विद्यार्थियों की साधना (kahani)

June 1976

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यवक्रीत विद्यार्थियों की साधना और श्रम देखकर हतोत्साह हो गया। उसने तप द्वारा विद्या प्राप्ति का निश्चय किया। यह निश्चय कर वह सघन वन में सरिता तट पर कुटी बना तप करने लगा, उसके तपोबल से प्रसन्न हो इन्द्रदेव ने उसके सम्मुख प्रकट हो कहा- तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो तुम्हें वरदान देने आया हूँ। तुम्हारी इस तपस्या का क्या प्रयोजन है?

“मुझे विद्या चाहिए। देवराज!”

“विद्या वन प्रान्तर की इस गहन साधना से नहीं पाई जा सकती। इसके लिए तो गुरु चरणों की शरण लेनी होगी और विनम्रता पूर्वक उनके निर्देशों का पालन करते हुए सतत अभ्यास करना होगा। तुम जिस मार्ग पर साधना कर रहे हो वह विद्या प्राप्ति की नहीं वरन् आत्मा पर आच्छादित राग द्वेष क्रोध लोभ आदि विकारों को उन्मूलित करने की है।”

कुछ क्षण पश्चात यवक्रीत ने देखा कि वही ब्राह्मण नदी के किनारे से मुट्ठी भर-भरकर रेत ले जा रहा है और नदी के प्रवाह में डाल रहा है। यवक्रीत ने ब्राह्मण के पास जाकर पूछा- ब्राह्मण श्रेष्ठ! तुम अपने मूल्यवान समय को इस प्रकार क्यों नष्ट कर रहे हो? तुम्हारा एक मुट्ठी रेत जल प्रवाह के साथ बहकर जाने कहाँ चला जाता है। नदी में रेत डालकर तुम करना क्या चाहते हो?”

“मैं उस पार जाने के लिए नदी पर पुल बनाना चाहता हूँ। इसीलिए मैं इतनी देर से रेत डालकर नदी को पाटने का प्रयास कर रहा हूँ।” यवक्रीत ब्राह्मण के उत्तर को सुनकर हँस पड़ा-क्या तुम्हें अपने प्रयत्नों पर पूरा विश्वास है कि नदी में एक-एक मुट्ठी रेत फेंक कर पुल का निर्माण किया जा सकता है।?”

ब्राह्मण ने अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर कहा- यदि मैं नदी के प्रवाह में रेत डालकर पुल नहीं बना सकता तो याद रक्खो इस एकान्त तपस्या से तुम्हें भी विद्या की प्राप्ति नहीं हो सकती। तुम्हें अपने विद्वान पिता के पास जाकर अध्यवसायपूर्वक चिरकाल तक अध्ययन का श्रम करना चाहिए। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम्हें शीघ्र ही विद्या की प्राप्ति होगी।

यवक्रीत को जीवन का दिशा मिल गई थी।

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