हम अहंकारी नहीं स्वाभिमानी बनें।

June 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“लगता है आपने तो पूर्ण-ज्ञान प्राप्त कर लिया है।” किसी व्यक्ति ने- ‘सर आइजक-न्यूटन’ से कहा।

“मेरे सामने ज्ञान का अथाह-समुद्र फैला पड़ा है, जिसके किनारे बैठकर कुछ ही घोंघे और सीपियाँ उठा पाया हूँ।” विज्ञान जगत के गणमान्य-मनीषी ने उत्तर दिया। उनकी निरभिमानता का कैसा सुन्दर उदाहरण है यह।

जीवन में उन्नति, समृद्धि व सफलता चाहने वाले व्यक्ति को घमण्ड से दूर रहना चाहिए। मनुष्य के वाँछित लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में यह बड़ा बाधक तत्व है। अहंकारग्रस्त व्यक्ति का विकास रुक जाता है। उसकी प्रगति की सारी सम्भावनाएँ धूमिल पड़ जाती हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर विद्वानों ने इसे हेय एवं त्याज्य बताया है।

समीपवर्ती अन्य व्यक्तियों से अपने आपको असाधारण विशिष्ट, उच्च-स्तर का मान लेने की मान्यता ही अहंकार है।

अहंकार अनेक दुर्गुणों का जनक है। अपनी बुद्धि, ज्ञान, कला-कौशल, रंग-रूप, सामर्थ्य शक्ति किन्हीं विशेषताओं का अहंकार मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है। व्यक्ति के जीवन में अहंकार का संचरण होते ही उसकी क्रियाएँ एवं चेष्टाएँ बदल जाती हैं। वह नशाग्रस्त व्यक्ति की तरह असन्तुलित एवं अव्यवस्थित कार्य व्यवहार करने लगता है। उसमें विवेकशीलता, दूरदर्शिता का ह्रास होता जाता है।

किसी ने ठीक ही कहा है- “अभिमान वह विष-बेलि है, जो जीवन की हरियाली, सौन्दर्य, बुद्धि विस्तार, विकास को रोककर उसे शुष्क कर देती है।”

“अहंकार एक ऐसी विष-बुझी तलवार है, जो अपने तथा दूसरे के लिए घातक सिद्ध होती है।”

“अहंकार व्यक्ति को क्रूरता, शोषण, अनाचार की ओर प्रवृत्त करता है। फलतः व्यक्ति और समाज दोनों का अनिष्ट होता है।”

गणित और विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान न्यूटन महोदय की- गणित सम्बन्धी महत्वपूर्ण खोज एक पत्र में प्रकाशित हुई। इससे अनेक लोगों से प्रशस्ति-पत्र, धन्यवाद, ज्ञापन, अभिनन्दन उनके पास आने लगे। इस पर खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था- “अब मेरी प्रसिद्धि तो खूब बढ़ेगी, किन्तु विद्या जिसके लिए मैंने जीवन भर लगा दिया, उसका विकास रुक जायेगा।”

उपरोक्त कथन से ध्वनित होता है कि -प्रशंसा और प्रसिद्धि अभिमान के पोषक तत्व हैं। जिसे अपनी ही बड़ाई और ख्याति की बात सूझती है, वह प्रगति की दिशा में कदम कैसे बढ़ा सकता है? श्रम एवं साधना की महत्ता को वह भूल जाता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर सफल-लेखक, कवि, वैज्ञानिक, कलाकार, दार्शनिक एवं महापुरुषों ने अपनी साधना की पूर्णता के पूर्व अपने क्रियाकलापों को गुप्त रखा, प्रशंसा और प्रसिद्धि से अपने को अछूता रखा और अहंकार के शिकंजे से कोसों दूर रहे।

विश्व विख्यात दार्शनिक कान्ट महोदय ने चालीस बियालीस वर्ष तक अपने सिद्धान्तों पर गम्भीर चिन्तन, मनन किया। इस विचार-मन्थन के परिणामस्वरूप जो निष्कर्ष निकले, उन्हें ही लोगों के समक्ष अपनी दार्शनिक मान्यता के रूप में प्रस्तुत किया। इसी से वे अभिमान रहित होकर अपने सिद्धान्तों का सही प्रतिपादन कर सकने में समर्थ हो सके। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रशंसा-प्रसिद्धि व अभिमान के लिए ‘गीतांजलि’ की रचना नहीं की वरन् विश्वात्मा-परमात्मा के प्रति उनने भाव-सुमन अर्पित किये। इसी तरह गौतम बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, महात्मा गाँधी आदि युग पुरुषों ने प्रशंसा, प्रसिद्धि की सदा उपेक्षा की और अभिमान के विष से अपने को सदा मुक्त रखा तभी जनता जनार्दन को सही मार्ग दिखाने में समर्थ हो सके।

विद्याभिमानी विद्यार्थी का अध्ययन क्रमशः कम हो जाता है और वह दूसरे छात्रों से पिछड़ जाता है। इसी प्रकार कला कौशल, धन सम्पदा, शक्ति-सामर्थ्य सभी क्षेत्रों में अहंकार एक अभिशाप ही सिद्ध होता है।

अभिमान की वृद्धि के साथ ही पतन का श्रीगणेश हो जाता है। अभिमान की पराकाष्ठा व्यक्ति को जड़-मूल से नष्ट कर देती है। इतिहास इस बात का साक्षी है। राक्षस-राज रावण ने अभिमान के वशीभूत होकर मानवता की मर्यादा लाँघकर हीन-कृत्य करने प्रारम्भ कर दिये। परिणामस्वरूप वह परिवार सहित नष्ट हो गया।

“अभिमान” और “स्वाभिमान” में आकाश-पाताल का अन्तर है। अभिमान का जन्म अपने संकीर्ण दृष्टिकोण के फलस्वरूप होता है। जबकि स्वाभिमान का उदय व्यक्ति के उदात्त एवं विशाल आत्मीयता पूर्ण दृष्टिकोण के कारण। जहाँ अभिमान व्यक्ति के ओछेपन की निशानी है, वहाँ स्वाभिमान उसकी उच्चता और महानता की। अपने देश, जाति, धर्म, आदर्श, मानवता की आन-बान और शान की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देना स्वाभिमान का परिचायक है।

अभिमान भौतिक पदार्थों का होता है। धन, शिक्षा, रूप, बल, पद, आदि नश्वर सम्पदाओं एवं विशेषताओं पर इतराने वाले व्यक्ति अहंकारी कहे जायेंगे। स्वाभिमानी वे हैं, जो आदर्शों के पालन में दृढ़ता प्रकट करते हैं और मानवी गरिमा को- आदर्शवादी परम्पराओं को-समाज में जीवित रखने के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा देते हैं। अहंकारी जहाँ अपना तनिक-सा अपमान भी सहन नहीं कर सकता है और चोट खाये सर्प की तरह दूसरों पर टूट पड़ता है वहाँ स्वाभिमानी व्यक्तिगत लाभ हानि का-मानापमान का ध्यान न करके अपनी अहंता आदर्शों के साथ जोड़कर रखता है और स्वस्थ परम्पराओं की रक्षा में ही अपनी सफलता एवं प्रशंसा मानता है। हमें अहंकारी नहीं स्वाभिमानी बनना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118