प्रसन्नता स्वयं सिद्ध उपलब्धि

June 1976

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संजीवनी विद्या के प्रख्यात उपदेशक ने एक स्थान पर लिखा है- ‘मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूँ जिसकी आय पहले बहुत थोड़ी थी फिर भी वह सुख-शान्ति का जीवन व्यतीत करता था। एक बार उस परिवार को अचानक बिना परिश्रम का बहुत सारा धन मिल गया। होना तो यह चाहिए था कि इससे उनका जीवन और अधिक सुख-सुविधापूर्ण बन जाता, पर हुआ इसका उल्टा ही। उनका जीवन एकदम बदल गया और वे लोग ‘और’ ‘अधिक’ सुख-भोग की लालसा करने लगे। अब वे अधिक कीमती और भड़कीले, चटखदार कपड़े पहनने लगे, अपने से ज्यादा सम्पत्तिवानों से मेल-जोल बढ़ाने लगे तथा साथ ही साथ उनसे ईर्ष्या भी करने लगे, थोड़े दिनों बाद उस परिवार की सारी सम्पत्ति राजसी ठाट-बाटों में लग गई। कर्जे का बोझ बढ़ने लगा और उनके पास जो कुछ भी था वह सब स्वाहा हो गया। बाद में यह भी हुआ कि माँ ने अपनी लड़कियों के सम्बन्ध ऊँचे खानदानों में करने के लिए कपड़े वालों, दर्जियों, जौहरियों और दुकानदारों के बड़े-बड़े बिलों का भार बढ़ा लिया और मैंने सुना है कि अब उन बोझों से मुक्त होने के लिए उन लोगों के हाथ से उनका घर भी चला गया।

उपरोक्त उदाहरण किसी एकाध व्यक्ति से सम्बन्ध रखता हो, ऐसी बात नहीं है। आधे से अधिक धनाढ्य जिन्हें नव-धनाढ्य कहा जाता है, इस प्रकार की घटनाक्रमों का शिकार होते हैं। व्यक्ति चाहे गरीब हो या अमीर, कंगाल हो या सम्राट, मूर्ख हो या विद्वान एक ही उद्देश्य से कर्मशील रहता है और वह उद्देश्य है-सुख-शान्ति। सुख-शान्ति का ही समानार्थी शब्द है प्रसन्नता। सुख के सम्बन्ध में यह मान लेने का भ्रम भी रहता है कि कई लोग इस शब्द का अर्थ साधनों और सुविधाओं की बढ़ोतरी भी लगाते हैं; जब कि इसी शब्द के साथ जुड़ा हुआ शान्ति शब्द इसके अर्थ को स्पष्ट कर देता है- प्रसन्नता या आनन्द। प्रसन्नता का विचार उठते ही मन में एक ऐसा कल्पना चित्र बनता है जिसमें अपने आस-पास दुःखी या क्षुब्ध करने का कोई कारण न रहता हो।

संसार में साधन सम्पन्न और धनवान व्यक्तियों की कमी नहीं है, परन्तु उन्हें भी आह्लाद पूर्ण स्थिति में शायद ही कभी देखा जाता हो। कहा जाता है कि विपुल साधनों की बाढ़ व्यक्ति को उतना ही शंकालु और चिन्ताग्रस्त बनाती है; तो फिर क्या कारण है कि सुख-साधनों की प्रचुरता के बाद भी व्यक्ति का अन्तःकरण क्षुब्ध और चिन्तित ही बना रहता है। यही नहीं इसके विपरीत आकस्मिक प्राप्त हुई सम्पन्नता और भी अधिक संत्रासपूर्ण सिद्ध होती है।

यहाँ प्रसन्नता के स्वरूप को स्पष्ट समझ लेना आवश्यक है। प्रसिद्ध विचारक हैनरी ड्रुमैण्ड ने लिखा है- ‘संसार में आधे से अधिक लोग प्रसन्नता की खोज ठीक ढंग से नहीं करते। उनके विचार में प्रसन्नता दूसरों द्वारा दी गई सुख-सुविधाओं के उपयोग करने में है; जबकि सच्चाई यह है कि प्रसन्नता दूसरों को देने और उनका उपकार करने में ही है।’

प्रसन्नता की खोज में व्यस्त किन्तु प्रसन्नता से उतनी ही दूर व्यक्तियों के लिए एक विचारक के ये शब्द गुरु मन्त्र की तरह हैं-“प्रसन्नता तो मनुष्य की परछांई की तरह है। हम इसके पीछे जितने भागते हैं उतनी ही यह हमसे दूर हो जाती है और जैसे ही खड़े रहकर हम अपने आस-पास देखते हैं तो यह हमें अपने पैरों में ही खड़ी मिल जाती है।” वस्तुतः प्रसन्नता कोई बाहरी साधनों या परिस्थितियों द्वारा प्राप्त होने वाली चीज नहीं है। वह हमारे अन्तःकरण में ही है और हमें नित्य उपलब्ध है तथा अपनी मनःस्थिति को तदनुकूल बना लेने पर तत्काल उसके दर्शन होते हैं।

इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि प्रसन्नता की अनुभूति मन में ही होती है, जब कि सुख-सुविधाओं की पहुँच देह के बाह्य और भीतरी अंगों तक ही है। स्थूल वस्तुएं स्थूल वस्तुओं से सम्पर्क स्थापित कर लें- यह तो सम्भव है, परन्तु स्थूल चीजें सूक्ष्म तत्वों को प्रभावित कर सकें यह कैसे सम्भव है। उदाहरण के लिए प्रकाश को ही लिया जाय, दृष्ट वस्तुओं में प्रकाश सबसे सूक्ष्म है, हवा की गणना भी उस रूप में की जा सकती है। प्रकाश को बींधने या हवा को छेदने का काम किसी लोहे के भाले या बन्दूक की गोली से नहीं किया जा सकता। स्थूल दीवार उनका आना-जाना भले ही रोक दे, उनमें अवरोध जरूर उत्पन्न कर दे, परन्तु उनके स्वरूप को प्रभावित नहीं कर सकती। उसी प्रकार बाहरी सुख साधन प्रसन्नता या आह्लाद की अनुभूति में व्यवधान तो खड़े कर सकते हैं, परन्तु उसे अर्जित नहीं करा पाते।

आमतौर पर लोग प्रसन्नता को धन से खरीदी जाने वाली वस्तु मान बैठते हैं वे समझते हैं कि हमारे पास अधिक धन होगा, अधिक वस्तुएं होंगी और अधिक साधन होंगे तो हमें अधिकतम प्रसन्नता का आनन्द मिल सकता है। प्रसन्नता जबकि मनो जगत से सम्बन्धित उपलब्धि है और उसकी क्षुधा मनःस्थिति के स्तर पर ही तृप्त की जा सकती है तो परिस्थितियों का परिवर्तन उस क्षुधा को कैसे तृप्त कर सकता है। परिस्थितियों का परिवर्तन कुछ समय के लिए मादक द्रव्यों के सेवन की तरह थोड़ी बहुत मूर्च्छा जरूर ला दे और आनन्द का भ्रम भले ही उत्पन्न कर दे लेकिन उससे वास्तविक प्रयोजन की पूर्ति नहीं होती। प्यासा व्यक्ति यह सोचे कि सोड़ावाटर, आइसक्रीम, ठंडी चाय या कॉफी उसकी प्यास बुझा दे तो कुछ समय के लिए वह अपने को बहला भले ही ले, शीतल जल से जो तृषा तृप्ति हो सकती है वह इन महंगे साधनों द्वारा हो पाना असम्भव है। प्रसन्नता को भी प्यास की तरह समझा जा सकता है और उसे बुझाने में केवल उसी स्तर का जल आवश्यक है न कि सुख-साधनों का अम्बार।

मन के स्तर का शीतल जल है जीवन के प्रति सुलझा हुआ दृष्टिकोण। शरीर के लिए श्वास जितनी आवश्यक है उसी अनुपात में प्रकृति ने हवा का सागर जितना व्यापक लहराया है उतना ही व्यापक और सदा उपलब्ध है; प्रकृति की प्रेरणाओं का वह स्वस्थ दृष्टिकोण लेकिन कोई व्यक्ति नाक और मुँह बन्द कर दम घुटा जा रहा है चिल्लाये तो उसे क्या कहा जाय? प्रसन्नता हमारे लिए जितनी आवश्यक है उसकी पूर्ति के लिए स्वस्थ दृष्टिकोण भी हमारे चित्त में उतना ही सम्भव है। परन्तु कदम-कदम पर दुःखों का रोना रोने वाले व्यक्ति को भी नाक-मुँह बन्द कर हवा के मारे दम घुटा कहने वाले व्यक्ति की श्रेणी में रखा जा सकता है।

प्रसन्नता रूपी दैवी वरदान के लिए जो स्वयं प्राप्त होता है न तो अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता पड़ती है और न ही सुख सुविधाओं के अम्बार लगाने की। स्वच्छ जल के लिए जिस प्रकार किसी काई जमे पानी को हाथों से थोड़ा हिलाना-डुलाना पड़ता है, उसी प्रकार अपने विचारों, अपनी मान्यताओं, आस्थाओं और विश्वासों में थोड़े फेर बदल की आवश्यकता रहती है। किन विचारों और मान्यताओं को निरस्त करना है तथा किस दृष्टिकोण का विकास आवश्यक है; यह तभी समझा जा सकता है जब हम अपने स्वभाव प्रसन्नता पर जमी काई को थोड़ा जान लें।

जो लोग परिस्थितियों और अभावों को लेकर अप्रसन्न-नाखुश हैं, खिन्न हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि वे कौन सी बातें हैं जो हमारे स्वभाव को आवृत्त किये हुए हैं। संसार में अधिकाँश लोगों की अप्रसन्नता का कारण यह है- उनमें से कई दूसरों से ईर्ष्या और अपने पर असन्तोष करते हैं। ऐसी प्रवृत्ति तभी उत्पन्न होती है जब व्यक्ति यह समझ ले कि प्रसन्नता आन्तरिक अनुभूति है और उसे बाहरी साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इस भ्रम से जितनी जल्दी हो मुक्त हुआ जा सके कि प्रसन्नता भौतिक साधनों से खरीदी जा सकती है, उतना ही शीघ्र प्रसन्नता को आवृत्त भर रखने वाली हटाया जा सकता है। यह विचार रखने वाले उस अबोध बालक की तरह हैं जो एक टीले पर बनी झोंपड़ी में बैठकर दूर बने एक मकान को सुनहरा महल समझ रहा है और उसे देखने के लिए वहाँ तक दौड़ा गया। पास जाकर जब उसने देखा तो वहाँ न महल था और न सुनहरी चमक वरन् थी वैसी ही झोंपड़ी जैसी कि उसकी अपनी मडैया थी और उस स्थान से जब उसने अपनी झोंपड़ी को देखा तो सूर्य की किरणों से वह भी वैसी ही सुनहरी चमक रही थी।

प्रसन्नता की खोज में इसी प्रकार की मृग-तृष्णा के पीछे दौड़ने वाले लोगों को एक विचारक ने नासमझ रेगिस्तानी मृग कहा है और लिखा है- ‘हमें सदैव दूर के भवन ही बुलाते हैं। जीवन की सुन्दरता और प्रसन्नता हमें सदा उसी धरती पर दिखाई देती है जहाँ हम आज नहीं हैं।’ ठीक भी है-अभी पिछले वर्ष जब मनुष्य ने चन्द्रमा की यात्रा की और वहाँ से पृथ्वी की ओर देखा तो उन्हें पृथ्वी उससे भी कहीं अधिक आभामय दिखाई दी। वास्तविकता क्या है-यह कोई नहीं कह सकता, पर इतना सच है कि दूर के ढोल हमेशा सुहाने दिखाई देते हैं और हम उन्हें पाने के लिए दौड़ पड़ते हैं।

दूसरों से ईर्ष्या करने और अपने वर्तमान से असंतुष्ट रहने का कारण भी यही है। औरों के पास जब हम अपने से अधिक धन, सम्पत्ति देखते हैं, उन्हें अपने से अच्छी स्थिति में पाते हैं तो हम यह समझने लगते हैं कि यह व्यक्ति या परिवार हमसे अधिक सुखी है, शान्त है, जबकि वह भी अपने से अच्छी स्थिति वाले व्यक्ति को सुखी प्रसन्न अनुभव करता है और उस जैसा बनने की दौड़ लगाने लगता है। यह दौड़ तब तक चलती रहती है जब तक कि जीवन अभिनय का पटाक्षेप न हो जाए और यही नहीं जो लोग प्रसन्नता को आन्तरिक अनुभूति होने के सिद्धान्त का प्रयास करते हैं-वे भी यह दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहते। ऐसे व्यक्ति को क्या सम्बोधन दिया जाय?

इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि प्रचार किसी भी विचार का किया जाय, परन्तु जब तक वह आस्था के रूप में अन्तःकरण में गहराई तक पैठ न जाय तब तक उसके जीवन और व्यक्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं होता।

आस्थाओं और मान्यताओं में, अपने दृष्टिकोण और रीति-नीति में जब तक इस आदर्श की प्रतिष्ठा न की जाय तब तक न तो दूसरों से ईर्ष्या करना बन्द हो सकता है और न अपने से असन्तोष रखने की प्रवृत्ति से छुटकारा मिलता है। ये दोनों वृत्तियाँ ही परस्पर पूरक हैं और विकृतियाँ हैं। इनका निष्कासन तभी सम्भव है जब हम यह मानने आचरण करने लगें कि-प्रसन्नता, शान्ति, आनन्द हमारा स्वभाव है, प्रभु की अनन्त अनुकम्पा का उपकार है, दैवीय वरदान है जो अनायास ही हमें प्राप्त है और केवल उस पर आवरण भर पड़ा है जिसे अनावृत्त करने से उसके दर्शन किये जा सकें।

प्रकृति ने हमारे लिए हवा, पानी की तरह ही हमें वे वस्तुएं सुलभ करा दी हैं जो हमें स्वास्थ्य, सौन्दर्य, शान्ति और आनन्द देते रहते हैं। अपने दृष्टिकोण को जरा बदल भर लें-परिष्कृत कर लें तो सूर्य का उगना, पेड़-पौधों का हवा में नाचना, चिड़ियों का चहकना और पक्षियों का कूकना, फलों का महकना और हवा का बहना हमें नित्य प्रसन्न रख सकता है।


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