धर्म की पहुँच अन्तःकरण में अवस्थित आस्थाओं तक है। इस मर्मस्थल को स्पर्श करने की क्षमता धर्म के अतिरिक्त और किसी स्तर के तत्व ज्ञान में नहीं है। मनुष्य को उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व में नियोजित रखने के लिए ही धर्म और अध्यात्म की संरचना हुई थी। तत्वदर्शियों का वह प्रयोग इतिहास के पृष्ठों को स्वर्ण अक्षरों में लिखता रहा तो अब उसका वैसा ही उपयोग क्यों नहीं हो सकता? इसका उत्तर तर्क से नहीं प्रयोग परीक्षण से किया गया। तथ्य सामने है। षोडश संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति और परिवार-निर्माण की- पर्व, त्यौहारों के आयोजनों से सामाजिक उत्कर्ष की- कथा, सत्संगों के माध्यम से जन-मानस परिष्कार की-गायत्री यज्ञों के माध्यम से लोक-प्रवाह को उलटने की जो चेष्टा की गई उससे आशातीत परिणाम निकले। इस प्रयोजन के लिए किया गया साहित्य सृजन, संगठन, प्रचार अभियान अपना लक्ष्य पूरा करने में सार्थक सिद्ध हुआ है यह घोषित करते हुए हमें तनिक भी संकोच नहीं है। प्रयोग की सार्थकता सिद्ध करके उसके विस्तार का उत्तरदायित्व दूसरों पर सौंपते हैं। विश्वास किया जाना चाहिए कि हिन्दू समाज के क्षेत्र में प्रयोग किया गया ‘धर्म मंच से लोक-शिक्षण’ का क्रिया-कलाप अगले दिनों और भी द्रुतगति से आगे बढ़ेगा और हर कसौटी पर अपनी सार्थकता सिद्ध करेगा।
जो प्रयोग हिन्दू समाज में हुआ है वही अन्य धर्मों में भी किया जाना अपेक्षित है। धर्म कलेवर जहाँ का तहाँ रहे। परम्पराओं, मान्यताओं को उन धर्मों के अनुयायी यथावत अपनाये रहें पर धर्म तत्व की उस आत्मा को समझें जो उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श कर्तृत्व पर आधारित है। चरित्र-निष्ठा और समाज-निष्ठा जिसका लक्ष्य है। एकता और समता जिसका स्वभाव है। धर्म की यह आत्मा सार्वभौम एवं सर्वजनीन है। इसमें मौलिक एकता है। सभी धर्मों को वह एक लक्ष्य पर पहुँचाती और एक केन्द्र पर केन्द्रित करती है। आज धर्मों के शरीरों में यह आत्मा मूर्छित पड़ी है उसी को जगाना अपना अगला चरण है। धर्मों का समन्वय होने का दिन अभी दूर है, पर वे सब मिलकर एक दिशा में तो आज भी चल सकते हैं। प्रयत्न इसी का है।
जिस प्रकार हिन्दू साहित्य का सार जनता के सामने प्रस्तुत करके उसकी आत्मा से जन-साधारण को परिचित कराया गया है, उसी प्रकार ईसाई, मुस्लिम एवं बौद्ध धर्म ग्रन्थों का सार भी सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत किया जाना है यह समझाया जाना है कि उनके बीच बाह्य भिन्नता रहते हुए भी आन्तरिक एकता कितनी सघन है। अगले दिनों इसी तथ्य पर हमारा अध्ययन, मंथन, चिन्तन एवं प्रस्तुतीकरण प्रयास आरम्भ होना है। संसार की तीन चौथाई जनता इन्हीं तीन धर्मों पर केन्द्रित है। विभिन्न धर्मों के धार्मिक कर्मकाण्डों के पीछे कितनी वैयक्तिक एवं सामाजिक स्थिति को प्रखर बनाने की कितनी प्रेरणा विद्यमान है। उन धर्मों के कथा, पुराण किस प्रकार नैतिक एवं सामाजिक शिक्षा प्रस्तुत करके मानवी गरिमा एवं एकता को परिपुष्ट करते हैं। इस तथ्य से सर्व साधारण को परिचित कराया ही जाना चाहिए।
अपना प्रयत्न किसी धर्म की समीक्षा या तुलना करना नहीं। किसी को छोटा किसी को बड़ा सिद्ध करना नहीं और न परस्पर विद्वेष के बीज बोना है। प्रयत्न यह है कि उदात्त चिन्तन और आदर्शवादी क्रिया-कलाप की प्रेरणाओं का संकलन किया जाय और उससे न केवल उन धर्मों के धर्मावलम्बियों को वरन् मात्र को उससे परिचित कराया जाय। इससे विभेद की दीवारें झीनी होंगी एवं सर्व धर्म सद्भाव का क्षेत्र विस्तृत होगा।
अखण्ड ज्योति के पाठकों में से जिन्हें उपरोक्त तीन धर्मों में से किसी में अधिक गहरी रुचि एवं जानकारी हो उनका परामर्श इन पंक्तियों द्वारा सादर आमन्त्रित किया जाता है। इस संदर्भ में परामर्श शान्ति कुँज, सप्त सरोवर, हरिद्वार के पते पर भेजे जायें।
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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
वर्ष-39 सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य अंक-6