साधनों के माध्यम से सुख पाने की प्रचलित मान्यता ने मनुष्य को इस दिशा में उत्तेजित किया है कि वह अधिक मूल्यवान और अधिक मात्रा में पदार्थों का संग्रह करके सुखी बने और सुसम्पन्न कहलाये। इसी मान्यता से प्रेरित और प्रभावित व्यक्ति अपनी समूची शक्ति धन उपार्जन में लगाते और प्रयत्न में सफल होते हैं। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपने निर्वाह की मौलिक आवश्यकता से कम नहीं कुछ अधिक ही कमा लेता है।
देखते हैं कि इतनी सफलता प्राप्त कर लेने पर भी मनुष्य सुखी नहीं रह पाता। अत्यधिक उपार्जन नई विकृतियाँ और नई समस्याएँ साथ लेकर आता है और कई बार तो अशान्ति की दृष्टि से वह निर्धनता से भी महंगा पड़ता है। कारण उपार्जन में दोष होना नहीं वरन् तत्व दृष्टि के अभाव में है। न जाने क्यों इस तथ्य की उपेक्षा की जाती है कि सुख पदार्थों की प्रचुरता में नहीं, परिष्कृत दृष्टिकोण और सद्गुण सम्पन्न व्यक्तित्व में सन्निहित है। उसी के अभाव में धनी और निर्धन समान रूप से दुखी बने रहते हैं।
जितना श्रम सम्पन्नता के लिए किया जाता है उसका आधा, चौथाई भी यदि सुसंस्कारिता और सज्जनता उत्पन्न करने और बढ़ाने में किया जा सके तो देखा जायगा कि सन्तोष और उल्लास की अनुभूतियों से अन्तःकरण भर गया। वस्तुओं से नहीं उनके प्रति रखे गये दृष्टिकोण और दूरदर्शिता पूर्ण उपभोग से सुख मिलता है। उपार्जनकर्ताओं को सोचना होगा कि यदि वे सचमुच सुखी बनना चाहते हैं तो उन्हें सम्पत्ति की तरह सज्जनता के अभिवर्धन में भी दत्त-चित्त होना चाहिए।
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