनाई पड़ता है वह गले नहीं उतरता। प्रभाव इतना हलका होता है कि सुनने−सुनाने की अवधि में ही वह समाप्त हो जाता है चर्चा के समय तब कुछ समझ में आया था, वह समाप्त होते−होते उसकी भी कोई छाप शेष नहीं रह जाती।
किसी से बात करते समय यदि अखबार पढ़ने या किसी और उधेड़−बुन में लग जाने से कहने वाला अपनी उपेक्षा अवज्ञा मानता है और समझता है मेरी बात को महत्व नहीं दिया जा रहा है या उसे सुनते हुए भी अनसुनी किया जा रहा है। महत्वपूर्ण वार्ता सुनने के लिए अधिक सतर्क रहना पड़ता है। सामान्य रीति से सुनने को ‘हिय−रिंग’ कहते हैं और मनोयोग पूर्वक सुनने को ‘लिसनिंग‘। जे. कृष्ण मूर्ति अपने आध्यात्मिक भाषणों के बीच−बीच में ‘प्लीज लिसन’ शब्द कहते थे। उनका अभिप्राय उस प्रतिपादन को मनोयोग पूर्वक सुनने के लिए श्रोताओं को सजग करना होता था। पुराणों के कथानकों में थोड़े−थोड़े प्रसंग के उपरान्त ‘सूत उवाच’ शब्द आता है। बार−बार उसी शब्द का उल्लेख करने का तात्पर्य इतना ही है कि सूत जी के प्रवचन का महत्व समझा जाय। नादयोग की शब्द साधना में जिन चमत्कारी सिद्धियों का वर्णन किया गया है उन्हें कान के माध्यम से मनोयोगपूर्वक सुनना और सूक्ष्म जगत के ध्वनि प्रवाहों को ग्रहण करना ही है। वे प्रवाह सनातन हैं और सतत चलते रहते हैं। कानों के छिद्र भी सदा खुले रहते हैं। किन्तु नादयोग की स्वर साधना में सफलता तभी मिलती है जब उस श्रवण प्रयोजन के साथ गहरे मनोयोग का समावेश होता है।
जिह्वा की मधुरता की महिमा बहुत पाई गई है। मीठे और प्रेरणाप्रद शब्द कितने प्राण प्रिय लगते हैं। कटु शब्दों का घाव किस प्रकार तलवार से भी गहरा होता है यह सर्व विदित है। किन्तु जिह्वा के उच्चारण को ग्रहण तो कान द्वारा ही किया जाता है। बहरेपन से पीड़ित व्यक्ति मधुर या ज्ञानवर्धक वाणी का कोई लाभ नहीं उठा सकता, अस्तु जिह्वा से मिलने वाला लाभ वस्तुतः अपनी कर्णेन्द्रिय का ही प्रसाद है। श्रवण शक्ति से ही विविध उच्चारणों का प्रभाव ग्रहण किया जाता है अस्तु शब्द शक्ति के प्रभाव को कान की ही महत्ता समझा जाना चाहिए।
दूसरी शक्ति है आँख की। यों मोटे तौर से उसके सहारे दृश्य देखे जाते हैं पदार्थों का स्वरूप तथा घटनाओं का विवरण उससे ज्ञात होता है। गहराई में प्रवेश करने पर पता चलता है कि दृष्टि के साथ भावनाएँ भी जुड़ती हैं। युवती के प्रति कामुक की, बालक की, सन्त की दृष्टि अलग−अलग होती है। किसी का धन वैभव देखकर चोर की, हितैषी की दृष्टि में भारी अन्तर रहता है। धनी के सम्बन्ध में एक व्यक्ति उसे पुरुषार्थी, बुद्धिमान समझता है दूसरा उस पर बेईमानी से संचय का आरोप लगाता है। वास्तविकता का पता दोनों में से किसी को भी नहीं, पर वे अपनी−अपनी कल्पना के अनुसार मान्यता बनाते हैं। एक के लिये यह संसार भव बन्धन है—दूसरे के लिए माया मिथ्या, तीसरे के लिए विलासिता का प्रांगण चौथे कि लिए विराट ब्रह्म का साकार रूप। यह अपनी दृष्टि में भावनाओं का समन्वय ही है जिसके कारण वस्तु की आकृति एक रहते हुए भी उससे उत्पन्न संवेदनायें भिन्न−भिन्न प्रकार की होती हैं।
किसी के प्रति शत्रुता के भाव हैं तो उसमें सारे दोष दुर्गुण ही दिखाई देंगे और मित्रता होने पर दोष न जाने कहाँ तिरोहित हो जाते हैं और गुण ही गुण उभर कर आँख के आगे आ खड़े होते हैं। एक ही व्यक्ति को अनेक लोग अनेक दृष्टि से देखते हैं। कोई उसे पुत्र, कोई पिता, कोई भाई, कोई पति, कोई नौकर, कोई मालिक आदि की दृष्टि से देखते हैं। इसी प्रकार उसकी विशेषताएँ भी अनेक लोगों को अनेक प्रकार की दृष्टिगोचर हो सकती हैं। यह आँख की पुतली का नहीं उसकी गहराई में जुड़ने वाली भाव संवेदना की प्रतिक्रिया है। सौन्दर्य का खुली आँख से तो बहुत ही उथला अंश दिखाई देता है उसकी गहराई में तो कला दृष्टि ही प्रवेश करती और वही उसकी अनुभूति का आनन्द लेती है। वनवासी लकड़हारों को प्रकृति के सौन्दर्य का तनिक भी आभास नहीं होता जबकि चित्रकार उसी को कागज पर उतार कर स्वयं भाव−विभोर होता और असंख्यों में आह्लाद उत्पन्न करता है।
इन्द्रियों के सहारे ज्ञान प्राप्त होने के तथ्य को मान्यता देते हुए भी हमें यह मान कर चलना होगा कि वे यथार्थता का पूरा बोध करा सकने में असमर्थ है। जीवन के रहस्यों को समझने के लिए ज्ञान चक्षुओं के उपयोग की आवश्यकता है। ज्ञान चक्षु से तात्पर्य है विवेक दृष्टि—ऋतम्भरा प्रज्ञा। तत्व दर्शन के लिए हमें अपनी इसी आत्मिक विशेषता को प्रखर करना चाहिए। सत्य की शोध और लक्ष्य की उपलब्धि इसी के सहारे सम्भव हो सकती हैं।