योग का वामाचारी प्रयोग रोका जाय

June 1976

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योग के दो पक्ष हैं, एक उत्कृष्ट-चिन्तन, उज्ज्वल-चरित्र और आदर्श-कर्तृत्व। दूसरा पक्ष है- मानवी काया और चेतना में छिपी रहस्यमय शक्तियों का जागरण और उसका चमत्कारी उपयोग। भूतकाल में दोनों ही पक्षों पर समान रूप से ध्यान दिया जाता था। अतएव योगदर्शन और योग साधन की समन्वयात्मक प्रक्रिया जन साधारण को आत्मिक और भौतिक क्षेत्र में सर्वतोमुखी उत्कर्ष की सम्भावनाएँ उत्पन्न करती थीं।

दुर्भाग्यवश योग के चमत्कार पक्ष को अधिक महत्व दिया गया और दार्शनिक उत्कृष्ट चिन्तन की उपेक्षा की जाने लगी। फलतः योग का स्वरूप धीरे−धीरे जादू जैसा बनने लगा उसे इच्छा शक्ति के चमत्कार क्षेत्र को कौतूहल भरी सफलताओं की परिधि में सीमित रहना पड़ा। योग सिद्धि और चमत्कार प्रदर्शन लगभग पारिभाषिक शब्द बन गये। इस स्तर की योग साधना भारत में वाम मार्ग कहलाई और पाश्चात्य देशों में उसे मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म, ऑकल्ट साइन्स, टेलीपैथी आदि नाम दिये गये। पाश्चात्य लोगों का योग संकल्पबल मनोबल और इच्छा शक्ति के अभिवर्धन तक सीमित रहा जबकि भारतीय वामाचार में अमुक देवी देवताओं की सहायता से साँसारिक सफलताओं को प्राप्त करने वाली बात भी सम्मिलित थी।

योग का वामाचार पक्ष यह मानता है कि सूक्ष्म जगत में अनेक दैवी-दानवी सत्ताएँ विद्यमान हैं। उन्हें अमुक विधि-विधान की साधना द्वारा वशवर्ती किया जा सकता है और उनसे इच्छानुसार लाभ प्राप्त करने में सहयोग लिया जा सकता है। योगिनी, कर्ण पिशाची, भक्षणी, भैरवी, बगलामुखी, छिन्नमस्ता, चामुण्डा, भद्रकाली आदि देवियाँ और भैरव, वेताल, वीरभद्र, महाकाल, चण्ड, रुद्र जैसे देवता वाम-मार्ग में विशेष रूप से उपास्य हैं। यह पद्धति योरोप में भी पहुँची उन्होंने विधि विधान में तो मद्य-मत्स्य-माँस, मुद्रा, मैथुन जैसी कौल प्रवृत्तियों को थोड़े हेर-फेर के साथ अपना लिया, पर अनेक आकृति−प्रकृति वाले तान्त्रिक देवी−देवताओं के स्थान पर एक महा असुर को ही प्रतिष्ठापित किया। ईसाई धर्म के अनुसार ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी महादानव का नाम ‘शैतान’ है। पश्चिमी वाम मार्ग में शैतान पूजा की प्रधानता है।

चिर अतीत में योग पर सर्वत्र बहुत विश्वास था। मध्य काल में वैज्ञानिक प्रतिपादनों के आधार पर नास्तिकवाद पनपा तो योग संदर्भ में भी उपेक्षा आई। अब एक से बढ़ बढ़कर आध्यात्मिक शक्तियों और उपलब्धियों के चमत्कार सामने आ रहे हैं इसलिए सहज ही योग साधना के प्रति भी विश्व व्यापी उत्साह का पुनर्जागरण हुआ है। इस विषय की चर्चा खूब है और साधना के भी उलटे सीधे प्रयोग नई उमंगों के साथ चल रहे हैं। इन दिनों वामाचार पाश्चात्य देशों में जिस तेजी से पनपा है उसे देखते हुए आश्चर्य होता है कि वहाँ भूतकाल में भारत में छाये हुए तंत्र युग को भी पीछे छोड़ देने वाला उत्साह उमड़ने लगा है।

इन दिनों वाममार्गी तन्त्र साधनाओं का प्रचलन अब पाश्चात्य देशों में तेजी के साथ हो रहा है। अमेरिका और इंग्लैंड में इस प्रकार के साधन-रत लोगों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है। वहाँ उसे “शैतान सिद्धि” का नाम दिया जाता है। अघोरी तथा कापालिकों जैसी क्रियाएँ की जाती हैं और आशा की जाती है कि इस प्रकार वे भौतिक लाभ की चमत्कारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त कर सकेंगे।

आदिम युग का इतिहास जादू-टोने और मन्त्र-तन्त्र की मान्यताओं से भरा पड़ा है। योग की अपेक्षा तन्त्र पुराना है।

तेरहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी तक तन्त्र साधना का विस्तार विश्व-व्यापी उत्साह के साथ हुआ है। इस अवधि में वामाचार के अनेक सम्प्रदाय प्रकट हुए और अनेक ग्रन्थ रच गये। 17 वीं सदी में फ्राँस के शासक 14 वें लुई के जीवन वृत्तान्त में उसकी एक ऐसी प्रेमिका का विस्तृत वर्णन है जो काला जादू जानती थी और शासन सूत्र में अपने इशारों से भारी उलट-पुलट प्रस्तुत करती थी। काला जादू अभी भी पाश्चात्य देशों में ब्लैक मास के नाम से प्रसिद्ध है। इसी साधना का प्रधान उपचार यह है कि मनुष्य आकृति का क्रूस बनाकर उसे उलट दिया जाता है और उस पर एक युवती को नग्न करके लिटाया जाता है। फिर उसके अंगों को मद्य, माँस केक आदि के मधुपर्क से पूजा जाता है और नृत्य, वाद्य का कीर्तन जैसा अभिचार चलता है। यह सामान्य विधान हुआ। विशेष उपचार इसके अतिरिक्त है जिनमें ऐसे कृत्यों का आश्रय लिया जाता है जो सामान्य तथा अश्लील या असभ्य माने जाते हैं। अपने अघोरी कापालिक भी ऐसी ही वीभत्स रीति-नीति अपनाते रहते हैं।

शिकागो जैसे सुसंस्कृत समझे जाने वाले नगर की एक तिहाई जनता किसी न किसी प्रकार वामाचार पंथ के साथ अपने को सम्बद्ध कर चली है। इन लोगों में ऊँचे अधिकारी, विद्वान और सुसम्पन्न वर्ग से लेकर मध्य तथा छोटे वर्ग के लोग समान उत्साह के साथ सम्मिलित हो रहे हैं। अमेरिका के हर पुस्तक भण्डार में ढेरों पुस्तकें इस विषय में मिल जायेंगी। उनकी बिक्री भी खूब होती है। विलियम ब्लेटी की ‘दि एक्सारसिस्ट’ पुस्तक ने तो भारी लोकप्रियता प्राप्त की है। तन्त्र उपचार की पत्रिका ‘दि ऑकल्ट ट्रेड जनरल’ की ग्राहक संख्या अत्यन्त द्रुतगति से बढ़ी है। उसमें छपने वाले लेखों ने न केवल शैतान सिद्धि के प्रति जनता में आकर्षण उत्पन्न किया है बल्कि शैतान संस्कृति को मानव जीवन की सफलता के लिए आवश्यक बताना भी जारी रखा है। शैतान संस्कृति अब एक नई जीवन नीति के रूप में सामने आई है जिसमें उचित अनुचित के झंझट के ऊपर उठकर किसी भी तरह शक्ति का उपार्जन और उपभोग करने का पक्ष समर्थन किया गया है। इस संदर्भ में कितने ही विद्यालय खुले हैं और खुलते जा रहे हैं। पिछले दिनों इस आन्दोलन को अधिक अच्छी तरह समझाने के लिए तीन फिल्में बनी हैं (1) रोज मरीज वेवी (2) दि पजेशन ऑफ जील डेलने (3) दि अदर। यह तीनों फिल्में असाधारण रूप से सफल हुई हैं। इन्हें देखने के लिए सिनेमा घर में हफ्तों पहले रिजर्वेशन कराना पड़ता है।

फ्राँस, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली आदि में शैतान संस्कृति के अनेकों केन्द्र खुले हैं। एक देश के निवासी दूसरे देश में चल रही गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करके अधिक लाभ उठा सकें इस दृष्टि से वायुयान तीर्थयात्रा के लिए स्पेशल उड़ानें होती हैं। इसका आधा खर्च यात्रियों को देना पड़ता है। और आधा अमेरिका की शैतान सोसाइटी उठाती है। शैतान संस्कृति महाविद्यालय प्रायः सभी देशों में खुल चुके हैं। अकेले जर्मनी में वामाचारी सदस्यों की संख्या 30 लाख है। इस बढ़ते उत्साह से ईसाई धर्माचार्यों में भारी खलबली है। इंग्लैंड के रोमन कैथोलिक चर्च ने अपने अधीनस्थ पादरियों से कहा है कि वे इस बढ़ती हुई अधार्मिकता को रोकने के लिए पूरा पूरा प्रयत्न करें।

भारत में जब वामाचार के नाम पर योगदर्शन के मूल सिद्धान्तों के विपरीत आसुरी शक्तियों की साधना पनपी थी तो उसके दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए विज्ञ मनीषियों ने उसे निरस्त किया था। भगवान बुद्ध जब जन्मे तब उन्होंने अपने चारों ओर हिंसावादी तन्त्राचार पनपता पाया उन्होंने उसके विरुद्ध क्रान्तिकारी प्रतिरोध प्रस्तुत किया। बुद्धदर्शन इसी प्रतिरोधात्मक विचार क्रान्ति का नाम है। भगवान महावीर जी उन्हीं दिनों जन्मे उन्होंने भी जैन दर्शन की अहिंसावादी आस्था की जड़ जमाई और असुरता समर्थक वाम मार्ग को उखाड़ा। इस संदर्भ में भगवान शंकराचार्य के प्रयत्न भी कम सराहनीय नहीं हैं।

योग विज्ञान का आविष्कार कर्ता होने वाले के नाते भारत का यह विशेष दायित्व है कि इस महाविद्या का उपयोग जब अवाँछनीय प्रयोजनों के लिए होने लगे तो उसके विरुद्ध कदम उठाये। भ्रान्तियों का निवारण करे और अनुपयुक्त योगसाधना के दुष्परिणामों के विरुद्ध उस मार्ग के पथिकों को सचेत करे। भारत में समय समय पर इस प्रकार की विकृतियों के उभार को निरस्त किया जाता रहा है तो क्यों नहीं हमें आगे बढ़कर विदेशों में फैलने वाली उस योग विकृति का निराकरण करना चाहिए।

योग एवं अध्यात्म का सही स्वरूप न समझने न समझाने की उपेक्षा ने ही इस अत्यन्त उपयोगी विज्ञान को ऐसी स्थिति में ला पटका है जिसमें तात्कालिक लाभ थोड़ा सा भले ही होता हो अन्ततः उसमें हानि ही हानि है। यह विश्व को समझना चाहिए कि योग साधना का वास्तविक लाभ तभी उठाया जा सकता है जब उसके साथ अध्यात्मवादी योग दर्शन भी जुड़ा हुआ हो। इस शिक्षण को विश्व व्यापी बनाने की आज भारत की विशेष जिम्मेदारी है- योग विज्ञान के आविष्कर्ता और प्रसारकर्ता होने के नाते।


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