सुसन्तति प्राप्ति के उपहासास्पद प्रयत्न

June 1976

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जीव विज्ञान (बायोलॉजी) एक सुविस्तृत विज्ञान है। उसकी एक शाखा है ‘जेनेटिक्स’ जिसे जनन विज्ञान भी कह सकते हैं। उसकी भी एक उपशाखा है यूजेनिक्स जिसे हिन्दी में सुप्रजनन अथवा नस्ल सुधार कह सकते हैं।

यह माना जाता है कि मनुष्यों की वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों की तुलना में लम्बाई, मजबूती, निरोगता, दीर्घ जीवन आदि सभी दृष्टि से बढ़े-चढ़े थे और हम उनकी अपेक्षा कहीं अधिक दुर्बल एवं रुग्णताग्रस्त बन गये हैं। इस कमी को पूरा करके पूर्वजों की अथवा उससे भी अच्छी स्थिति में पहुँचने की अपनी इच्छा स्वाभाविक है। यूजेनिक्स के अन्तर्गत इसके लिए उपाय ढूँढ़े जा रहे हैं। इतना ही नहीं मानसिक संरचना एवं व्यक्तित्व की अनेक धाराओं में भी ऐसे सुधार किये जाने अपेक्षित हैं जिनके आधार पर मनुष्य को सुविकसित कहा जा सके।

यह सुविकसित स्थिति वह होनी चाहिए जो समय की माँग को पूरा कर सकने में समर्थ हो। सत्ताधीशों के इशारे पर नत-मस्तक होकर चल सके और उनकी इच्छित विशेषताओं से भरपूर हों। ऐसे सुविकसित मनुष्य कहाँ हैं? कैसे मिलें? अथवा किस प्रकार प्रशिक्षित किये जाएं? इन झंझटों में पड़ने की अपेक्षा अब यह उचित और सरल समझा जा रहा है कि अभीष्ट स्तर के मनुष्य पैदा करने की दिशा में ध्यान केन्द्रित किया जाय और सुधरे बीज से सुधरी फसल उगाने का सिद्धान्त मनुष्यों पर भी लागू किया जाय। यह प्रयोग वनस्पतियों वृक्षों, अनाजों पर पूर्णतया सफल रहा है। कलम लगा कर अथवा वर्णशंकर बनाकर वनस्पति जगत में ऐसी विध उपलब्ध कर ली गई है कि अधिक मात्रा में- अधिक बढ़िया- अधिक गुणकारी अनाज, फल एवं चारा उगाया जा सके। यह विध पशुओं पर भी सफल रही है। कृत्रिम गर्भाधान की पद्धति ने किसी भी जाति की मादा को किसी भी जाति के नर के साथ निषेचन करने के लिए बाध्य कर दिया है। सजातीय संयोग की प्रकृति प्रेरणा को उठा कर एक कोने पर रख दिया गया है। अब ऐसी पशु जातियाँ उत्पन्न की जा रही हैं जो अपने माता-पिता की प्रकृति एवं क्षमता से भिन्न होते हैं। घोड़ी, गधे के संयोग से खच्चर उत्पन्न करने की बात अब पुराने जमाने की हो गई। अब तो उनके जनन बीजों का ही इस तरह कतरव्योंत कर दिया जाता है कि अभीष्ट आकार प्रकार की, गुण स्वभाव की पशु पीढ़ियाँ उत्पन्न हो सकें। मनुष्य जाति पर भी वह प्रयोग किये जा सकते हैं और सफल हो सकते हैं इस विश्वास को लेकर जीव विज्ञानी अब इस प्रयत्न में जुट गये हैं कि मनुष्यों की सुविकसित फसल उगाई जाय। उसकी वंश परम्परा में जोड़-गाँठ और काट-छाँट कर देने से वैसी पीढ़ियाँ उत्पन्न करना सम्भव हो सकेगा जैसी कि हमारे कर्णधारों को अपेक्षित है।

मनुष्य की मानसिक स्थिति स्वभाव एवं प्रकृति में सुधारों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। पर सबसे पहली आवश्यकता शारीरिक स्थिति को सुधारने की है। जल्दी थकान, दुर्बलता विपरीत परिस्थितियों को न सह सकने वाली अशक्तता, अनेकानेक छोटे-बड़े रोगों से ग्रसित रहना इन्द्रिय क्षमता में न्यूनता, स्वल्प श्रम कर सकने जैसा ढाँचा, अल्पायु, शीघ्र वृद्धावस्था आदि कितने ही ऐसे व्यवधान हैं जिनसे मनुष्यों की शारीरिक स्थिति क्रमशः दयनीय स्थिति तक पहुँचती जा रही है। दीन दुर्बल काया एक प्रकार से भार ही बनी रहती है, जीवन का आनन्द उठा सकने में वह साथ देती ही नहीं। जो अपने आपके लिए और अपने परिवार के लिए भार बना हुआ है वह समय की- समाज की- आवश्यकता क्या पूरी करेगा? कर्णधारों की महत्वाकाँक्षाओं को पूर्ण कर सकने की उसमें सामर्थ्य कहाँ होगी?

‘इन सब बातों पर विचार करते हुए मनुष्यों की उपयोगी फसल उगाने की बात वैज्ञानिक क्षेत्र में सोची गई है और इसके लिए शारीरिक स्थिति के सुधार को प्राथमिकता दी गई है। असह्य शीत, ताप वाले ऐसे प्रदेश अभी बहुत विस्तृत क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं जिनमें मनुष्यों का अधिक संख्या में रह सकना सम्भव नहीं हो पाता। दलदलों की कीचड़ से भी ऐसी हवा उत्पन्न होती है जिसमें रहने पर बीमारियों से बचा नहीं जा सकता। दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ने उतरने को भी असुविधाजनक समझा जाता है और वहाँ रहने वालों की संख्या दिन-दिन घटती जा रही है। सह्य और संतुलित परिस्थितियों में रहना ही अभी लोगों को पसन्द है। कष्टकर परिस्थितियों में रहना सुहाता नहीं। ऐसी दशा में एक बहुत बड़ा भू-भाग ऐसा पड़ा रहता है जिसके उपयोग का लाभ मनुष्यों को मिलता ही नहीं। परिस्थितियाँ बदलना कठिन है। पहाड़ों को समतल बनाना और शीत-ताप को संतुलित करना कठिन है। प्रकृति पर इतनी बड़ी विजय आसानी से मिलती नहीं दीखती। मिली भी तो उसमें देर लगेगी। जल्दी ही मनुष्यों की वाँछित फसल तैयार करने के लिए उसके जीव बीजों में सुधार करके ऐसी काया गठन के लोग उत्पन्न किये जा सकते हैं जो अब के लोगों को कष्टकर लगने वाले क्षेत्रों में प्रसन्नता पूर्वक रह सकें। उनकी शारीरिक स्थिति ऐसी हो जिस से आज की कठिनाई तनिक भी न अखरे और नई पीढ़ी के लोग वहाँ खुशी-खुशी निर्वाह करें। हिम प्रदेशों में रहने वाले मनुष्य और पशु वहीं चैन पाते हैं। गर्म प्रदेश में उन्हें ले आया जाय तो वे वहाँ हांफते जलते दम तोड़ देंगे। इसी प्रकार गर्म प्रदेश के लोग शीत क्षेत्र में ठंड से अकड़ कर मौत के मुँह में धंसते चले जायेंगे। पहाड़ी वन्य जन्तु वहाँ की चढ़ाई-उतराई को विनोद मात्र मानते हैं। यदि मनुष्यों की ऐसी फसलें उगाई जा सकें जो आज की विपन्न समझी जाने वाली परिस्थितियों में निर्वाह कर सकें तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। जीव विज्ञानी आशा करते हैं कि ऐसा सुधार परिवर्तन कष्ट साध्य तो है, पर असम्भव नहीं। अगली पीढ़ियों की शरीर रचना ऐसी हो सकती है जिससे प्रकृति अवरोधों से जूझते हुए भावी पीढ़ी के लोग प्रसन्नता पूर्वक निर्वाह कर सकें।

ठीक इसी प्रकार रोगों से पीछा छुड़ाना भी जीव बीजों में सुधार करने से सम्भव हो सकता है। यों अधिकतर बीमारियाँ आहार विहार की विकृति से उत्पन्न होती हैं। प्रतिकूलताएं भी कई बार बीमारी का कारण होती हैं, पर आधे से अधिक रोग वंश परम्परा से आते हैं। जीव बीजों के किसी कोने में वे छिपे बैठे रहते हैं और तनिक सा अवसर पाते ही वे उभर पड़ते हैं। दवादारु ने तात्कालिक लाभ भर होता है जीव बीजों में छिप कर बैठे हुए चोर इन दवाओं से मरते नहीं। नित-नये उपचार आविष्कार सामने आते हैं, पर उनसे किसी भी रोग का सुनिश्चित निवारण सम्भव नहीं होता। जीव बीजों को सुधारने या बदलने में कोई उपचार समर्थ हो तभी इन असाध्य या कष्ट साध्य बने हुए रोगों से पीछा छुड़ाने में सफलता मिल सकती है।

यही बात लम्बा या ठिगना कद बनाने में- चमड़ी का रंग गोरा काला बनाने में- श्रम सामर्थ्य में- दीर्घायुष्य में लागू होती है। आहार, व्यायाम की सहायता से इस वंश परम्परा को नहीं बदला जा सकता। उसे बदलने के लिए जीव बीजों का ही उपचार करना पड़ेगा। ऐसी ही अनेक शारीरिक समस्याओं का समाधान अब एक ही दिखाई पड़ता है कि जीव बीजों का उपचार शल्य प्रयोग एवं प्रत्यावर्तन करने की विधि ढूंढ़ निकाली जाय। विज्ञान इसे सम्भव मानता है। यद्यपि यह उपचार बहुत सूक्ष्म स्तर का होने के कारण कष्ट साध्य अवश्य है।

वर्तमान परिस्थितियों का मुकाबला करने में समर्थ-समय की माँग को पूरा कर सकने के उपयुक्त मनुष्य का निर्माण करने के लिए वैज्ञानिकों की दृष्टि में वंश विज्ञान की गहरी खोज करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि नर नारी के प्रजनन तत्व में समर्थ जीव कणों का नये सिरे से उत्पादन एवं परिशोधन किया जाय। उनका पोषण नई परिस्थितियों में किया जाय और उसमें अभीष्ट स्तर की पीढ़ियाँ उत्पन्न की जाएं। गुण सूत्रों को विद्युत आवेशों से उत्तेजित करने की प्रक्रिया बहुत दिन पहले ही हाथ लग गई है। कन्या को जन्म देने वाले कणों की भिन्नता उनकी मूलभूत भिन्नता नहीं है। दोनों की मूल प्रकृति एक ही होती है मात्र विद्युत आवेशों का ऋण धन स्तर ही उनमें लिंग भेद पैदा कर देता है। यह विद्युत आवेश प्रयत्नपूर्वक बदला जा सकता है और भ्रूण स्थापना से पूर्व नर-नारी की आन्तरिक स्थिति ऐसी बनाई जा सकती है जिससे कन्या या पुत्र जो चाहे वही उत्पन्न हो। इसी प्रयत्न में एक कड़ी और जुड़ गई है कि कुछ समय के गर्भ को भी लिंग परिवर्तन के लिए बाध्य किया जा सकता है। गर्भ संस्थानों एवं प्रजनन केन्द्रों में अमुक स्तर के विद्युत आवेश को अमुक मात्रा में पहुँचाने से सम्भव हो जाता है।

बर्लिन के डॉ0 एफ न्यूमैन और डॉक्टर एम क्रेमर ने इस आश्चर्य को भी सरल बना दिया है। गर्भवती चुहियाओं को किप्रोटेकोन एसीटेट के इंजेक्शन लगाये गये। उनके पेट से जो चुहियाएं उत्पन्न हुईं सो तो ठीक पर जो चूहे उत्पन्न हुए उनकी यौन प्रक्रिया में मादा अवयव भी मौजूद थे। शल्य चिकित्सा से उन्हें पूरी मादा बना दिया गया।

इन डाक्टरों का कहना है प्रत्येक भ्रूण आरम्भ में मादा वर्ग का ही होता है। नर गुण सूत्र पीछे सक्रिय होते हैं। जब वे प्रबल हो उठते हैं तब उनके प्रयास से भ्रूण में टेस्टोस्टेरोन नामक नर हारमोन बनना आरम्भ होता है। यह प्रक्रिया चल पड़ने पर आरम्भिक भ्रूण की परिणित नर लिंग में होती है। गर्भ धारण करने के बाद भी पेट में एक वर्ग के गुण सूत्रों को मूर्छित रखने और दूसरे वर्ग को सक्रिय बनाने का कार्य हो सकता है। गर्भाधान के आरम्भिक दिनों में तो इस प्रकार का हेर-फेर और भी अधिक सरल संभव हो सकता है यह कठिन कार्य सम्पन्न कर सकने योग्य कुछ विशिष्ट विद्युत धाराएं विनिर्मित की गई हैं जो अन्य अवयवों में हानिकारक विक्षेप उत्पन्न करके केवल गुण सूत्रों में ही अभीष्ट हलचलें उत्पन्न करती हैं।

इसी विज्ञान का विकास अब इस प्रकार होने जा रहा है कि ‘जीन’ में जो वंश परम्परागत शारीरिक एवं मानसिक विकृतियाँ जुड़ी चली आ रही हैं उन्हें नष्ट कर दिया जाय और जो श्रेष्ठ अंश प्रसुप्त स्थिति में पड़े हैं उन्हें उभार दिया जाय। इस प्रकार की शल्य क्रिया विद्युत तरंगें ‘जीन’ के मर्मस्थलों तक पहुँचा कर की जा सकती हैं। इस विधि से सामान्य नर-नारी भी अपने शुक्र कीटों और डिम्बाणुओं को इस योग्य बना सकते हैं कि सुप्रजनन सम्भव हो सके।

इस प्रक्रिया में एक बड़ी त्रुटि यह है कि माता-पिता के गुण सूत्रों को प्रधानतया विकृति मुक्त ही किया जा सकता है। बहुत हुआ तो प्रसुप्त विशेषताओं को थोड़ी मात्रा में उभारा जा सकता है। इतने पर भी यह नहीं हो सकता कि मातृ पक्ष या पितृ पक्ष में जो विशेषताएं वंश परम्परा से रही ही नहीं उनका भी समावेश किया जा सके। घटाना-सुधारना सरल है पर समावेश तो कैसे किया जाय। गेहूं में जो तत्व नहीं हैं उन्हें भी यदि मिलाया जाना सम्भव हो तो फिर वही इतना पौष्टिक बन जाता है कि प्रोटीन, खनिज, चिकनाई विटामिन आदि अन्य किसी पदार्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती। गेहूं के बीज को थोड़ा सुविकसित किया जा सकता है, पर उसमें उन तत्वों का समावेश करना कठिन है जो उसकी मूल प्रकृति में हैं ही नहीं। गुण सूत्र मनुष्यों की भूतकालीन स्थिति के प्रतीक प्रतिबिम्ब मात्र हैं जो कभी हुआ बीता ही नहीं वह संस्कार उनमें आ कहाँ से जायगा। यहाँ आकर गाड़ी फिर रुक जाती है। समुन्नत स्तर की पीढ़ियों में जिन विशेष क्षमताओं का समावेश किया जाना है विद्युत प्रवाह द्वारा ‘गुण सूत्रों’ में उथल-पुथल कर देने मात्र से भी वह सब सम्भव न हो सकेगा। फिर लक्ष्य कहाँ पूरा हुआ?

विज्ञान अपने ढंग से समुन्नत पीढ़ियों का लक्ष्य पूर्ण करने के लिए सोचने और उपाय ढूंढ़ने में संलग्न है। अध्यात्म इस समस्या का समाधान बहुत पहले ही बता चुका है। पति-पत्नी संतानोत्पादन के लिए दीर्घकालीन तप साधना करें जैसी कि स्वायंभु मनु और शतरूपा रानी ने इसी उद्देश्य के लिए तप करके दशरथ और कौशल्या का शरीर धारण करके भगवान राम जैसे परिष्कृत व्यक्तित्व को जन्म दिया था। भगवान कृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणी को लेकर संतानोत्पादन तप करने के लिए बद्रीनाथ स्थल में हिमालय साधना के लिए गये थे और बेर के फल खाकर वे दोनों दीर्घकालीन साधन करते रहे थे। इसके उपरान्त इन्हें प्रद्युम्न पुत्र प्राप्त हुआ था जो आकृति-प्रकृति में पूर्णतया अपने पिता जैसा ही था। पुराण ग्रन्थों को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह विदित होता है कि तपस्वी ऋषि अपनी पत्नियों समेत रहते थे और पुनीत आरण्यकों में ऐसी सन्तान उत्पन्न करते थे जो ऋषि परम्परा के अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह आगे बढ़ा सके। व्यास, वशिष्ठ, शुकदेव, परशुराम, शृंगी, अत्रि, भरद्वाज, याज्ञवलक्य आदि अधिकाँश ऋषि अपने ऋषि माता-पिताओं से ही उत्पन्न हुए थे। उनमें से भी अधिकाँश ने संतानोत्पादन किया।

वासनात्मक उद्देश्य के साथ जुड़ी हुई वर्तमान सन्तानोत्पादन प्रक्रिया अपने मूल प्रयोजन जैसी ही घिनौनी संतान उत्पन्न कर सकती है। यदि विशुद्ध लोक मंडल के लिए श्रेष्ठतम अनुदान प्रस्तुत करने की दृष्टि से उसे सम्पन्न किया जाए और उसके लिए दीर्घकालीन तप साधना द्वारा प्रजनन तत्व को परिष्कृत किया जाय तो वह उद्देश्य सहज ही पूरा हो सकता है जिसके लिए संसार का विचारशील वर्ग इतना व्यग्र है और औंधे सीधे उपायों की उलट-पुलट कर रहा है।


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