सृष्टि के हर अंग पर सम दृष्टि है पालक पिता की। हो रही अनुदान - वर्षा, है कमी बस पात्रता की ॥
रात-दिन सुरभित पवन जब एक-सा बहता रहा है, कर झरोखे बन्द तब भी कष्ट जो सहता रहा है,
कह रहा वह- ‘वायु हमको शुद्ध अब मिलती नहीं है, दे सके जो शान्ति, अब ऐसी हवा चलती नहीं है,
ठीक करलें शीघ्र ऐसी भूल अपनी मान्यता की। हो रही अनुदान-वर्षा, है कमी बस पात्रता की॥
सूर्य की किरणें चलीं जब विश्व का तम दूर करने, चेतना देकर नयी, आलस्य का अभिशाप हरने,
खिल उठे पंकज, कुमुद ने किन्तु अपना मुख छिपाया, अन्ध-कोटर-प्रेमियों को ज्योति का वैभव न भाया
जो छिपे उनके लिए क्या त्रुटि अरुण की दिव्यता की। हो रही अनुदान - वर्षा, है कमी बस पात्रता की ॥
हो चुकी जल-वृष्टि इतनी, भर गये सरिता-सरोवर, भर गये वे क्षेत्र, जिनमें थी ग्रहण-क्षमता कहीं पर,
प्यास निज सामर्थ्य के अनुसार जीवों ने बुझायी, पर अधोमुख पात्र में लघु बूँद भी आने न पायी,
पूर्ति कैसे हो सकेगी, इस अभागी रिक्तता की। हो रही अनुदान-वर्षा, है कमी बस पात्रता की ॥
चाहती है चिन्मयी माँ वक्ष का पीयूष देकर, पुष्ट कर दे लाड़लों को, प्राण में देवत्व भरकर,
किन्तु आकर्षक खिलौने छोड़ना शिशु को न भाता, बस इसी से जुड़ न पाता शक्ति से अक्षुण्ण नाता,
कामना के कण्टकों ने राह रोकी पूर्णता की। हो रही अनुदान-वर्षा, है कभी बस पात्रता की ॥
-डॉ. हरगोविन्द सिंह
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*समाप्त*