काश हम ध्वंस छोड़कर सृजन में लग सकें

June 1976

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युद्ध अभ्यास में आज प्रायः पौने दो करोड़ आदमी लगे हुए हैं। वे मारक अस्त्र-शस्त्रों के चलाने-मनुष्यों की हत्या करने और सम्पत्ति को नष्ट करने की कला में प्रवीणता प्राप्त कर रहे हैं। यही इनका कला-कौशल है। इनके व्यक्तित्व की सारी विशेषताएँ प्रायः इसी प्रयोजन के लिए समर्पित हैं। इसके अतिरिक्त कोई सात करोड़ आदमी शस्त्रास्त्र निर्माण और सेना सम्बन्धी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए चलाये जा रहे उद्योगों में लगे हुए हैं। वे मूर्धन्य मस्तिष्क इनसे अलग हैं जो अपने बुद्धि कौशल से ऐसी शोधें करने, ऐसी विधियाँ निर्मित करने में लगे हुए हैं जिनकी सहायता से अधिक आसानी से अधिक विनाश सम्भव हो सके। धन-जन की अधिक हानि के लिए अधिक प्रभावशाली और अधिक सस्ते उपाय ढूँढ़ निकालना ही उनकी प्रतिभा की सफलता है।

संसार में 150 करोड़ से अधिक मनुष्य ऐसे हैं जिनकी आमदनी 500) रु0 वार्षिक से कम है। 40) रु0 मासिक से अपना निर्वाह करने वाली जनता में आधी ऐसी है जिनका औसत और भी गया-गुजरा है। उसे भरपेट रोटी और तन ढ़कने को कपड़ा जीवन में कभी कभी ही मिल पाता है। अधिकतर तो वे आधा पेट कुछ खाकर ही किसी प्रकार सोते हैं और फटे-चिथड़ों से अपनी लाज ढकते हैं।

इस दरिद्र जनता के लिए क्या कुछ नहीं किया जा सकता? क्या सचमुच ही समर्थ लोग इस दिशा में असमर्थ हैं? हिसाब लगाने वाले बताते हैं कि इस दिशा में सब न सही प्रगति और वर्चस्व का दावा करने वाले दो बड़े देश रूस और अमेरिका ही मिल-जुलकर कुछ काम करें तो बहुत कुछ हो सकता है। इन दो देशों की जितनी धन-शक्ति और जन-शक्ति युद्ध प्रयासों में लगी हुई है उसे हटा कर यदि पीड़ित मानवता को ऊँचा उठाने में लगा दिया जाय तो उन पौने दो करोड़ लोगों की आमदनी कुछ ही महीने के अन्दर ठीक दूनी हो सकती है। 500 रुपये वार्षिक के स्थान पर वे 1000 रुपये वार्षिक प्राप्त करने लगते हैं और अति दरिद्र स्थिति से ऊपर उठकर मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं का जीवन में पहली बार दर्शन कर सकते हैं।

मनुष्य में संहारक शक्ति भी है और सृजन शक्ति भी। ध्वंस भी कर सकता है और निर्माण भी। शक्ति को जिस भी दिशा में नियोजित कर दिया जाय-जिस भी कार्य में लगा दिया जाय उसे ही पूरा करती चली जायगी।

युद्धों और महायुद्धों में कितनी जनसंख्या और सम्पत्ति का विनाश होता है, यह दृश्य मुद्दतों से आँखें देखती रही हैं और कान सुनते रहे हैं। जिन नगरों, बाँधों और पुलों को अगणित मनुष्यों का स्वेद सरोवर लगाकर बनाया गया था और जिनमें प्रचुर साधन उपादान झोंके गये थे, वे जन-साधारण की आशा के केन्द्र थे। समझा जाता था कि इनकी छाया में अनेक व्यक्ति चिरकाल तक सुखद आश्रय प्राप्त करते हुए चैन के दिन गुजार सकेंगे, पर वह सारी आशा धूमिल हो गई। एक-एक टोकरी बारूद के कचरे से बनाये गये बम उन संस्थानों पर गिरे और देखते-देखते उन्हें धूलि में मिलाकर रख गये। इस प्रकार सृजन हारा और ध्वंस जीत गया।

गरमागरम लड़ाइयों में धड़ाके होते हैं, बारूद फटती है और लाशें छितराती फिरती हैं। मरने वालों के बाल बच्चे रुदन करते हैं। सम्पत्ति के भारी विनाश से उत्पन्न गरीबी, महंगाई, भुखमरी और बीमारी तरह-तरह की विपत्तियाँ ला खड़ी करती हैं और मनुष्य यह समझ पाते हैं कि युद्धोन्माद सस्ता है किन्तु युद्ध वस्तुतः महंगा है।

कहते हैं नशा पीने से सुस्ती दूर होती है और गम गलत होता है। फिर ऐसे काम ही क्यों किये जाएं जो सुस्ती और गम पैदा करें। भलमनसाहत का हलका-फुलका जीवन जिया जा सकता है और सुस्ती तथा गम उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से बचा जा सकता है। यदि ध्वंस के स्थान पर सृजन को नियोजित किया जाय और नशे के स्थान पर दूध उद्योग खड़ा कर दिया जाय तो हर व्यक्ति को एक किलो दूध हर रोज मिलता रह सके ऐसी व्यवस्था हो सकती है। साथ ही खाद, गोबर और बछड़ों से अनुत्पादक जमीन उपजाऊ बनाकर खाद्य समस्या सदा सर्वदा के लिए हल की जा सकती है।

मानवी बुद्धि के ध्वंस और सृजन का यह एक छोटा सा उदाहरण है कि वह युद्ध एवं नशे के नाम पर कितनी बड़ी बर्बादी करता और अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारता है।

कामुक उत्तेजना भड़काने के लिए जितना साहित्य लिखा और छापा जा रहा है-जितनी तस्वीरें बिक रही हैं, जितने गीत वाद्य-अभिनय और फिल्म चल रहे हैं उन सबके बनाने, प्रचारित करने और उपयोग करने में जितनी धन-शक्ति और जन-शक्ति लगती है उसका लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि यह उद्योग युद्ध और नशे की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं है। उसके दुष्परिणाम उन दोनों के सम्मिलित उपद्रव की अपेक्षा कहीं बढ़कर हैं। इस भड़की हुई उत्तेजना से लोग अपना शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य किस बुरी तरह नष्ट करते हुए खोखले बनते जा रहे हैं उसके निष्कर्षों का मूल्याँकन करने पर प्रतीत होता है कि यह मंद गति से सम्पन्न होने वाली आत्म-हत्या है। उसके सामाजिक दुष्परिणाम कितने भयानक होते हैं- गृहस्थ जीवन की शालीनता किस प्रकार नष्ट होती है, और पीढ़ियां किस प्रकार कुसंस्कारी बनती जाती हैं, इसका विवेचन सहज ही नहीं हो सकता। प्रकृति की एक सामान्य-सी क्रीड़ा को जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता के स्तर तक पहुँचा देना इसी बुद्धि चमत्कार का काम है जिसने कामुकता भड़काने के कुकृत्य को एक अच्छा खासा व्यवसाय बनाकर रख दिया है। तरह-तरह के शृंगार प्रसाधन इसी वर्ग में गिन लिए जाएं तब तो यह संसार का सर्व प्रथम उद्योग बन जायगा और प्रतीत होगा कि अन्न उत्पादन से भी अधिक शक्ति कामोत्तेजना भड़काने के लिए झोंक दी गई है।

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि ध्वंस में लगी हुई मानवी क्षमता को मोड़ दिया जाय और उसे सृजन के लिए लगा दिया जाय? क्या विनाश इतना आकर्षक है कि उसका प्रलोभन हम छोड़ ही नहीं सकते? क्या विकास इतना निरर्थक है कि उसकी ओर कुछ सोचने और कुछ करने की आवश्यकता ही अनुभव न की जाय?

अपराधी, अनाचारी और आतताई भी आखिर दुस्साहस तो करते ही हैं, जोखिम उठाते और प्रबल पुरुषार्थ का परिचय देते हैं। क्या वही साहसिकता, सृजनात्मक कार्यों में लगाये जाने पर अधिक स्थिर, अधिक सम्मानास्पद आजीविका प्रदान नहीं कर सकती। शत्रुता निवाहने में जितने दाँव लगाने और हारने पड़ते हैं उतने ही यदि मित्रता के नाम पर गँवा दिये जाएं तो निश्चय ही शत्रुता मित्रता में परिणत हो सकती।

रूठने पर कई तरह के आत्म-नियंत्रण करने पड़ते हैं और कई तरह की सुविधाएँ छोड़नी पड़ती हैं। यदि उतना ही त्याग स्वेच्छापूर्वक कर लिया जाय और अपनी सुविधाएँ दूसरों को दे दी जाएं तो वे परिस्थितियाँ ही उत्पन्न न होंगी जिनके कारण रूठना पड़े। ध्वंस भी सस्ता नहीं है। उसका महँगापन सृजन में लगने वाली शक्ति की तुलना में कहीं अधिक है यदि यह समझा जा सके तो किसी की भी आँखें खुल सकती हैं और सृजन प्रयोजनों को अपनाने में बुद्धिमता प्रतीत हो सकती है।

व्यक्तिगत जीवन में भी हमारा यही हाल है। कुढ़ने, कोसने और कुड़कुड़ाने में न जाने कितना चिन्तन लगा रहता है। ईर्ष्या, द्वेष, निराशा, चिन्ता, भय, आशंका और आवेश के क्षणों में हमारा रक्त और मस्तिष्क भट्टी में पड़ी लकड़ियों की तरह जलता रहता है। दूसरों को नीचा दिखाने और बदला लेने में कितने उत्साहपूर्वक दिलचस्पी ली जाती है। आलस्य, प्रमाद और दुर्व्यसनों में कितना अपव्यय होता है। यदि इस सबको बचाया जा सके और क्रमबद्ध रूप से उन्हें रचनात्मक, सृजनात्मक प्रयोजनों में जुटाया जा सके तो इसका सत्परिणाम देखते ही बनेगा। सामान्य मनुष्य असामान्य बन जायगा और अवगति में पड़ा हुआ प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचा हुआ दिखाई देगा।

हमें कुछ नया पाने और कमाने का प्रयत्न करने से भी पहले यह सोचना चाहिए कि क्या ध्वंस में नियोजित शक्तियों को उलट कर सृजन में लगाया जा सकता है? क्या यह कार्य कुछ बहुत कठिन है? नहीं यह सरल है और विवेकपूर्ण भी। मनुष्य की चमत्कारी बुद्धि यदि एक बार ऐसी करवट ले सके और ध्वंस रुचि को सृजन प्रयोजन में लगा सके तो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के इन्हीं वर्तमान साधनों से धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सकता है। आज के हम नर-पशु कल नर-नारायण की भूमिका निवाहते हुए दृष्टिगोचर हो सकते हैं।


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