वातावरण प्रदूषण का क्या कोई समाधान है?

June 1976

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ईंधन जलने, औद्योगिक कल-कारखानों से धुआँ निकलने और विभिन्न कारणों से वातावरण-प्रदूषण की आजकल बड़ी चर्चा है। सामान्य कारणों से उत्पन्न होने वाला प्रदूषण यों तो प्रकृति अपने आप ही शुद्ध करती है, पर उस शुद्धि चक्र में मानव निर्मित एक व्यवधान उत्पन्न हो गया है। इसके कई कारण गिनाये जाते हैं, जिनमें तीन प्रमुख हैं। पहला तो यह कि आजकल रेल, मोटरों और कल-कारखानों में ज्वलनशील ईंधन जलाया जाता है जैसे पेट्रोल, मोबिल ऑयल, डीजल ऑयल और मिट्टी का तेल। इन रासायनिक ईंधनों के जलने से कई तरह की गैसें निकलती हैं जो वायुमण्डल में घुलकर वातावरण को दूषित करती हैं।

दूसरा कारण रासायनिक मिश्रणों का उपयोग है। दवायें, कीटाणुनाशक रसायन, रासायनिक खाद जैसी वस्तुओं का इस्तेमाल तत्काल भले ही कोई लाभ दर्शाता हो पर वे उपभोग के बाद सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं का प्रत्येक कण विषाक्त कर देती हैं। यह विषाक्तता भी अपना प्रभाव वातावरण पर डालती है।

तीसरा बड़ा कारण जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जनसंख्या की वृद्धि न्यूक्लियर रिएक्टर बढ़ी हुई जनसंख्या उनके द्वारा श्वास-प्रश्वास में छोड़ी गई कार्बन डाई-ऑक्साइड तथा परमाणु परीक्षणों के कारण वातावरण में उत्पन्न हुई हलचल पर्यावरण को दूषित करती है। इन कारणों के साथ और भी अनेक कारण हैं जो वातावरण को दूषित करते हैं। यह समस्या इतनी चिन्तनीय हो गई है कि वैज्ञानिकों के लिए कुछ समय बाद प्राणवायु कहाँ से मिलेगी-यह विकट पहेली बन गई है।

विशुद्ध प्राणवायु का अभाव ही एकमात्र हानि नहीं है। वातावरण प्रदूषण से होने वाली हानियों में से कई को तो अभी भी प्रत्यक्ष होते देखा जाने लगा है। एक छोटा-सा दुष्प्रभाव इस तथ्य के प्रकाश में देखा जा सकता है कि आजकल ‘सरदर्द’ की शिकायत बहुत बढ़ती जा रही है। दूसरे रोगों की औषधियाँ जितनी मात्रा में बिकती हैं- उन सबको मिलाकर भी उनसे भी ज्यादा सरदर्द मिटाने वाली गोलियों की बिक्री होती है। विज्ञान के शोधकर्ता सरदर्द की बढ़ती शिकायत के कारणों की खोज करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह शिकायत मात्र वातावरण के दूषित होने से बढ़ी है। सामान्य रूप से यों भी समझा जा सकता है कि शहर में रहने वाले लोगों को जहाँ हर शाम सरदर्द मिटाने वाली गोलियाँ निगलनी पड़ती हैं वहीं ग्रामीण जनता को सरदर्द इतना नहीं सताता क्योंकि- नगरों में दिन भर ट्रक, बस और मोटरों की दौड़ में निकलने वाली गैसें परिवेश की ऑक्सीजन की दूषित कर डालती हैं और प्रत्येक नागरिक को आवश्यकतानुसार ऑक्सीजन नहीं मिल पाती और वह दूषित वायु उसके फेफड़ों, मस्तिष्क तथा शरीर के अन्य अंगों को तनावग्रस्त बना देती है। एक विज्ञान शास्त्री के अनुसार- “परिवेश प्रदूषण प्रत्येक नागरिक की रक्त संचार प्रणाली पर अपना दुष्प्रभाव डालता है और उससे थका हुआ स्नायुमंडल अपनी व्यथा ‘सिरदर्द’ के संकेत सूचित करने लगता है।

परिवेश प्रदूषण केवल पृथ्वी पर ही होता हो ऐसी बात नहीं है। नदियों, तालाबों, झीलों और समुद्रों का पानी भी अशुद्ध होता जा रहा है। जलपोतों द्वारा समुद्र में विसर्जित किया हुआ गन्दा तेल, नदियों में बहाया गया कल-कारखानों से निकली व्यर्थ चीजें और गन्दगी नदियों और समुद्र के पानी को बड़े भीषण रूप में दूषित कर देती है और बड़े शहरों और महानगरों में लगे औद्योगिक प्रतिष्ठानों को तो अपनी गन्दगी बहाने का सर्वोत्तम स्थान पास बहने वाली नदियाँ ही दीख पड़ती हैं। उनकी गन्दगी नदियों के पानी को इस तरह खराब कर देती है कि वह पानी उपयोग में आने जैसा रह ही नहीं जाता। कुछ दूर बहकर गन्दगी पानी के साथ मिलकर बहुत कुछ वैसी ही हो जाती है जैसा कि नदी का जल रहता है और आगे नदी के किनारे पर बसने वाले गाँवों या नगरों के निवासी उसी जल का प्रयोग करते हैं।

समुद्रों की स्थिति भी ऐसी ही है। बम्बई, मद्रास, कलकत्ता जैसे महानगरों में लगे सैकड़ों बड़े-बड़े उद्योग ही अपनी गन्दगी समुद्र में फेंकते हैं और शहरों की गन्दगी भी उधर ही बहा दी जाती है। नदियों के किनारे बसे नगरों में भी शहर की गन्दगी बहा दी जाती है। इस प्रकार आधुनिक शताब्दी में रहने वाले मनुष्य को न साफ हवा मिल पाती है और न स्वच्छ पानी, अनाज और खाद्य पदार्थों की तो बात दूर है। वे भी दूषित हवा, पानी द्वारा ही तैयार होते हैं तो उनकी शुद्धता भी कल्पना मात्र है। स्पष्ट ही इस प्रदूषण का प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है।

प्रदूषण जलवायु को भी असामान्य रूप से प्रभावित करता है। ऋतु वैज्ञानिकों का मत है कि इन दिनों मौसम में जो गम्भीर परिवर्तन अनुभव किये जा रहे हैं परिवेश का दूषण उसका एक बहुत बड़ा कारण है। जन सामान्य भी मौसम को अस्थायी और अनिश्चित अनुभव करता है। कब बारिश हो जाय कुछ ठीक पता नहीं। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि गर्मी का मौसम गर्मी की तरह ही बीतेगा और यह भी निश्चित नहीं है कि वर्षा ऋतु में पानी गिरेगा ही। कभी गर्मी के दिन भी बारिश की तरह लगते हैं तो कभी वर्षा भी गर्मी की भाँति ही बीत जाती है, प्रकृति अपना चक्र बदल रही है। यह कहने की अपेक्षा यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि हम प्रकृति को अपनी नियति बदलने के लिए बाध्य कर रहे हैं।

शहरों का ही वातावरण दूषित हो रहा है और ग्रामीण परिवेश उससे बचा हो यह सोचना भी कल्पना है वातावरण का प्रभाव हर स्थान पर पड़ता है अणु परीक्षणों के लिए एकान्त और निर्जन स्थान चुने जाते हैं, पर वहाँ उत्पन्न हुई विकृतियाँ अन्य क्षेत्रों में भी बड़ी सरलता से संचरण कर जाती हैं और आजकल तो बढ़ता हुआ औद्योगीकरण ग्रामीण आबादी को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। गाँव के लोग बड़ी तेजी से अपने गाँव छोड़कर शहरों में आ रहे हैं और इस प्रकार गाँवों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है। श्री स्ट्राँग के मतानुसार तो ग्रामीण जनसंख्या जिस तेजी से शहरों की ओर भाग रही है वह विश्व स्तर की एक समस्या बनती जा रही है।

जल सम्पदा की सुरक्षा और शुद्धता बनाये रखने के लिए कहा गया है कि आवश्यक होने पर उनमें गन्दगी का विसर्जन किया जाय और जो गन्दगी छोड़ी जाय उसके नष्ट होने का भी उपाय किया जाय। इस दिशा में पहला कदम यह उठाने की आवश्यकता अनुभव की गई है कि मछलियों को पकड़ने पर रोक लगा दी जाय। स्मरणीय है मछलियाँ जल की गन्दगी को साफ करती हैं। कीटाणु और गन्दगी ही उनका मुख्य आहार हैं। ऐसी मछलियाँ भी होती हैं जो मनुष्य की आँख से न दिखाई देने वाले कीटाणुओं को भी खा जाती हैं। उनके विकास को भी जल प्रदूषण रोकने के प्रयासों का एक कार्यक्रम बनाया जा सकता है।

मिलों, कारखानों का दूषित जल तालाबों और नदियों में न बहाने का भी सुझाव दिया गया है। यदि बहाने की मजबूरी ही हो तो आधुनिक विज्ञान उनके दोषों को नष्ट कर न्यूनतम मात्रा कर देने में समर्थ है। नदियों और तालाबों के जल का समय-समय पर परीक्षण करते रहकर उसे हानिकारक सीमा तक न पहुँचने देने की सतर्कता भी बरती जा सकती है।

वातावरण में व्याप्त होने वाली दूषित वायु को सोखने के लिए वृक्ष-वनस्पति उगाये जा सकते हैं। विज्ञान के छात्र जानते हैं कि वृक्ष-वनस्पतियाँ कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस से जीते हैं और जिस प्रकार मनुष्य उच्छिष्ट वायु को प्रश्वास रूप में कार्बन -डाई ऑक्साइड गैस छोड़ते हैं, उसी प्रकार वृक्ष-वनस्पति उच्छ्वास के रूप में ओषजन छोड़ते हैं। प्राचीनकाल में आश्रम और धार्मिक संस्थान- उपासना गृह वन्य स्थलों में इसी कारण रखे जाते थे कि वहाँ ओषजन पर्याप्त मात्रा में मिलती है और ध्यान की एकाग्रता अधिक सम्भव हो जाती है। प्राकृतिक स्थानों पर रोगियों को रहने की आज भी सलाह दी जाती है।

मानते हैं कि वनस्पति सम्वर्धन और जल जन्तुओं की सुरक्षा ही वातावरण प्रदूषण का एकमात्र उपचार नहीं है। इसके लिए अन्य उपाय भी खोजे जाने चाहिएं और परिवेश को स्वच्छ, शुद्ध बनाने का प्रबन्ध करना चाहिए। जब तक हम उस स्थिति में पहुँचें कि परिवेश प्रदूषण की समस्या का हल खोजें - सम्भावित उपायों को तो काम में लाना ही चाहिए।


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