बोझ लादे चींटियाँ गन्तव्य की ओर (kahani)

June 1976

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अपने शरीर से अधिक बोझ लादे चींटियाँ गन्तव्य की ओर दौड़ी जा रही थीं। एक बरसाती कीड़े ने देखकर पूछा- ‘चींटी! तेरे इस परिश्रम पर मुझे बड़ा आश्चर्य है। तेरी माँद में अभी भी इतना अन्न है कि तू बैठी-बैठी जीवन भर खा सकी है, चैन की बंशी बजा सकती है। ऐसा लगता है तू भी धनिकों की तरह जोड़-जोड़कर रखना चाहती है।

‘नहीं भाई! ऐसा नहीं है। श्रम ही तो जीवन है। मैं अपने लिए ही जीवित नहीं हूँ। वरन् सोचती हूँ यदि मेरी सेवाओं से मेरे साथी लोग लाभान्वित हो सकें तो मेरा जीवन कितना धन्य हो जायेगा।

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