चन्द्र मान्यताएँ कितनी वास्तविक कितनी अवास्तविक

June 1976

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रजनी पति चन्द्रमा कभी रात्रि की देवी चन्द्रमुखी का दीप्तिमान चेहरा भी माना जाता था। राम उसे खिलौना समझते थे और पाने के लिए मचलते थे। कृष्ण की चन्द्रमा पाने की बालहठ को शान्त करने के लिए पानी में उसकी छवि दिखाकर किसी प्रकार बहलाया। प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 कन्याएँ चन्द्रमा को ब्याह दीं। उसने उनमें से एक सर्वांग सुन्दरी रोहिणी को अपनाया और शेष 26 को उपेक्षित रखा है। दक्ष को समाचार मिला तो वे बहुत कुपित हुए और शाप देकर चन्द्रमा को नष्ट ही कर दिया। लड़कियों ने अपना वैधव्य दुःख दूर करने की पिता से प्रार्थना की। उनने उसे घटती-बढ़ती कलाओं वाला बनाकर और अमावस्या को पूर्ण नष्ट रहने की व्यवस्था कर दी, इस पर साँप भी न मरा और न लाठी भी टूटी वाली कहावत सध गई।

चन्द्रमा का दर्शन करने पर उपवास तोड़ने वाले कितने ही व्रत उपवास हैं। मुसलमानों की ईद तो चन्द्र दर्शन पर ही टिकी हुई है। कुकर्म में इन्द्र का साथ देने के कारण चन्द्रमा को भी शाप लगा और उसे कलंकी बनना पड़ा। स्यामंत मणि चुराये जाने के झंझट में भी चन्द्रमा पर ही दोष थोपा गया और उसके मत्थे अभी तक कालिमा चिपकी हुई है। कामदेव की पत्नी रति का निर्माण प्रजापति ने चन्द्रमा का ही एक भाग तोड़कर किया था। वही गड्ढा कालिमा जैसा दीखता है।

सौन्दर्यमयी कल्पनाओं से लदा चन्द्रमा कितना सुन्दर कितना कलात्मक और कितना दिव्य है। जब कि उसका भौतिक रूप सर्वथा अवाँछनीय और अनुपयुक्त है। न हवा, न पानी, न वनस्पति , न सह्य तापमान। संसार का स्थूल रूप भी ऐसा ही कर्कश है। उसकी सारी शोभा तो कल्पना और भावना की कलात्मक सम्वेदनाओं से सुसज्जित की जाती है। वैज्ञानिक प्रयोगशाला में ले जाकर खड़ा कर देने पर तो मनुष्य हाड़-माँस का पुतला और शोभायमान पदार्थ, मात्र अणु योगिकों का अन्धड़ मात्र बनकर रह जाता है न उसमें कहीं शोभा है और न सरसता।

चन्द्रमा में बड़े-बड़े क्रेटर 33000 के लगभग हैं। इनके अलावा छोटे खड्ड अगणित हैं। इसमें पाये जाने वाले पदार्थों को देखते हुए कुछ वैज्ञानिक ऐसी सम्भावना व्यक्त करते हैं चन्द्रमा कभी पूर्ण ग्रह रहा है। उस पर कभी कोई विकसित सभ्यता रही है। उसके निवासियों ने अणु युद्ध छेड़ा है फलतः वहाँ का समस्त वायुमण्डल और जल वैभव उड़कर अन्तरिक्ष में छितरा गया। गुरुत्वाकर्षण भी घट गया। फलतः पृथ्वी ने उसे अपनी कक्षा में घसीट लिया और वह परिक्रमा करने वाला नगण्य सा उपग्रह मात्र बनकर रह गया। उस पर लानत की तरह उल्काएँ बरसने लगीं, इसी से उसकी सतह खाड़-खड्डों से भर गई। वायुमण्डल बना रहता तो उल्काएँ उसमें प्रवेश न कर सकतीं और कम से कम सतह तो समतल बनी रहती।

मोटे रूप में- सरसरी दृष्टि से देखने पर चन्द्रमा की संरचना ऐसी प्रतीत होगी जिसे हम निरर्थक और उपहासास्पद कह सकते हैं, पर जब गहराई में प्रवेश करते हैं और सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण करते हैं तो उस निरर्थकता के भीतर भी बहुमूल्य सार्थकता दृष्टिगोचर होती है। जीवन की तरह चन्द्रमा की ऊपरी सतह निराशाजनक है, पर बारीकी के साथ गहराई में प्रवेश करने पर न चन्द्रमा निस्सार है और न मानव जीवन दोनों के ही अन्तराल में बहुमूल्य सम्पदाएँ छिपी पड़ी हैं।

चन्द्रमा रसायनों और खनिजों की दृष्टि से बहुत सम्पन्न है। ‘साइन्स’ पत्रिका में प्रकाशित अन्वेषणकर्ताओं के अनुसार उसमें सिलीकॉन, टाइटेनियम, एल्युमीनियम, फैरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम फास्फोरस आदि रसायनों का बाहुल्य है और खनिजों में ताँबा, लोहा, कोहेनाइट, स्कवेराइट, पोटाश फेल्सपार, क्वार्ट्ज, स्पाइनेट, रुटाइल, ट्राइलाइट, एपेटाइट, पायरोक्नीन, इल्मेनाइट, ओलोवाइन, ट्रिडिनाइट आदि प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं।

चन्द्र से लाई गई धूलि का विश्लेषण करके वैज्ञानिकों ने बताया है कि वह अपनी मिट्टी की अपेक्षा कहीं अधिक उपजाऊ है। उस पर फसलें जल्दी और ज्यादा उगेंगी। उस मिट्टी से उपजे पौधों में कीड़े लगने का भी डर नहीं है।

चन्द्रमा पूरी तरह मरा नहीं है। उसकी ऊपरी सतह ही निर्जीव हुई है। भीतरी परतों में अभी वैसी ही ऊष्मा और क्षमता मौजूद है जैसी कि पृथ्वी की भीतरी परतों में। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि वहाँ अभी भी ज्वालामुखी फूटते हैं और अपने ढंग का लावा उगलते हैं।

चन्द्रमा समुद्र जल को प्रभावित करके जिस प्रकार ज्वार-भाटे उत्पन्न करता है, उसी तरह वह पृथ्वी की चमड़ी को भी खींचा है और वनस्पतियों को झकझोरता है। पूर्णिमा को पृथ्वी का फुलाव पौन इंच अधिक मोटा हो जाता है और उस दिन वनस्पतियों के बढ़ने तथा फूलने के सामान्य क्रम में काफी बढ़ोतरी रहती है।

मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक स्थिति पर चन्द्रमा का प्रभाव पड़ता है। मस्तिष्क और रीढ़ उसके प्रभाव को अधिक खींचते हैं। पुरुषों में अमावस को स्त्रियों में पूर्णिमा को आवेश की मात्रा बढ़ी रहती है। इन्हीं दिनों उनके उन्माद अधिक उभरते देखे गये हैं।

कोई अपने सौन्दर्य को देख समझ नहीं पाता। हर किसी को दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। हमें चन्द्रमा अमृत वर्षा करने वाला परम सौन्दर्य का मनोरम प्रतीक मालूम पड़ता है और अपनी धरती धूलि-मिट्टी की बनी बेकार और ऊबड़-खाबड़ लगती है। चन्द्रमा पर जाकर देखने वालों को वहाँ की स्थानीय स्थिति पूर्णतया कुरूप और अवाँछनीय प्रतीत होती है किन्तु उदय हुई पृथ्वी ऐसी लगती है मानो ब्रह्माण्ड की सबसे सुन्दर रंगीन और अत्यंत शोभा-सुसज्जा युक्त एकमात्र केवल वही है।

चन्द्रमा से सम्पूर्ण आकाश घना काला दीखता है। तारे बहुत ही चमकदार दीखते हैं। हमें चन्द्रमा जितना चमकदार दीखता है, चन्द्र तल में पृथ्वी उसकी तुलना में बीस गुनी अधिक चमकदार दिखाई पड़ती है। हमें चन्द्रमा जितना बड़ा दीखता है, उसकी तुलना में चन्द्रमा पर से देखने पर पृथ्वी चार गुनी अधिक बड़ी दीखती है। चन्द्रमा का एक दिन इतना बड़ा होता है जितने कि पृथ्वी के पन्द्रह दिन। दिन-रात को मिलाकर हमारा एक महीना पूरा हो जाता है।

हमें चन्द्रमा पर सिर्फ कुछ काले धब्बे दीखते हैं। पर चन्द्र तल पर महाद्वीपों के भूखण्ड, समुद्र, रेगिस्तान, पर्वत, हरियाली, नदियाँ, बादल, बर्फ, आँधी, तूफान आदि की स्थिति भली-भाँति देखी जा सकती है। स्थानीय विशेषताओं के अनुरूप कई प्रकार के रंगों का हल्का गहरा उभार भी दीखता है। पृथ्वी पूरे रंगीन चित्र जैसी गोलमटोल और हलचलों से भरी हुई दिखाई पड़ती है।

नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ0 हेराल्ड सी0 उरे का कथन है कि सूर्य के विस्फोट से छितराये हुए पदार्थ से उसके ग्रह परिवार का निर्माण हुआ। उसी में से कुछ बचा हुआ पदार्थ पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमने लगा और वह चन्द्रमा बन गया। चन्द्रमा पृथ्वी का टुकड़ा नहीं वरन् सूर्य का बेटा है। डॉ0 उरे द्वारा चन्द्र सम्बन्धी शोध ग्रन्थ “औरिजन एण्ड हिस्ट्री आव मून” में उन्होंने यह सिद्ध किया है कि चन्द्रमा वस्तुतः पृथ्वी का जुड़वाँ भाई और एक स्वतन्त्र ग्रह है जो अपने छोटे अस्तित्व के कारण और परिस्थितियों के दबाव से पृथ्वी का परिक्रमाकारी भृत्य बन गया है।

छितराव में क्षुद्रता ही पल्ले पड़ती है और स्थिति दयनीय होकर रह जाती है। बड़ा ग्रह जब भरा-पूरा और एक था तो उसका स्थान सौर मण्डल में दूसरे नम्बर का था, पर जब वह टूट कर बिखर गया तो उसके अवशेष क्षुद्र ग्रहों की उपहासास्पद स्थिति में चक्कर काट रहे हैं और चन्द्रमा पृथ्वी का भृत्य होकर रह रहा है। यदि चन्द्रमा को स्वतन्त्र ग्रह भी माना जाय तो भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हर किसी को अपनी सत्ता सुविकसित करनी चाहिए। पिछड़ेपन की स्थिति में पड़े रहना किसी न किसी की पराधीनता के चँगुल में जकड़े बिना नहीं रह सकता। पिछड़े अफ्रीकनों को गोरे अमेरिकी पकड़ ले गये थे और उन्हें शताब्दियों तक गुलाम बना कर रखा। चन्द्रमा भले ही सहोदर भाई रहा हो पर उसकी असमर्थ और तुच्छ स्थिति ने पृथ्वी को गुलाम बना कर रहने के लिए विवश बना दिया। यही तथ्य न केवल ग्रह उपग्रहों में वरन् मनुष्यों में पूरी तरह लागू होता है।

चन्द्रमा अपनी धुरी पर 27 सही एक बटा तीन दिन में एक चक्कर पूरा करता है। पृथ्वी की परिक्रमा करने में भी लगभग इतना ही समय लगता है। फलस्वरूप उसका 59 प्रतिशत एक ही ओर का भाग पृथ्वी पर से दिखाई पड़ता है। पृष्ठ भाग को हम कभी भी नहीं देख पाते। चन्द्रमा की परिक्रमा कक्षा अण्डाकार है अतएव उसकी न्यूनतम दूरी 356500 किलोमीटर और अधिकतम दूरी 406863 किलोमीटर हो जाती है। चन्द्रमा का अपना प्रकाश नहीं है वह या तो सूर्य की रोशनी से चमकता है या फिर पृथ्वी के प्रकाश से प्रकाशवान रहता है। तापमान दिन में 250 डिग्री फारेनहाइट और रात्रि में घट कर माइनस 172 डिग्री सेन्टीग्रेड तक पहुँच जाता है।

चन्द्र विजय क्या वस्तुतः उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कि समझी गई है। इस सम्बन्ध में प्रतिपक्ष की अभिव्यक्तियाँ भी विचारणीय हैं। रूस के एक किसान ने उस देश के प्रमुख अखबार प्रावदा के नाम एक पत्र लिख कर पूछा था- अन्तरिक्षयान भेजने से मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति को क्या लाभ? अगर यह स्पूतनिक न बनते तो सरकार कपड़े के दाम आधे कर सकती थी और इससे मुझे आधे ही मूल्य में एक ओवरकोट मिल सकता था जिसके बिना मुझे इस कड़ाके की ठंड में दिन काटने पड़ते हैं।

अमेरिकी किसान के सामने भले ही ओवरकोट की समस्या न हो पर यदि इतना खर्च न करना पड़ता तो वहाँ का उत्पादन भी सस्ता पड़ सकता था और उससे संसार को सस्ते मूल्य में वस्तुएँ मिलतीं तथा अमेरिका में उद्योग धन्धे बढ़ने से उस देश को आज जैसी बेकारी का सामना न करना पड़ता।

‘न्यू साइंटिस्ट’ के अनुसार अन्तरिक्ष में एक पौण्ड वजन फेंकने पर अमेरिकी लागत 50000 डालर है। रूसी लागत इससे अधिक है। अमेरिका अब तक इस मद में 100 अरब डालर से अधिक खर्च कर चुका। रूस को उससे भी अधिक करना पड़ा है।

परमाणु ऊर्जा समिति के अध्यक्ष-शेट हालीफील्ड ने चन्द्र यात्रा को ‘मून मेड नैस’ की संज्ञा दी थी और कहा था। ‘जब खाद्यान्न परीक्षण के लिए हमें 6 लाख डालर भारी पड़ रहे हैं, तो चन्द्रयान पर इतना खर्च करने की क्या जरूरत पड़ गई?’

चन्द्र विजय के उपरान्त अन्य लोकों के जीतने के लिए आतुर मनुष्य को न जाने यह समझ कब आवेगी कि वह आत्म विजय एवं धर्म विजय की भी आवश्यकता अनुभव करें और उसके लिए कुछ प्रयत्न करने की दिशा में भी थोड़े से कदम बढ़ायें।

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