नव-निर्माण के प्रयासों में तीव्रता अपेक्षित है।

June 1976

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नव-युग का पुण्य प्रभात अब निकट है। अन्धकार की सघन निशा का अंत और प्रकाश का व्यापक विस्तार अगले ही क्षणों होने जा रहा है। बुझते दीपक की अन्तिम चमक की तरह-विकृतियाँ अपने अवमान काल में हिचकियाँ ले रही हैं। अरुणोदय से कुछ क्षण पूर्व भी अन्धकार अधिक गहरा होता है। हममें से किसी को निराश होने की आवश्यकता नहीं। मानव जाति का उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित है। आवश्यकता इस बात की है कि परिवर्तन की इस पुष्प वेला में- सेतुबन्ध में संलग्न रीछ, बानरों की तरह और गोवर्धन उठाने में लाठियों का सहारा देने वाले ग्वाल-बालों की तरह हम अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का अधिक निष्ठा और तत्परता के साथ पालन करने में संलग्न हों। समय की पुकार और युद्ध की गुहार हमें अनसुनी नहीं करनी चाहिए। अपने स्वल्प साधनों को लेकर ही नव-युग की आरती उतारने के लिए हमें अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहिए।

युग परिवर्तन के लिए जन-मानस का परिष्कार अनिवार्य रूप से आवश्यक है। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में घुसी हुई प्रतिगामिता को निरस्त करना आवश्यक है ताकि भूमि की अच्छी जुताई हो जाने पर न्याय और विवेक के बीज बोना और सतयुग की फसल काटना संभव हो सके। अखण्ड-ज्योति का आलोक इसी प्रयास में संलग्न है। लक्ष्य की दिशा में हमारे सुनिश्चित कदम सुनियोजित क्रम से एक के बाद उठते चले जा रहे हैं।

साहित्य सृजन,संगठन,प्रचार एवं रचनात्मक कार्य-क्रमों का सूत्र संचालन युग-निर्माण योजना द्वारा हो रहा है। नव-युग सृजन शिल्पियों के प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी करने का कार्य करने में शान्ति-कुंज अपने ढंग से संलग्न है। उपनिषद् काल में जिस प्रयोजन के लिए आरण्यक गुरुकुल अपनी एकान्त प्रक्रिया में संलग्न रहते थे उसी उद्देश्य के लिए भगवती भागीरथी के तट पर-शिव स्वरूप हिमालय के अंचल तले-इस आश्रम का निर्माण किया गया था। प्रसन्नता की बात है कि विगत चार वर्षों से चल रही उसकी प्रशिक्षण प्रक्रिया आश्चर्यजनक रीति से सफल हुई है।

चरित्र-निष्ठा और समाज-निष्ठा की प्रखरता उत्पन्न करना शान्ति-कुंज के प्रशिक्षण का लक्ष्य है। शिक्षण शैली को अध्यात्म एवं धर्म के आधार पर खड़ी करना इसलिए आवश्यक था कि इसके बिना अन्तःकरण की गहराई में उच्चस्तरीय आस्थाओं का प्रतिष्ठापन अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं हो सकता।

प्रशिक्षण का शिक्षार्थियों पर पड़ने वाला प्रभाव उनके गुण,कर्म, स्वभाव में उत्साहवर्धक परिवर्तन उत्पन्न करता रहा है। यह शिक्षार्थी लौटकर अपने परिवर्तन परिष्कार का प्रभावोत्पादक परिचय देते रहे हैं। उससे अन्य लोगों की उत्कण्ठा इसका लाभ लेने के लिए सहज ही उमड़ती रही है। किसी शिक्षण की सार्थकता इसी आधार पर आँकी भी जा सकती है। शान्ति-कुंज का आरण्यक इस दृष्टि से खरा सिद्ध हुआ है और वहाँ आकर शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ती ही गई है। यह उचित भी था और आवश्यक भी। नव-युग के अवतरण का महान उद्देश्य पूरा कर सकने के लिए सृजन शिल्पियों की बड़ी संख्या और उच्चस्थिति की अनिवार्य आवश्यकता है। शान्ति-कुँज ने इसी दिशा में जो प्रयास किया है उससे यह आशा बँधती है कि इस युग की इस माँग को भी बहुत हद तक पूरा कर सकने का उपयुक्त आधार खड़ा हो गया है।

स्वल्प समय में-अधिक लोगों को लाभ मिल सके; इसके लिए सत्र शृंखला आरम्भ की गई। यद्यपि ऐसे प्रशिक्षण के लिए कई वर्ष के पाठ्यक्रम वाले सुनियोजित विद्यालयों की आवश्यकता है फिर भी “नौ मन तेल होने पर रानी का नाच होने” की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती थी। अपने स्वल्प साधनों से ही जो सम्भव था आरम्भ कर दिया गया। अखण्ड-ज्योति परिवार के सभी परिजन स्वभावतः इस अभिनव प्रशिक्षण प्रक्रिया का लाभ लेना चाहते हैं, इस स्थान और व्यवस्था की न्यूनता को ध्यान में रखते हुए सीमित शिक्षार्थी बुलाने और उनके स्वल्प कालीन सत्र चलाकर अधिक लोगों को लाभ देने की नीति अपनाई गई। यही क्रम अब तक चल रहा है। प्रशिक्षण की उपयोगिता ने शिक्षार्थियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि की है। बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिए यथासम्भव स्थान एवं साधनों का भी विस्तार किया गया है। शान्ति-कुँज की जमीन का चप्पा-चप्पा उपयोग में ले लिया गया है। आरम्भ में जितने छात्र बुलाये जाते थे अब उससे प्रायः तीन-चार गुने शिक्षार्थी लाभ उठाने लगे हैं। गत वर्ष की तुलना में ही यह विस्तार प्रायः दूना हो गया है।

अगले वानप्रस्थ सत्रों में भाग लेने के इच्छुकों की संख्या भी इस वर्ष की तुलना में दूनी है।

परामर्श सत्र मार्च, अप्रैल, मई, जून इन चार महीनों के थे। वे अब पूरे होने जा रहे हैं। इनमें सम्मिलित होने के सभी आवेदनकर्त्ताओं को स्थान न दिया जा सका। स्थान सीमित होने से अधिक व्यक्तियों के निवास, भोजन एवं पाठ्य-क्रम चलाने की व्यवस्था बन नहीं सकती। जितना स्थान है उतनों को ही आने की स्वीकृति दी जाती है। यों मन तो अपना भी रहता है कि अधिक स्वजनों के साथ स्नेह सद्भाव के आदान-प्रदान का आनन्ददायक अवसर मिलता रहे। एक लाख परिजनों में से अधिकाँश की आन्तरिक उत्कंठा यह रहती है कि वर्ष में कम से कम एक बार तो किसी न किसी बहाने मिलना हो ही जाया करे। दोनों ओर की प्रगाढ़ आत्मीयता का समाधान और उस मिलन के सत्परिणामों का निश्चय, दिन-दिन यह दबाव बढ़ाता जा रहा है कि अधिक लोगों के लिए यह सुविधा सम्पन्न हो सके।

आवश्यकता एवं उपयोगिता यह कहती है कि स्थान एवं साधनों का विस्तार होना चाहिए ताकि युग की अति महत्वपूर्ण माँग को पूरा कर सकने में समर्थ इस आरण्यक शिक्षा-पद्धति का अधिक विस्तार सम्भव हो सके। यदि वैसा बन पड़े तो निश्चय ही हम सब मिलकर व्यक्ति, परिवार और समाज की अभिनव रचना में अधिक योगदान दे सकने में समर्थ हो सकेंगे।

जो कार्य दूसरों के हाथ में है उसकी प्रतीक्षा में बैठे रहने की अपेक्षा वर्तमान साधनों से अधिक से अधिक क्या हो सकता है-क्या किया जा सकता है यही विचार करना अपने लिए उपयुक्त था। सो इसके लिए समय में कटौती करने तथा वर्तमान स्थान में ही अधिक ठूँस-ठाँस करने की बात सोची गई है और अगले वर्ष का कार्यक्रम बना लिया गया है। अगले वर्ष से मतलब ईसवी, सन् अथवा विक्रमी सम्वत् से नहीं, वरन् वर्षा के अन्त से आरम्भ होने वाले और वर्षा शुरू होने पर बन्द हो जाने वाले प्रचार वर्ष से है। यह जुलाई से आरम्भ होकर जून में समाप्त होता है। सरकारी स्कूलों का शिक्षण क्रम भी प्रायः इसी समय से आरम्भ होता है।

(2) वानप्रस्थ सत्र फिलहाल सितम्बर में ही घोषित किया जा रहा है। आवश्यकतानुसार शीत ऋतु के किसी महीने में एक और की भी व्यवस्था की जा सकती है। यह एक-एक महीने के ही होंगे। (1) तुलसी कृत रामचरित मानस और बाल्मीक रामायण के आधार पर राम-कथा। (2) भागवत् और महाभारत के आधार पर कृष्ण-कथा। (3) यज्ञ, पर्व, संस्कार आदि कर्मकाण्डों का अभ्यास (4) लोकसेवी के लिए उपयुक्त दृष्टिकोण एवं आचरण के निर्धारण का मार्ग-दर्शन (5) सामयिक समस्याओं के स्वरूप एवं समाधान का विस्तृत ज्ञान (6) भाषण कला। यह छह विषय वानप्रस्थ शिक्षा में रहते हैं। अधिक श्रम कराते हुए एक महीने में ही यह पाठ्य-क्रम पूरा कराया जाता है।

(3) महिला सत्र अब तीन महीने के नहीं होंगे। परिवार निर्माण और महिला जागरण की क्षमता उत्पन्न करने वाले संक्षिप्त और विस्तृत पाठ्य-क्रम पुरुष शिक्षार्थियों के साथ-साथ ही चला करेंगे। वे अपने संरक्षकों के साथ-साथ आया करें और उन्हें के साथ लौट जाया करेंगी। मात्र शिक्षित महिलाओं को ही प्रवेश मिला करेगा। यदा कदा अशिक्षित महिलाएं भी अपने घर वालों के साथ किन्हीं शिविरों में आ जाया करती थीं, अब वह छूट बिलकुल बन्द कर दी गई है। ताकि पर्यटन, दर्शन आदि के उद्देश्य से आने वाली भीड़ को रोककर उस स्थान से उपयुक्त महिलाओं को कारगर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल सके।

आगामी वर्ष पुरुषों के दस-दस दिवसीय साधना सत्र चलेंगे। शिक्षित महिलाएं भी उतने समय के लिए संक्षिप्त महिला प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आ सकती हैं। वानप्रस्थ सत्र एक महीने के होंगे। उस अवधि में भी अलग से एक महीने के महिला सत्र चला करेंगे। दस दिन वाले तथा एक महीने वाले सत्रों में पाठ्य-क्रम तो स्वभावतः न्यूनाधिक रहेगा, पर विषय एक जैसे ही रहेंगे। आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण एवं समाज-निर्माण की दृष्टि से वे क्या और कैसे कर सकती हैं यह महिला प्रशिक्षण पाठ्य-क्रम का मूल आधार है। साथ-साथ उन्हें भाषण कला का अभ्यास भी कराया जायेगा ताकि घर और बाहर अपने विचार उपयुक्त अवसर पर ठीक तरह व्यक्त कर सकें।

(4) पुरुषों के सत्र दस-दस दिन के लगेंगे। इनमें प्रत्येक शिक्षार्थी को 24 सहस्र गायत्री पुरश्चरण, नित्य यज्ञ तथा अन्यान्य आध्यात्मिक साधनाएं कराई जायेंगी। गंगा तट, हिमालय की गोद आश्रम का प्राणवान वातावरण-दिव्य संरक्षण यह चारों ही अतिरिक्त आधार मिल जाने से घर पर की जाने वाली साधना की तुलना में अत्यधिक उच्चस्तर के सत्परिणाम मिल सकते हैं। आत्म निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण की व्यावहारिक शिक्षा भी प्रेरणाप्रद प्रवचनों एवं परामर्शों के रूप में मिलती रहेगी। भाषण कला का अभ्यास कराना इस बार के सत्रों में विशेष रूप से जोड़ दिया गया है। साधना परामर्श के साथ प्रवचन कला के समन्वय से यह सत्र पूर्व सत्रों की अपेक्षा भी अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे।

दस दिवसीय साधना सत्र प्रत्येक महीने तीन होंगे (1) पहली तारीख से दस तक (2) ग्यारह से बीस तक (3) इक्कीस से तीस तक। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ अनुशासन प्रिय और सज्जनोचित स्वभाव वाले लोगों को ही इनमें आने के लिए आवेदन करने चाहिएं। छपे हुए आवेदन पत्र-जवाबी लिफाफा भेजकर मँगा लेने चाहिएं और उन्हें भेजकर स्वीकृति प्राप्त होने के उपरान्त ही आने की तैयारी करनी चाहिए। बिना स्वीकृति आ पहुँचने वालों को प्रवेश न मिल सकेगा।

सितम्बर 76 में वानप्रस्थ सत्र होने के कारण उस महीने में दस दिवसीय सत्र बन्द रहेंगे। शेष महीनों में वे लगातार चलते रहेंगे। जुलाई और अगस्त में आने वालों को जल्दी ही स्वीकृतियाँ प्राप्त कर लेनी चाहिएं।

जिन्हें अपने उपयोगी साधना सत्रों में पहुँच सकना सम्भव हो सके उन्हें अपने लिए यथा सम्भव जल्दी ही स्थान सुरक्षित करा लेने चाहिएं।

कुछ कार्य अपने-अपने स्थानों पर कराते हुए जन-मानस परिष्कार के महान अभियान में अपने-अपने ढंग से योगदान करते रहने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस प्रकार के कार्यों में कुछ इस प्रकार हैं-

(1) अंशदान- प्रति दिन एक घण्टा समय और दस पैसा निकालने का न्यूनतम अंश दान हम में से प्रत्येक को करना चाहिए और उसे अपने परिवार की परिपक्व सदस्यता की शर्त मानना चाहिए। स्व उपार्जित सम्पदा का प्रतीक ‘पैसा’ है और ईश्वर प्रदत्त विभूति ‘समय’ है। इन दोनों का अधिकाधिक भाग परमार्थ प्रयोजन में लगाते रहने में ही इस सुरदुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता है। अस्तु उस लक्ष्य का स्मरण बनाये रहने के लिए यह न्यूनतम अनुदान हममें से प्रत्येक को नियमित रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। आन्तरिक वर्चस्व की अंश वृद्धि के साथ-साथ यह अनुदान भी स्वभावतः बढ़ता है। पर उसे दैनिक अनिवार्य कर्म कर्त्तव्यों में प्रमुखता देते हुए न्यूनतम राशि तो निकाली ही जाती रहनी चाहिए। यह राशि अपने संपर्क क्षेत्र में जन मानस के प्रसार कार्य के लिए ही खर्च की जानी चाहिए। अन्य किसी कार्य में उसका उपयोग नहीं होना चाहिए। शाखा संगठन इस समय और धन का उपयोग किस प्रकार किया जाय इसका मिल-जुल कर कार्यक्रम बना सकते हैं। इस सन्दर्भ में मई की अखण्ड-नीति के अपनों से अपनी बात स्तम्भ में विस्तार पूर्वक लिखा जा चुका है।

(2) तीर्थ यात्रा धर्म परम्परा के पुनर्जीवन में हमारे कुछ दिन हर साल लगाने ही चाहिएं। घर-घर गाँव गाँव नव-युग का सन्देश सुनाने के लिए हमें बादलों की तरह निकलना चाहिए और अपनी अमृत वर्षा से संस्कृति की हरीतिमा उत्पन्न करने के लिए प्रबल प्रयास करना चाहिए। इस सन्दर्भ में अप्रैल की अखण्ड-ज्योति के सम्पादकीय लेख में बहुत कुछ कहा जा चुका है। उस प्रयोजन में हममें से प्रत्येक को कुछ न कुछ करते ही रहना चाहिए। जन मानस के परिष्कार के लिए जन सम्पर्क अतीव आवश्यक है। इसी के लिए प्रबुद्ध लोगों को तीर्थ यात्रा की पुण्य प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। इस दिशा में दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन जैसे छोटे प्रेरणाप्रद कार्य तो कोई भी कर सकता है। साप्ताहिक छुट्टी का दिन अपने-अपने ढंग से लगाते रहने की योजना बनाई जा सके तो उतने से भी बहुत कुछ हो सकता है।

(3) महिला जागरण अभियान अपने समय का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य है। इसके पीछे आधी जनसंख्या को प्रखर बनाने और उसके पुरुषार्थ से सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खोलने का उद्देश्य सन्निहित है। मानवी अधिकारों से वंचित नारी के साथ किये जाने वाले अनाचार का इसमें प्रायश्चित्त है। परिवारों में स्वर्गीय वातावरण करने तथा रत्न-रत्नों की खदान को पुनः प्रभावी परिणाम उत्पन्न कर सकने में समर्थ बनाने की दृष्टि से नारी जागरण नितान्त आवश्यक है। भावी युग अध्यात्म प्रधान होगा। उसका नेतृत्व ईश्वर प्रदत्त सेवा, समर्पण, उदारता संयम जैसे सद्गुणों से सम्पन्न नारी ही कर सकेगी। इन सभी दृष्टियों से नारी जागरण अपने युग की महती आवश्यकता है। इस दिशा में हम सबको उत्साह पूर्वक प्रयत्न करने चाहिएं।

अपने घरों की और सम्पर्क क्षेत्र की महिलाओं को आगे करके हमें स्थानीय महिला संगठन खड़े करने चाहिएं और उनके साप्ताहिक सत्संगों का सिलसिला जब तक ठीक तरह चल न पड़े तब तक उस प्रयास में पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर उसे अपने पैरों खड़ा करना चाहिए। घर-घर परिवार गोष्ठियाँ चल पड़ें इसके लिए जन्म दिनों, संस्कारों एवं कथा कीर्तनों का प्रचलन करना चाहिए, इन छोटे आयोजनों के सहारे महिला जागरण का प्रकाश घर-घर फैल सकता है। परिवारों में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करने की हलचलें आरम्भ हो सकती हैं और सामूहिक प्रयास से नारी का पिछड़ापन दूर करने वाले अनेकानेक रचनात्मक प्रयास आरम्भ हो सकते हैं।

जहाँ कुछ अधिक उत्साह हो वहाँ अगले वर्ष एक महिला सम्मेलन आयोजित किया जाना चाहिए जिसमें शान्तिकुँज से देव कन्याओं का जत्था भेजा जा सके और उस पुण्य प्रयोजन के लिए उस क्षेत्र में उत्साह उभारा जा सके। अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों की कन्याएं एक वर्षीय प्रशिक्षण में और महिलाएं दस दिवसीय अथवा एक महीने वाले सत्रों में पहुँच सकें ऐसा प्रयास होना चाहिए। यहाँ से प्रकाश लेकर लौटी हुई कन्याएँ एवं महिलाएं पुराने ढर्रे को बदल कर नये वातावरण का सृजन करने में संलग्न हो सकेंगी, ऐसी आशा सहज ही की जा सकती है।

यह खुली सचाई है कि अखण्ड ज्योति पत्रिका के माध्यम से ही युग-निर्माण परिवार का गठन, सूत्र संचालन और हलचलों का अभिवर्धन सम्भव हो सका है। महिला जागरण अभियान अपने प्रयासों में अति महत्वपूर्ण है। इसे देशव्यापी और विश्वव्यापी होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि उस आन्दोलन का सूत्र संचालन करने वाली “महिला जागृति अभियान” मासिक पत्रिका की सदस्य संख्या बढ़ाई जाए। इसका प्रभाव क्षेत्र जितना बढ़ेगा उतनी ही अभियान को गति मिलेगी। शान्ति-कुँज हरिद्वार से निकलने वाली इस हिन्दी मासिक पत्रिका का वार्षिक मूल्य 6) है। 1 जुलाई से उसका नया वर्ष आरम्भ होता है। अखण्ड-ज्योति की तरह परिजन उसे भी महत्व दें और सदस्य बनें बनाएं तो निश्चय ही उस प्रयास की दूनी चौगुनी प्रगति अगले ही दिनों दृष्टि गोचर हो सकेगी।

(4) साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष में एक लाख साधकों को प्रकाश देने का संकल्प किया गया था वह संख्या पूरी हो चुकी अस्तु गायत्री जयन्ती 7 जून 76 से वह पंजीकरण बन्द कर दिया गया है। जो साधक बने हैं उनसे अपेक्षा की गई है कि अपने-अपने सम्पर्क क्षेत्र में उसी शृंखला के अन्तर्गत अनुसाधक बनायें। जहाँ बीस साधक हो सकें वहां उनका एक साधना मण्डल बना लें। एक कार्यवाहक चुन लें और प्रयत्न यह करें कि उसकी चार दिवसीय साधना सम्मेलन सम्भव हो सके। स्पष्ट है कि सम्मेलनों की उपयोगिता संगठन को सुदृढ़ बनाने और उत्साहवर्धक गतिविधियाँ उत्पन्न करने की दृष्टि से असंदिग्ध है, साधनों, मण्डलों और अपने-अपने क्षेत्र में उपासना, उपचार और साधना व्यवहार की उभय-पक्षीय प्रक्रिया आरम्भ करके प्रखर अध्यात्म का पुनर्निर्माण करने में कटिबद्ध होना चाहिए।

स्वर्ण-जयन्ती साधना शृंखला के सदस्यों को यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि वे एक गायत्री पुरश्चरण शान्ति कुँज के अति प्रभावी वातावरण से सम्पन्न करने का अवसर प्राप्त करेंगे। दस दिवसीय सत्रों की व्यवस्था इसी दृष्टि से की गई है कि न केवल सान्निध्य, सम्पर्क, प्रकाश परामर्श का वरन् साधना द्वारा आत्मबलवर्धन का प्रत्यक्ष लाभ भी इस आधार पर प्राप्त कर सकना सम्भव हो सके। भाषण कला की सारभूत शिक्षा प्राप्त करना भी इन सत्रों में बन पड़ता है यह इनका दुहरा लाभ है।

युग परिवर्तन जैसे महान् प्रयोजन के लिए बड़ी संख्या में चरित्रनिष्ठा, लोकनिष्ठा और क्रिया-कुशल सृजन शिल्पियों को ढालने और विकसित करने की नितान्त आवश्यकता है। शान्ति-कुँज का आरण्यक अपने स्वल्प साधनों के पिछले चार वर्षों से जो प्रशिक्षण योजना चला रहा है उसके विकास विस्तार की आवश्यकता को पूरा करना अब अनिवार्य हो गया है। उसके लिए नई जमीन, नई इमारत और नये साधन जुटाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। यह नये साधन जुटाने के लिए नये सिरे से-नया उत्साह जगाना और अधिक उदार सहयोग की अपेक्षा, अपने ही आत्मीयजनों से की जा सकती है। अन्यत्र तो किसे समय की माँग समझाई जाय और किसके आगे हाथ पसारा जाय। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य क्रमशः अपने को अधिक प्रखर स्तर के सृजन शिल्पी बनाते चलें। तभी वे अपने विशेष अवतरण का ईश्वरीय उद्देश्य पूरा कर सकेंगे। व्यक्तिगत भौतिक महत्वाकाँक्षाओं में कटौती किये बिना युग की पुकार को पूरा कर सकने के उपयुक्त अनुदान दे सकना सम्भव ही न हो सकेगा। हमें साहसपूर्वक अपनी कृपणता से जूझना चाहिए और युगीय उत्तरदायित्वों के निर्वाह में अपने चिन्तन कर्तृत्व एवं साधनों की भावभरी श्रद्धाँजलि प्रस्तुत करनी चाहिए।

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