नेकी कर और दरिया में डाल

June 1976

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हातिमताई की नीति- कथाओं में एक प्रसंग आता है कि कोई फकीर प्रतिदिन तीन रोटियाँ बनाता था। उन तीन रोटियों में से वह एक तो किसी भूखे आदमी को देता दूसरी खुद खाता और तीसरी नदी में डाल देता। हातिम ने फकीर को जब रोज ऐसे करते देखा तो पूछा-महात्मन् आप एक रोटी किसी भूखे को देते हैं यह बात समझ में आती है दूसरी रोटी स्वयं खाते हैं- न समझ में आये तो इसमें भी ऐसी कोई बात नहीं है, पर तीसरी रोटी नदी में डाल देते हो यही समझ आने लायक नहीं है। इसका क्या मतलब?

तो कहते हैं कि फकीर ने बताया कि- तीन रोटियों में से एक किसी भूखे को देना फर्ज है, अपने लिए तो हर कोई खाता है, पर फर्ज को पूरा करना कोई गुमान करने लायक बात नहीं है। मालिक की इस दुनिया में सभी कोई दूसरों की भलाई करते हैं। एक इंसान ही ऐसा है जो नेकी करने के बाद समझता है कि उसने मालिक को खरीद लिया। कर्तव्य- सहज धर्म पूरा करने के बाद जैसे हम उसे याद नहीं रखते इसी प्रकार नेकी भी करने के बाद भुला देना चाहिए और इसी बात को मैं याद करता हूँ। तीसरी रोटी दरिया में डाल कर इस प्रसंग में परोपकार करने के बाद उसे भूल जाने की दिशा दी गई है, जो आत्म विकास के लिए अनिवार्य आवश्यक कक्षा है।

आमतौर पर लोग दो बातें याद रखते हैं। पहली तो यह कि किसने हमारे प्रति बुरा किया था। किसी ने भलाई की थी- इस बात को बहुत कम कृतज्ञ पुरुष ही याद रख पाते हैं जबकि याद यही रखना चाहिए और दूसरी बात यह याद रखी जाती है कि हमने किस का उपकार किया है। उपकार तो लोग इस प्रकार याद रखते हैं कि उसका स्मरण किसी बड़ी घटना से भी ज्यादा आता रहता है। कोई व्यक्ति यदि दिन भर में दस रुपये कमाता है और उसमें से एक रुपया किसी पुण्य कार्य में लगा देता है तो नौ रुपये किस प्रकार खर्च किये थे और उस दिन का उपार्जन कितना अनीति पूर्ण था ये सब बातें विस्मृति के गर्त में चली जाती हैं और याद यही रहता है कि एक रुपया परोपकार में लगा था। यह नितान्त आत्म-घाती है कि व्यक्ति अपने कार्यों में से केवल दूसरों की भलाई के लिए हुआ व्यय तथा औरों द्वारा किया गया अनिष्ट ही स्मरण रखे।

विद्या, सम्पत्ति, शक्ति, अधिकार का अभिमान तो सभी बुरा समझते हैं और निन्दनीय मानते हैं। पर अनुचित और घातक पुण्य का अहंकार भी है। भौतिक संपदा के अहंकार की हानियाँ व्यक्ति को प्रत्यक्ष दिखाई देती है, पर पुण्य का, परमार्थ का अहंकार ऐसा है कि उसकी सूक्ष्म किन्तु अति संहारक हानियाँ व्यक्ति का अधःपतन भी कर डालती हैं और इस बात का पता भी नहीं चलता। अहंकार, अहंकार है वह ऐहिक विभूतियों का हो या दैविक विभूतियों का। क्योंकि अहंकार या अभिमान व्यक्ति के स्वात्म की परिधि को सीमित करता है, प्रतिबन्धित रखता है और व्यक्ति जब तक अहं की कारा से मुक्त नहीं होता तब तक उसे अपनी चेतना का उच्च आयाम अप्रत्यक्ष ही रहेगा।

इसीलिए विश्व के दार्शनिकों और ऋषि-मुनियों ने पुण्य कार्यों के अभिमान को भी परित्याज्य कहा है- गीता में बार-बार आये शब्द निरभिमानता का इतना सीमित अर्थ नहीं है। वहाँ सत्कार्यों के अभिमान की भी उपेक्षा की गई है। आत्म-विकास के इसी दर्शन को चार्ल्स लैम्ब ने अपने इन शब्दों में बाँधा है- मानव को चाहिए कि भलाई करे और उसे एकदम बिसार दे। इससे हृदय को महान सुख की प्राप्ति होती है। वस्तुतः अभिमान या दर्प व्यक्ति की चेतना पर एक भार उत्पन्न करता है जबकि वहाँ होना चाहिए प्रफुल्लता, उत्साह और हल्कापन। भारीपन और बोझिलता चेतना को अनुभूतियों के सागर की तलहटी में पहुँच देता है और पुण्य का- सत्कर्मों का दर्प तो जीवन नौका में ऐसा छिद्र उत्पन्न कर देता है कि उसके साथ उसमें बैठी अन्य विभूतियाँ जिनसे संसार का बहुत उपकार हो सकता है वे भी अकाल कवलित हो जाती हैं। क्योंकि दर्प प्रतिभा को कुण्ठित करता है और शक्तियों को कुन्द बनाता है।

जब किसी के प्रति कोई उपकार किया जाता है यदि उसे भुला दिया जाय तो हृदय को महान सुख इसलिए प्राप्त होता है कि उस हल्केपन से अन्य नई उपलब्धियों का द्वार खुलता है। बारहों मास फलने वाले किसी वृक्ष का फल जब तक टूट नहीं जाता तब तक उस स्थान पर कोई दूसरा फल नहीं लगता और जब टूट जाता है तथा वृक्ष यह भी भूल जाता है कि उसमें कोई फल लगा था अर्थात् वह स्थान पूर्ववत हो जाता है तब दूसरे फल की सम्भावना बनती है। यह क्षण निश्चित रूप से आह्लादपूर्ण ही होना चाहिए। हम भी जब किसी उपकार को विस्मरण में डाल देते हैं तो उस स्थान से पुनः दूसरा उपकार होने की संभावना बनती है और जन्म लेता है- एक अनूठा आनन्द।

‘अन्टु दिस लास्ट’ के लेखक रस्किन जिससे महात्मा गाँधी ने सर्वोदय की प्रेरणा प्राप्त की थी। ने अपने जीवन में कोई लाखों डालर कमाये। इस धनराशि की उन्होंने पाई-पाई परोपकार में खर्च कर डाली। उनकी पुण्य वृत्ति का परिचय देते हुए ‘एरीना’ पत्र में प्रकाशित हुआ था- निर्धन युवक युवतियों की, जो विद्याध्ययन में जैसे तैसे जुटे थे रस्किन ने आर्थिक सहायता की। श्रमिक स्त्री पुरुषों के लिए मकान बनवाये जो स्वास्थ्यप्रद होने के साथ-साथ सुविधाजनक भी थे। उन्होंने लन्दन के बाहर परती पड़ी जमीन को कृषि योग्य बनाने के लिए भी एक योजना बनाई तथा उसे क्रियान्वित किया। उस भूमि का विकास कर उन्होंने जमीन को उन भूमिहीन किसानों में बाँट दिया जो सामाजिक अत्याचार, शोषण या अपनी दुर्बलताओं के कारण दाने-दाने को मोहताज हो गये थे।

रस्किन निर्धन कलाकारों की सहायता करने में भी अति उदारता से काम लेते थे। एक बार उन्होंने किसी प्रसिद्ध कलाकार की सभी कृतियाँ खरीद लीं और लन्दन के एक पब्लिक स्कूल में लगा दीं। सन् 1877 ई॰ तक रस्किन ने लेखन द्वारा होने वाली समस्त आय और पैतृक उत्तराधिकार में मिली सम्पत्ति का पिचहत्तर प्रतिशत भाग लोकोपकारी कार्यों में खर्च कर दिया। तरुणाई में प्रवेश करते समय उनकी आर्थिक स्थिति कहीं और थी तथा सन 1877 में उसका चौथाई भाग भी उनके पास नहीं रहा, परन्तु मन इतने से भी नहीं भरा। अभी बहुत कुछ बाँट देने को उमड़ रहा था। रस्किन ने अपने लिए निश्चित किया कि 125 पौण्ड प्रतिमाह स्वयं पर खर्च करूंगा और शेष सब समाज को, निर्धन लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने के लिए समर्पित।

कुछेक लोकोपयोगी कार्य करने के बाद ही रस्किन चाहते तो अपना नाम संसार के महान सेवकों में लिखा सकते। परन्तु इस प्रकार वे बड़े आदमी भले ही बन जाते आत्मा तो तृषित ही रह जाती और रस्किन जीवन भर लुटाते रहे-बिना यह देखे कि कल क्या दिया था? यदि उनका ध्यान कल की सेवा का हिसाब लगाने में लग जाता तो बहुत सम्भव था मायावी मन-अब बस कहकर हाथ को पीछे खींच लेता।

परोपकार का आनन्द प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति धनवान ही हो। निर्धन और अकिंचन परिस्थितियों में भी परोपकार का रस लिया जा सकता है। बस आवश्यक इतना भर है कि व्यक्ति निरहंकार और विनम्र होने की क्षमता रखता हो। इंग्लैण्ड के एक प्रख्यात व्यंग्य चित्रकार हो गये हैं ड्यू मौरियर। मौरियर अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न कलाकार थे, पर उनके जीवन काल में अन्य महामानवों की तरह उन्हें भी असफलता का ही मुँह देखना पड़ा। मुश्किल से वे अपने लिए दो समय का भोजन जुटा पाते थे, पर परमार्थ भावना उनमें कूट-कूटकर भरी थी और वे सदैव जरूरतमंदों की सहायता के लिए तत्पर रहते थे। एक दिन की घटना है- कड़कड़ाती शीत ऋतु थी। वे लन्दन के हैम्पस्टेड रोड से चले जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति सड़क के किनारे पर बैठा हुआ है। उसके पास न तो सर्दी से बचने के लिए कपड़े हैं और न उदर ज्वाला की शान्ति के लिए पैसे। मौरियर के मन में करुणा जागी और उन्होंने अपनी जेब सम्भाली। पर वह तो खाली थी।

ऐसी परिस्थिति में उनकी करुणा और भी जागृत हुई। तथा उन्होंने वृद्ध व्यक्ति को अपने साथ लिया। वे चाहते थे कि वृद्ध व्यक्ति की रुपये पैसों से कुछ सहायता कर दी जाय। पैसों का प्रबन्ध करने के लिए उन्होंने योजना भी मन ही मन बना डाली। होटल की पाकशाला में उन्होंने श्यामाफलक पर कुछ चित्र बनाये और नीचे लिख दिया दर्शकगण-शुल्क 50 पैसे रख दें। यहाँ भीड़ इकट्ठी हुई और सभी लोगों ने शुल्क रख दिया। मौरियर ने बिना यह जाने कि कितनी रकम है सबकी सब समेट कर वृद्ध व्यक्ति की झोली भर दी और चुपचाप होटल से चल दिये।

क्या मौरियर अपनी उपकारी वृत्ति का विज्ञापन यह कहकर नहीं दे सकते थे कि मैं एक वृद्ध व्यक्ति के लिए यह मनोविनोद प्रस्तुत कर रहा था। वे यह भी तो सोच सकते थे कि इस विज्ञापन से और अधिक संग्रह हो जायेगा। पर वृद्ध के भाग्य में जो मिलना लिखा है- वह मिल जायगा यही मानकर उन्होंने स्वयं को छुपाये रखा और निर्णय कर लिया कि इस प्रकार वृद्ध व्यक्ति की सहायता करनी है और वृद्ध को सौंप कर चुपके से खिसक जाना ही बेहतर समझा।

परोपकार एक ऐसे बीज की भाँति है जिसे यदि दर्प का कीड़ा न लगा हो तो नियति की भूमि पर गिरने के बाद कई गुना दानों को वह अपने कर्त्ता के लिए उत्पन्न करता है, किसान अपने खेत पर हल चलाता और बीज बोता है। उसके पास न तो इस बात का हिसाब रहता है कि खेत में बोये गये बीजों की संख्या कितनी थी और न इस बात का कि उसने किस-किस स्थान पर बीज बोये। लेकिन फिर भी खेत के सम्बन्ध में एक मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि उसमें कितनी फसल उत्पन्न होती है। एक व्यक्ति जो अपनी विभूतियों और शक्तियों को औरों के हित में लगाता है और न इस बात का कोई लेखा-जोखा रखता है कि उसने कितने उपकारी कार्य किये और न उन व्यक्तियों की गणना रखता है जो उपकृत होते हैं। वह इस लोकसेवा साधना से अनंत गुना परिणाम प्राप्त करता है।

उपकार करने और उसे भूल जाने की बात सिद्धान्ततः सत्य लगती है, पर उपकार की कसौटी क्या है? सिडनी स्मिथ उपकार का व्यावहारिक स्वरूप बताते हुए लिखते है- “हमें प्रतिदिन कम से कम एक व्यक्ति को अवश्य प्रसन्न करना चाहिए। यदि आप प्रतिदिन एक व्यक्ति को प्रसन्नता प्रदान करें तो दस वर्ष में आप तीन हजार छः सौ पचास व्यक्तियों को उल्लसित कर सकेंगे, जो कि एक छोटे कस्बे की आधी जनसंख्या के बराबर है। इस प्रकार आप मानवता के आनन्द कोष में एक महान योगदान देंगे।”

किसी को प्रसन्न कर देने का अर्थ उसे हँसा भर देना नहीं है। हँसाने का काम तो विदूषक भी बड़ी अच्छी तरह जानते हैं। उपकारी प्रफुल्लता का अर्थ है अपनी समस्याओं के कारण खिन्न और क्षुब्ध हुए व्यक्तियों का समाधान खोजना और उसे हल करने के लिए भरसक सहयोग करना। इस सेवा-साधना से लाभान्वित व्यक्ति का आभार और संसार में आनन्द वृद्धि का लाभ उपकारी को मिलेगा-- यह निश्चित है। पर उतना ही व्यर्थ है यह भी कि उसकी आशा की जाय। अध्यात्म की दृष्टि से समूचा विश्व ही एक शरीर है। शरीर के किसी अंग में या कि पैर के तलुओं में खुजली उठे तो हाथ दौड़कर तुरन्त उस स्थान को खुजलाते हैं। लेकिन उस समय वह आशा नहीं की जाती कि हाथ को उसके परिश्रम का प्रतिदान मिलेगा। समूचा विश्व जब एक शरीर है और एक दूसरे किसी अंग की सेवा करता है तो फिर यह आशा करना कौन-सी बुद्धिमानी की बात है कि उसका प्रतिदान मिलेगा और हाथ तो अपनी सेवा का कोई हिसाब नहीं रखता फिर अपने द्वारा किये हुए उपकारों का हिसाब रखने का ही क्या अर्थ है?

जीवन और अध्यात्म के नियम बड़े सीधे-साधे और व्यावहारिक हैं। उनमें जटिलता उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है-मानवी दर्प बुद्धि। अतः चाहिए कि उससे पृथक रहकर ही मानवी चेतना का-आत्मिक परिधि का विकास किया जाय और सेवा-साधना का-उपकार भावना का यथार्थ आनन्द लिया जाय।

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