तांदोई संप्रदाय के चार साधकों ने व्रत लिया कि वे सात दिन तक मौन−व्रत रहेंगे।
पहला दिन निःशब्द बीता, साधक प्रसन्न थे कि उनके व्रत का वे पालन कर रहे हैं।
दूसरे दिन भी वे नहीं बोले परन्तु रात की नीरवता और गहराई में जब उनमें से एक ने देखा कि उनके कमरे में जल रहे दीपक की लौ क्षीण होती जा रही है व कुछ ही समय में वह बुझ जायगी। साधक ने अकस्मात् अपने नौकर को आवाज लगाई,”दीपक में तेल डाल दो।”
उसे बोलते सुन दूसरे साधक को आश्चर्य हुआ उसने सोचा उसके साथी को मौन व्रत की विस्मृति हो गई होगी, वह बोल पड़ा, “अरे! हमारा तो मौन व्रत चल रहा है तुम भूल गए कि हमें एक भी शब्द का उच्चारण नहीं करना है।”
तीसरे से न रहा गया—वह झल्लाकर बोला, “तुम दोनों कैसे मूर्ख हो व्यर्थ बातचीत कर रहे हो जबकि हम दोनों अपने व्रत के पालन में मौन बैठे हैं।” तीनों के व्रत भंग हो जाने पर चौथा साधक आत्मसन्तोष की मुद्रा बना कर कह उठा—”तुम तीनों ने व्रत तोड़ दिया एकमेव मैं ही सच्चा व्रती हूँ जो बोल नहीं रहा हूँ।”
सभी साधकों का व्रत पूर्ण नहीं हुआ भले ही उनमें से कुछ ने मुख से न बोला हो संकेत की ही भाषा अपनाई हो, पर उन क्षणों में उनका अहंकार बोल रहा था।
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