चेतना की प्रगति का महत्व समझा जाय।

July 1976

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सृष्टि में जीवन का इतिहास जल पर छाई हुई ‘काई’ तथा जल-थल पर विभिन्न आकृतियों में पाई जाने वाली घास से आरम्भ होता है। उसी ने प्रगति करते हुए इच्छा, ज्ञान और कर्म की विशेषताओं से युक्त जीवधारी का रूप ग्रहण किया है और फिर अमीबा से लेकर मनुष्य तक असंख्य वर्ग के प्राणधारी उत्पन्न होते और क्रमश: आगे बढ़ते चले गये हैं।

अपने युग में मनुष्य ने अपनी सफलताओं पर गर्वोन्मत्त होकर प्राणी पर लगे हुए प्रकृति के अंकुश की अवहेलना आरम्भ करके स्वेच्छाचार अपनाने की उद्धतता दिखाई है। फलतः उसे पत्थर से सिर टकराने पर चोट लगने की तरह कई प्रकार की आपत्तियों का सामना करना पड़ा और उलझनों में जकड़ना पड़ा है। यह सामयिक उद्दण्डता और प्रताड़ना की एक झलक कही जा सकती है ओर उसे अस्थायी माना जा सकता है भूलें सुधारते-सुधारते ही मनुष्य आगे बढ़ा है। मानवोचित शालीनता की अवज्ञा करने पर किस प्रकार का प्रतिफल भुगतना पड़ता है-नियति की पाठशाला में यह पाठ इन दिनों पढ़ना पड़ रहा है और उलटी राह चलना कितना महंगा पड़ता है, यह समय की प्रयोगशाला में भली प्रकार सीखा जा रहा है। भविष्य आशाजनक है। ठोकर खाकर सम्भलने-भूलों को सुधारने और भटकाव को बदलने में मनुष्य कुशल रहा है। अपने समय में भी वह कुशलता प्रखर हो रही है। युग-परिवर्तन के लिए चल रहा प्रचण्ड अभियान इसी सुधार प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। हमें मरना नहीं जीना अभीष्ट है। हमें पतन नहीं उत्थान चाहिए। अस्तु सृष्टि के आदि से लेकर अब तक सुधार प्रक्रिया का चलता आ रहा क्रम अब भी जारी है और भविष्य में भी जारी रहेगा। ये सुनिश्चित है कि अपने समय में जो दुष्प्रवृत्तियाँ और दुर्भावनाएँ हर दृष्टि से घातक सिद्ध हो रही हैं उन्हें अगले दिनों बदल ही लिया जायगा। युग-परिवर्तन अभियान की सफलता का श्रेय किन्हीं पर भी क्यों न बरस पड़े? असल में वह मानवी सत्ता की चिर अभ्यस्त प्रक्रिया ही है जिसके अनुसार भूल सुधारों का क्रम अनवरत गति से होता चलता आया है और भविष्य में इसी प्रकार चलता रहेगा।

यह तो सामयिक प्रसंग और भूल सुधार के सनातन क्रम का उल्लेख मात्र है। यहाँ चर्चा उस प्रगति क्रम की होनी है जो सृष्टि के आदि काल से चलता आ रहा है और जिसने शिक्षा, चिकित्सा, उत्पादन, व्यवसाय, विज्ञान, समाज, शासन आदि के अनेकानेक सुविधा साधनों का पथ-प्रशस्त किया है। इस विकास-क्रम में जीवात्मा के चरण आगे ही आगे बढ़े हैं। भविष्य में और भी द्रुतगति से बढ़ेंगे क्योंकि अतीत में जितने साधन थे अब उसकी तुलना में असंख्य गुने अधिक बढ़ गये हैं। बैलगाड़ी की तुलना में मोटर अपेक्षाकृत अधिक जल्दी लम्बा सफर पूरा करा देती है। आज के मनुष्य को अधिक साधन उपलब्ध हैं अस्तु उसकी प्रगति यात्रा भी अधिक तेजी से बढ़ेगी-यह भी निश्चित है।

विज्ञान, अर्थ-व्यवस्था, शिक्षा, चिकित्सा, अन्तरिक्ष, पाताल के क्षेत्रों में नित नये आविष्कारों से यह स्पष्ट है कि मनुष्य के हाथ में वे साधन लग रहे हैं जो भूतकाल में उपलब्ध नहीं हैं। इसका उपयोग भौतिक शक्ति और सम्पन्नता प्राप्त करने के लिए हो रहा है। अधिपति अपने साधनों का मनमाना उपयोग करते रहे हैं। अब भी वह हो रहा है। पर अगले दिनों जन-चेतना के दबाव से उनका उपयोग सर्वजनीन स्तर पर होने लगेगा। समाजवाद जैसी प्रवृत्तियां इसके लिए प्रयत्नशील भर हैं। अगले दिनों भौतिक साधनों की वृद्धि होगी और एकाधिकार को लोकहित के लिए विकेन्द्रित करने के लिए भी प्रयत्न होंगे। इन दिनों अभिनव उपलब्धियों का उपयोग निहित स्वार्थों के लिए होता देखकर चिन्ता होनी स्वाभाविक है, पर तत्वदर्शी निश्चित हैं कि अवाँछनीयता देर तक स्थिर न रह सकेगी। विवेक का सूर्य उगेगा और सद्भावना के वातावरण में सत्प्रवृत्तियाँ पनपती दिखाई देंगी और भौतिक क्षेत्र में भी मनुष्य अन्ततः क्रमिक प्रगति करते-करते स्वर्गीय सुख-सुविधाओं का लाभ प्राप्त करेगा। उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएं मूर्तिमान करने के लिए यदि प्रबुद्ध वर्ग सच्चे मन से प्रयत्न करे तो वह बिना कठिनाई और बिना देरी के निकट आ सकता है। यदि इस दिशा में मूर्धन्य व्यक्ति अपना कर्त्तव्य नहीं भी निबाहें तो भी देर-सवेर में स्थिति आ ही जायगी, जिससे अपूर्णता से पूर्णता की ओर चलने का-जड़ चेतन पर लागू होने वाला प्रगति क्रम सनातन धर्म सही सिद्ध हो सके। प्रश्न केवल देरी-जल्दी और कठिनाई-सरलता का है। युग पुरुषों की भूमिका इसी क्रम में सरलता उत्पन्न करती है अन्यथा उसे किसी प्रकार तो सृष्टि अन्तराल में काम कर रही प्रगति चेतना अपने ढंग से भी पूरी कर लेती है। विश्व मानव का समष्टि विवेक अनादि काल से प्रगति के पथ की ओर इस सृष्टि को धकेलता चला आया है और तब तक वह क्रम चलता ही रहेगा जब तक कि एक को बहुत में बखेरने वाला सृष्टा-बहुत को एक में समेट नहीं लेता।

यह बहिरंग प्रगति के संदर्भ में पर्यवेक्षण हुआ। अब चेतना की अन्तरंग स्थिति के सम्बन्ध में दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। वास्तविक प्रगति तो चेतना की ही होती है। उसका स्तर जितना विकसित होता है उसी अनुपात में भौतिक पदार्थों का अधिक मात्रा में अधिक उच्चस्तरीय उत्पादन एवं उपभोग सम्भव होता है। नर-पशु दाम्पत्य-जीवन में मात्र यौन उत्तेजना के कुछ क्षणों का ही थोड़ा-सा लाभ पाते हैं, पर भावुक सम्वेदना-सौन्दर्य दृष्टि-कलात्मक सहयोग का समावेश हो जाने से उस मिलन की सरसता अत्यधिक उच्च स्तर की बन जाती है। इस अन्तर में जननेन्द्रियों की नहीं, अन्तः विकास की गरिमा ही काम करती है। इसके रहते पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करते हुए भी उस काम-क्रीड़ा का आनन्द लिया जा सकता है जिसमें सामान्य रूप से घिनौनी काम लिप्सा भी मोक्ष, धर्म, अर्थ की तरह ही सरस और सुखद बन जाती है। यह चेतना के विकास का प्रमाण है। चेतना की प्रगति सत्यं शिवं सुन्दरं के रूप में दृष्टिगोचर होती है। उससे शत्-चित आनंद की दिव्य अनुभूतियाँ सम्भव होती हैं और स्वल्प साधनों से भी स्वर्गीय आनन्द को अपनी इसी धरती पर प्राप्त कर सकना सम्भव होता है।

दृश्यमान आकर्षण को तो चमड़े की आँख से भी देखा, जाना जा सकता है उसे तो अर्ध विक्षिप्त तक परखने ओर अपनाने में कुशल होते हैं। इन्द्रिय अपने-अपने विषय में प्रशिक्षित और अभ्यस्त होती हैं वे रुचिकर और अरुचिकर का भेद सहज ही बता देती हैं। सुन्दर और असुन्दर खिलौने और कपड़े तो छोटे बच्चे भी जानते हैं तथा ललचाते हैं। चेतना की सौन्दर्य दृष्टि इससे गहरी होती है उसकी परख की कसौटी भिन्न स्तर की रहती है। अन्तरंग की पवित्रता और शालीनता के आधार पर जो श्रद्धासिक्त पुलकन उठती है उसमें सौन्दर्य का वह तत्व रहता है जिसके लिए अध्यात्म में ‘सुन्दरम्’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह परख आँखों से आगे की है। इसमें स्थिति को नहीं स्तर को प्रधानता मिलती है। इसलिए विकसित चेतना ही इस सुन्दरम् को दृश्य के पीछे अदृश्य को ढूँढ़ पाने में समर्थ होती है। आँखें तो इस सम्बन्ध में धोखा ही धोखा खाती हैं। उनके द्वारा तो नकली और असली हीरे तक के और वेश्या तथा साध्वी तक के बीच किसे प्रधानता दी जाय यह निर्णय भी करते नहीं बनता।

शिवं-कल्याण कहाँ है? किसमें है? सत्यं-का आधार क्या हो सकता है? इसका निर्णय करने में भोंथरी चेतना प्रायः असमर्थ रहती है। श्रेय और प्रेय के बीच का चुनाव करने का जब अवसर आता है तो पिछड़ी हुई चेतना आमतौर से ‘प्रेय’ को ही चुनती है। लोग उपभोग के लिए आतुर है। उपयोग की बात कौन सोचता है? आज का अभी लाभ प्राप्त करने के लिए आमतौर से लोग भविष्य को अन्धकारमय बनाने और भयंकर दुष्परिणाम सहने की भूल करते रहते हैं। उतनी दूरदर्शी विवेक दृष्टि कितनों में होती है कि बीज बोकर वृक्ष के फलने तक उसे सींचने, सम्भालने का माली जैसा धैर्य धारण किये रह सकें। शहद पर टूट पड़ने और पंख लिपट जाने पर तड़प कर प्राण देने वाली मक्खी का उदाहरण ही आम लोगों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। बड़प्पन छोड़कर महानता अपनाने के लिए किसका जी करता है। मद्य छोड़कर पय-पान करने में किसे अभिरुचि है? यह अन्त: चेतना का पिछड़ापन ही है जिसमें उपयोगिता की अपेक्षा और आकर्षण की प्रतिष्ठा की नीति अपनाई जाती रहती है। शिवं की व्याख्या वासना और तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ कहाँ होती है? सत्य में अहंता का पोषण ही आधार माना जाता है यही कारण है कि आन्तरिक बौनापन बे हिसाब बढ़ रहा है। विशाल अंतःकरण और उदात्त दृष्टिकोण वाले ‘देव मानव’ निरन्तर घटते चले जा रहे हैं। हिम मानव कहे जाने वाले ‘दैत्य’ अब खोज और चर्चा के विषय बन कर रह गये हैं। उन्हें प्रत्यक्ष देख पाना अति कठिन है लगता है कुछ समय में देव मानवों का वंश भी घटता मिटता चला जायेगा। धन वैभव बढ़ा किन्तु ब्रह्मवर्चस् खो गया तो उसे सौभाग्य नहीं दुर्भाग्य ही कहा जा सकेगा।

इन दिनों बुद्धि वैभव की चमत्कारी प्रगति प्रत्यक्ष है। विज्ञान से लेकर शिक्षा तक के सभी क्षेत्रों में जो उन्नति हो रही है उससे कौन अपरिचित है? शक्ति और साधनों के नये-नये स्रोत हाथ में आ रहे हैं प्रकृति की रहस्यमय परतों पर से एक के बाद एक पर्दा उठता चला जा रहा है और उसके आधार पर मनुष्य का दर्जा सृष्टि शिरोमणि से ऊँचा उठ कर प्रकृति प्रशासक एवं अधिपति का बनता जा रहा है बौद्धिक क्षेत्र की प्रगति में अपने युग ने जो प्रगति की है उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा ही की जा सकती है, पर यहाँ इतना और भी ध्यान रखना होगा कि यह चेतना की प्रगति नहीं है। चेतना और बुद्धि का अन्तर समझा जाना चाहिए। बुद्धि का केन्द्र मस्तिष्क शरीर का एक अवयव मात्र है। शरीर पंच भौतिक है मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है किसी के पैरों ने दौड़ने की-हाथों में वजन उठाने की जीभ से बातें बनाने की कुशलता बढ़ जाय तो उसे शरीर की उन्नति ही कहा जायगा। चेतना की परतें बुद्धि से उतनी ही गहरी हैं-जितनी कि शरीर की तुलना में आत्मा की। किसी बलिष्ठ का चमत्कार दंगल में कुश्ती जीतने के रूप में देखा जा सकता है, पर यह आवश्यक नहीं कि वह भक्ति भावना-सहृदयता और उत्कृष्ट आदर्शवादिता की दृष्टि से भी बढ़ा-चढ़ा है। भावना का क्षेत्र चेतना का है और वह शरीर के साथ जुड़ी होने पर भी अस्तित्व की दृष्टि से उससे भिन्न है किसी रुग्ण व्यक्ति की भी सद्भावना अत्यन्त उच्चस्तर की हो सकती है इन उदाहरणों से शरीर और आत्मा की स्थिति भिन्नता पर प्रकाश पड़ता है। बुद्धि वैभव को भी एक प्रकार से भौतिक प्रगति के अंतर्गत ही गिना जा सकता है। स्पष्ट है कि उसके कारण साँसारिक उपलब्धियां ही हस्तगत हुई हैं। यदि बुद्धि ने चेतना को विकसित करके भी अपना पराक्रम दिखाया तो साधनों के उपभोग की उपेक्षा करके उनके उपयोग की बात सोची गई होती। तब प्रस्तुत साधन सामग्री के सहारे ही इस संसार या प्रत्येक प्राणी आनन्द और उल्लास का रसास्वादन करते हुए क्रीड़ा-कल्लोल मग्न रहा होता और अपनी इसी धरती पर सतयुगी-स्वर्गीय-परिस्थितियाँ बिखरी हुई दृष्टिगोचर होतीं। तब एक ने दूसरे को काटने-गिराने की बात सर्वथा त्याग दी होती और स्नेह, सहयोग की उदार नीति अपना कर ऊँचा उठाने-आगे बढ़ाने में योगदान दिया होता। जो शक्ति इन दिनों काटने-गिराने में लगी हुई है, वही यदि सृजन एवं उत्कर्ष में लगी होती तो खाई खोदने के साधन दीवार चुनने में लगने पर जिस तरह चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न होता है उसी प्रकार पतन के प्रयास उत्थान में संलग्न होकर ऐसे परिणाम उत्पन्न करते-जिनकी कल्पना करने मात्र से आँखें चमकने लगतीं।

चेतना का उत्कर्ष समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है उसके प्रभाव से भावना-विचारणा और क्रिया की दिशाधारा उच्चस्तरीय बनती है। फलतः व्यक्ति का त्रिविधि पुरुषार्थ उसके स्तर को उस दिशा में विकसित करता है जिसे भूसुर अथवा नर देव कहा जाय। देवताओं के व्यक्तित्व और कर्तृत्व की गुण गरिमा से पुराण साहित्य भरा पड़ा है। इसमें से यदि रोचक-भयानक अलंकारिता को हटा दिया जाय तो इतना स्पष्ट हो जाता है देव-मानव किस प्रकार अपनी महानता के कारण परम श्रद्धास्पद बनते हैं और किस प्रकार असंख्यों को अपने कन्धों पर बिठा कर पार लगाने का श्रेय प्राप्त करते हैं। उनकी ऊर्जा अपने समय और सम्पर्क क्षेत्र को ही प्रभावित नहीं करती वरन् इतिहास के पृष्ठों पर अमर रह कर चिरकाल तक अपने प्रेरणाप्रद प्रकाश का लाभ संसार को देती रहती है।

ऐसे व्यक्ति अपने आप में कितने संतुष्ट रहते है उनके अन्तःकरण में आनन्द और उल्लास की कैसी हिलोरे उठती रहती हैं इसका अनुभवी लोगों को शब्दों के सहारे परिचय कराया जा सकना कठिन है। इस प्रकार की मनःस्थिति का परिचय शास्त्रकारों ने अपनी आलंकारिक भाषा में देने का आधा-अधूरा प्रयत्न किया है। स्वर्ग, मुक्ति, भक्ति, सोमरस, अमृत, भूमा, प्रज्ञा, समाधि, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, ब्रह्मानन्द, परमानन्द जैसे शब्द किसी परिस्थिति या प्रत्यक्ष उपलब्धि की ओर इंगित करते दीखते हैं, पर वस्तुतः यह मनःस्थिति के हलके भारी स्तर भर हैं। जिन सात लोकों की विशद चर्चा शास्त्रकारों ने की वे इस अपने ब्रह्माण्ड में कहीं भी खोजे पाये जा नहीं सकते। वे चेतना की विकसित, अतिविकसित स्थिति के अन्तरों का आलंकारिक चित्रण मात्र है। यों भू सर्वेक्षण की दृष्टि से यह धरती एक ही प्रकार की है, पर दृष्टिकोण भिन्नता के आधार पर किये गये पर्यवेक्षण के आधार पर यह सिद्ध होता है कि हर व्यक्ति की दुनिया अलग है और वह उसकी अपनी गढ़ी हुई है। एक आततायी जिस दृष्टिकोण से संसार को देखता और अपने आचरण की संगति बिठाता है, उसकी तुलना में एक सन्त के दृष्टिकोण में जमीन आसमान जैसा अन्तर होता है। विराट विश्व को भगवान की साकार प्रतिमा की तरह देखने और सियाराम मय सब जग जानी की रीति-नीति अपनाने पर व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध की प्रतिक्रिया अत्यन्त सरस और मधुर होती हैं। इसके विपरीत हिंस्र पशुओं जैसी क्रूरता के आवरण जिनकी दृष्टि और क्रिया के ऊपर छाये रहते हैं उनकी अन्तरंग दुष्टता और बहिरंग भ्रष्टता नारकीय दावानल की तरह धधकती है। ऐसे व्यक्ति को स्वयं तो उस आग में अहर्निशि जलना ही पड़ता है। नरक इसी मन: स्थिति का नाम है। स्वर्ग और नरक का चित्रण कलाकारों ने विस्तारपूर्वक कला कल्पना के सहारे किया है। यदि उस प्रतिपादन में से तथ्य ढूंढ़ने हों तो उतना ही निष्कर्ष निकलेगा कि चेतना का समुन्नत स्तर उर्ध्व गति के और अध: पारित स्तर अधोगति की प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करता है। उन्हीं अनुभूतियों को परिस्थिति के रूप में चित्रित करके प्रगति और अवगति का परिचय सर्व-साधारण को कराया गया है। आवश्यक नहीं कि मरण के उपरान्त ही इन लोकों में निवास किया जाए। जीवित रहते हुये भी-जन साधारण जैसी सामान्य परिस्थितियों में निर्वाह करते हुए भी-यह उभय पक्षीय रसास्वादन सम्भव हो सकता है। निकृष्टता अपनाने पर नरक की और उत्कृष्टता अपनाने पर स्वर्ग की अनुभूति कभी भी-किसी को भी-हो सकती है।

चेतना की प्रगति और अवगति का महत्व समझा ही नहीं गया अस्तु उस संबंध में सतर्कता बरतने और तत्परता अपनाने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं की गई। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिस तथ्य को सर्वोपरि स्थान मिलना चाहिए था-जिसे प्रमुखता की अग्रिम पंक्ति में रखा जाना चाहिए था; उसे अनावश्यक और महत्वहीन समझ कर उपेक्षा के गर्त में फेंक दिया गया। इस भूल का अविलम्ब परिमार्जन करने का यही समय है। साधन सम्पन्न परिस्थितियों में भी सामूहिक आत्महत्या की जो उतावली दृष्टिगोचर हो रही है उसके पीछे चेतना के स्तर का अध: पतन ही एकमात्र कारण है। स्थिति बदली जानी चाहिए। अपने को चैतन्य समझने वाले जड़ता से ऊँचा मानने वाले हर मनुष्य का कर्त्तव्य है कि ‘चित्त’ शक्ति की गरिमा समझें। उसके प्रसाद से मिल सकने वाले अजस्र अनुदानों का स्मरण करें और चेतना का स्तर सुविकसित करने के लिए उन आधारों को अपनायें जिन्हें हल्के शब्दों में संस्कृति और भारी शब्दों में आध्यात्मिकता कहा जाता है।


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