नीति पूर्वक कमायें विवेक पूर्वक खायें।

June 1976

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आज सारा विश्व भौतिकता के प्रवाह में बह रहा है। मनुष्य के बड़प्पन का मापदण्ड धन-ऐश्वर्य माना जा रहा है। ‘सर्व गुणाः कांचनमाश्रयन्ते’ की मान्यता ने लोगों के हृदय में स्थान बना लिया है। धनवान व्यक्ति को ही हर स्थान पर सम्मान पाते देखा जाता है। समाज के इस गलत दृष्टिकोण का दुष्परिणाम भयंकर रूप में हमारे सामने है। हर व्यक्ति की एकमात्र आकाँक्षा धन कमाने की है। मनुष्य अपनी ईमानदारी की कमाई से सन्तुष्ट नहीं है, कम से कम समय में अमीर बन जाने के उपाय सोचा जाता है। लोग जुआ खेलते हैं, चोरी-डकैती करते हैं रिश्वत, धोखा, बेईमानी, ठगी, काला बाजार, मिलावट, झूठ, फरेब शोषण आदि ऐसा कौन सा अनैतिक कार्य है जो मनुष्य धन कमाने के लिए न करता हो।

अन्यायोपार्जित धन विष के समान होता है। जो अनैतिक और गन्दे तरीकों से धन कमाते हैं, उनके चारों ओर विष ही विष है। बुराई से बुराई ही बढ़ती है। अनैतिक रीति से जोड़ी गई सम्पत्ति, विलासिता, फैशन परस्ती, नशेबाजी, कुटिल-कुटेवों, नाना विधि-आडम्बर बनाने आदि दुर्व्यसनों में व्यय होती है। पास की कमाई पाप कर्मों में ही खर्च होती है। विलास प्रसाधनों एवं दुर्व्यसनों की जिन्हें कुटेव पड़ जाती है वह उनके जीवन की एक आवश्यकता बन जाती है। उनकी ये अपराधी प्रवृत्तियाँ अनेक प्रकार का दुष्कर्म कराती हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन में सुख और शान्ति दुर्लभ हो जाती है। ये दुष्प्रवृत्तियां उसका सर्वनाश करके छोड़ती हैं।

पैसा जीवन के लिए एक साधन मात्र है, उससे रचनात्मक शक्ति है। उसकी उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। सदुद्देश्यों की पूर्ति में उसके द्वारा बहुत सहायता भी मिलती है। उचित रीति से कमाया हुआ और सत्कार्यों के लिए उचित मात्रा में व्यय किया हुआ धन ही मनुष्य को सुख, संतोष और आन्तरिक शान्ति प्रदान करता है। हमारे यहाँ अनैतिक साधनों को सदा हेय माना गया है। वेद का मत है--

न दुष्टुती मर्त्यो विन्दते वसु,न स्रेधन्तं रयिर्नशत। सुशक्रिरिन्मधवन तुभ्यमावते, देष्णं यत् पार्ये दिवि।।

-ऋग्वेद 7।32।21

अर्थात् धन,पद,श्री और समृद्धि की प्राप्ति न्याय पूर्ण आचरण से होती है। अधर्म से कमाया धन कमाने वाले के स्वास्थ्य, सन्तोष और सम्मान के लिए विनाशकारी होता है।

परिश्रम और ईमानदारी के साथ अधिक उपार्जन करना निन्दनीय नहीं। किन्तु उस धन का विलास, दुर्व्यसनों एवं निकृष्ट स्वार्थों में खर्च करना अथवा धन को रोक कर, दाब कर रख लेना दोनों कार्य अनुचित हैं।

कुछ लोगों में कंजूसी की दुष्प्रवृत्ति होती है। ईश्वर ने मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप ही साधन उत्पन्न किये हैं। एक स्थान पर धन का अधिक एकत्र हो जाना दूसरे स्थान पर अभाव उत्पन्न कर देगा। समतल भूमि पर एक स्थान को ऊँचा करने के लिए दूसरे स्थान पर गड्ढा करना पड़ता है। कुछ व्यक्ति सम्पत्ति साधनों को एकत्र करके बैठ जाएंगे अथवा आवश्यक से अधिक उपभोग करेंगे तो स्वाभाविक रूप से दूसरों को साधन रहित, निर्धनता का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा।

धन का संचय एक सामाजिक अभिशाप है। चोर, डाकुओं की उत्पत्ति का भी यही मूलभूत कारण है। संग्रही व्यक्ति भले ही अमीर या पूँजी-पति के नाम से पुकारे जायँ वस्तुतः वे समाज के सामने एक बुरा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जहाँ पैसा रुकता है वहाँ सड़ता है, उसकी सड़ांध चारों ओर फैलती है। लक्ष्मी को चंचलता कहा गया है। जहाँ वह रुकी वहीं अनेक दुष्प्रवृत्तियों का सृजन कर डालेगी। जिस प्रकार बहता हुआ नीर सदैव निर्मल और पवित्र रहता है, तालाब या पोखर के रूप में रुके हुए जल में अनेकों विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं यही गति धन-सम्पत्ति की होती है।

ईमानदारी और परिश्रम द्वारा उपार्जित धन से मनुष्य सादगी से रहता हुआ सुख शान्ति का जीवनयापन कर सकता है। ऐसा कहा जाता है कि बिना शोषण का मार्ग अपनाये तथा बिना अनैतिक कमाई किये कोई व्यक्ति अमीर या पूँजीपति नहीं बन सकता। उपन्यास सम्राट् मुंशी प्रेमचन्द ने एक स्थान पर लिखा है--

“जब मैं किसी व्यक्ति को धन सम्पन्न देखता हूँ तो उसके सारे गुण मेरी दृष्टि से तिरोहित हो जाते हैं, वह मेरी नजरों से गिर जाता है। क्योंकि उसने एक ऐसी समाज व्यवस्था को अपना रखा है जो शोषण पर आधारित है।”

महात्मा ईशा ने भी एक स्थान पर कहा है--

“सुई के छेद से ऊँट निकल सकता है, किन्तु धनवान व्यक्ति को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं मिल सकता।”

इसमें दो राय नहीं हो सकतीं- धन और ऐश्वर्य की लालसा में निमग्न व्यक्तियों को अनीति का मार्ग अपनाना ही पड़ता है। धन प्राप्ति की इस अन्धी घुड़दौड़ में हमारा नैतिक स्तर चकनाचूर हो रहा है। धन का संग्रह लोगों में असंतोष पैदा कर रहा है। साम्यवाद और समाजवाद का प्रभाव विश्व में बढ़ता जा रहा है। पूँजीपतियों ने अपने धन का उपयोग समय रहते लोक-कल्याण के लिए न किया तो अन्त में धन के साथ-साथ उनका विनाश भी सुनिश्चित है।

पापी का धन पाप कर्म में ही लगता है। पवित्र कार्यों में उसका उपयोग होना कठिन है। अपने नाम के लिए, यश प्रशंसा के लिए, धर्म का आडम्बर करते हुए तथा धर्म कार्यों में पैसा खर्च करते हुए कुछ अमीरों को अवश्य देखा जा सकता है। किन्तु इस धर्म निष्ठा के पीछे उनका कुत्सित स्वार्थ ही होता है।

हम स्वयं अनीति द्वारा धन उपार्जित न करें, साथ ही साथ दूसरों द्वारा अन्यायोपार्जित धन के उपभोग से भी बचें। लोभवश किसी की अनीति में सम्मिलित न हों। इस संबंध में महाभारत का एक प्रसंग है--

“महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद शरशैया पर शयन करते हुए भीष्म-पितामह पाण्डवों को सदुपदेश दे रहे थे। तभी द्रौपदी ने पितामह से प्रश्न कर दिया-- “पूज्य पितामह आज आप बड़े ज्ञान-पूर्ण उपदेश कर रहे हैं, लेकिन जिस समय मेरा चीरहरण हो रहा था- कौरवों की सभा में उस समय आप भी विद्यमान थे। इस अन्याय के विरुद्ध आपने एक शब्द भी नहीं कहा था।” उस समय आपका यह ज्ञान कहाँ चला गया था?’ भीष्म-पितामह ने उत्तर दिया- ‘पुत्री ठीक कहती हो! उस समय मैं दुर्योधन की अनीति-उपार्जित कमाई का उपभोग कर रहा था, जिसके कारण मेरी बुद्धि भी नष्ट हो गई थी। दुर्योधन के धान्य द्वारा निर्मित रक्त का अब एक कण भी शरीर में शेष नहीं है। अतः अब मेरा मन पूर्ण पवित्र है और सदुपदेश करने की स्थिति में हूँ।’

सच्ची और स्थायी समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि नीति पूर्ण ईमानदारी के श्रम से अपनी जीविका उपार्जित करें। उसका भी पूरा-पूरा उपयोग अपने व अपने परिवार के स्वार्थ में ही न कर डालें, बल्कि उसका एक अंश लोक-कल्याण के कार्यों में भी अवश्य व्यय करते रहें। बिना दान के अर्जित सम्पत्ति का उपभोग करना भी पाप माना जाता है। साधारण नागरिक की तरह सादगी से जीवनयापन करते हुए शेष धन को परोपकार में व्यय करना धर्म है।

धन में पवित्रता का समावेश आवश्यक है। विष्णु भगवान की पत्नी देवी लक्ष्मी धन-शक्ति का प्रतीक मानी गई हैं। ‘रमन्तां पुण्या लक्ष्मीः’ पवित्रता से अर्जित सम्पत्ति ही स्थिर रहती है।

अनीति की कमाई, अनावश्यक व्यय, मनुष्य के घृणित एवं पतित होने के सबसे बड़े प्रमाण है। धर्मात्मा की परीक्षा यह है कि वह परिश्रम की कमाई पर संतोष करे, एक-एक पाई का सदुपयोग करते हुए शेष धन को लोक कल्याण के हेतु अर्जित करता रहे।

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अपनों से अपनी बात-


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