समृद्धि ऐसे चरण चेरी बन गई

July 1976

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कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी यदि व्यक्ति अपना आत्म-विश्वास, साहस, सूझबूझ और आत्म-बल न छोड़े तो कोई कारण नहीं कि परिस्थितियों को हार न माननी पड़े। अर्थाभाव के कारण हजारों लाखों नहीं करोड़ों लोग दिन-रात चिन्ता और निराशा के थपेड़ों में अपनी जीवन नैया खेने का प्रयास करते हैं। परन्तु जो लोग इन अन्धड़ों में आशा और पुरुषार्थ की पतवार बाँध सके, उसने न केवल परिस्थितियों को परास्त कर दिखाया वरन् अपने ही समान अन्य व्यक्तियों के लिये भी एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया।

भले ही ऐसे व्यक्तियों की संख्या अँगुलियों पर गिनने योग्य हो पर है अवश्य और अंगुली पर गिनने लायक भी इसलिये कि अधिकाँश व्यक्ति निर्धनता और धनभाव के सामने इस प्रकार घुटने टेक देते हैं कि उन्हें कुछ करने की सूझ ही नहीं पड़ती। जो अपना संतुलन बनाये रखते हैं, वे कोई ऐसा मार्ग अवश्य निकाल लेते हैं, जिससे कि समृद्धि उनकी चरण चेरी बन जाये। दुनिया में लगभग सभी व्यक्ति सुबह-शाम चाय का व्यवहार करते हैं और चाय पीने वाले लिप्टन की चाय से भी परिचित हैं? पर यह जानने वाले लोग शायद कम ही होंगे कि लिप्टन कौन थे और पहले क्या करते थे? उनका परिचय उनके शब्दों में इस प्रकार है।

‘‘मैंने अपना जीवन एक स्टेशनरी की दुकान में काम करने वाले लड़के के रूप में आरम्भ किया। उस समय मुझे दस शिलिंग डालर रोज मिलते थे और इसी शुरुआत के बाद मैंने आगे बढ़ना शुरू किया तथा किफायतशारी के नियमों पर चल कर अपने व्यापार को संसार भर में बढ़ा सका हूँ जिन्दगी में मुझे फिजूल खर्ची से सख्त नफरत रही है। जो काम मैं खुद कर सकता था उसे मैंने दूसरों पर कभी नहीं छोड़ा। जो काम दो डालर में हो सकता था उसके लिये सवा दो डालर कभी खर्च नहीं किये और न मैंने कभी किसी प्रकार की व्यर्थ की जरूरतों को अपने पीछे लगाया।

दस शिलिंग प्रति सप्ताह से अपना जीवन आरम्भ करने वाले टौमस लिप्टन की आमदनी लाखों डालर प्रति सप्ताह तक बढ़ गयी। आज संसार भर में उनके छह हजार से अधिक कम्पनी एजेन्ट हैं और उनका व्यापार भी प्रायः विश्व के सभी देशों में फैला हुआ है।

परिस्थितियाँ तो शायद ही कभी किसी के लिये सहायक बनती हों। प्रायः तो लोग उनसे अपने विकास में बाधाएं ही अनुभव करते हैं, पर ऐसे पुरुषार्थी व्यक्ति भी हैं जो उनमें से भी आगे बढ़ने की राह निकाल लेते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति थे डेविडसन राकफैलर। जिन्हें अपना तथा अपनी माँ का पेट पालने के लिये एक पड़ौसी के मुर्गीखाने में सवा रुपये रोज पर काम करना पड़ा। कभी वे खेतों में आलू खोदने जाते तो कभी कोई मजदूरी खोजने। लेकिन उन्होंने नित्यप्रति की इस आमदनी से थोड़ा बचाना आरम्भ किया और बचत से अपना एक नया काम शुरू किया। और पचास वर्ष की आयु तक पहुँचने पर उनकी गणना संसार के अरब पतियों से की जाने लगी।

कंगाली से समृद्धि तक की यात्रा सफलतापूर्वक पूरी कर लेने का गुप्त रहस्य बताते हुए उन्होंने एक अवसर पर कहा था-मैं अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करता हूँ। आरम्भ से ही अपनी माँ के गुर को अपनी गाँठ से बाँध कर सदैव बचत का ध्यान रखा और प्रतिदिन, प्रतिमाह, प्रतिवर्ष कितनी बचत हुई इसका ध्यान रखता रहा।

बचत ही नहीं मितव्ययिता भी समृद्धि के लिए आवश्यक है और उसके लिए व्यक्ति का संयमी होना अत्यावश्यक है –‘‘मैं शराब, तंबाकू, जुआ इत्यादि को महंगी और बेकार चीजें मानता हूँ। मुझे मिथ्याडम्बर से घृणा है। प्रदर्शन की आदत को मैं मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी समझता हूँ। मैंने कभी भूलकर भी शराब और तम्बाकू को हाथ नहीं लगाया और डालर का स्वामी होने के बावजूद भी किफायतशारी नहीं त्यागी। साधारण सी वस्तुओं में भी ठगे जाने के लिए मैं कभी राजी नहीं हुआ।”

पिछड़े, उपेक्षित और अविकसित लोगों को आगे बढ़ाने के लिए डेढ़ अरब रुपयों का दान देने वाले ऐंड्र्रयू के जीवनकार ने उनके जीवन चरित्र में लिखा है-‘‘वे लोग गरीब थे। खाने के लिए अन्न और पहनने के लिए कपड़ों का जुगाड़ तो किसी प्रकार हो जाता था किन्तु हारी बीमारी में डॉक्टर या वैद्य को दिखा लेने की भी उनकी हैसियत नहीं थीं एण्ड्रयू कार्नेगी का पिता एक गरीब जुलाहा था जो कपड़ा बुनकर जैसे-तैसे अपने परिवार का निर्वाह करता था। पहले वे लोग स्काटलैण्ड में रहते थे पर बाद में अमेरिका जाकर बस गये। पति की आय घर खर्च के लिए पूरी नहीं पड़ती इसलिये उसकी पत्नी एक दुकान में जूते सीने और कपड़े धोने का काम किया करती थी। इतने पर भी ऐण्ड्रयू कार्नेगी के पास कपड़े का एक जोड़ा रहता था जिसे माँ रात को सोने से पहले धोकर सुखाने के लिए रख देती।”

कार्नेगी को स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने का अधिक अवसर नहीं मिला। शीघ्र ही अपन निर्धन परिवार की सहायता के लिए उन्हें पीट्सवर्ग के तारघर में हरकारे की नौकरी करनी पड़ी जिसमें आये हुए टेलीग्रामों को बाँटने के लिए जाना पड़ता था। यहीं कार्नेगी की महत्वाकाँक्षा जगी कि किसी प्रकार तार बाबू बन जाये और उन्होंने अपने सोने का समय कम कर तार भेजने की विद्या का अभ्यास शुरू किया। एक दिन जिस टेलीग्राफ आफिस में वे नौकरी करते थे वहाँ तार बाबू छुट्टी पर गया हुआ था। कार्यालय में उस समय तो कोई ड्यूटी पर नहीं था अतः स्वयं कार्नेगी ने ही वह संदेश ले लिया और उस पते पर पहुँचे। अधिकारियों को जब कार्नेगी की इस कर्त्तव्य परायणता का पता चला तो उनकी पदोन्नति कर दी गयी।

कर्त्तव्यनिष्ठा, कार्य तत्परता और मेहनत तथा लगन के बल पर वे सफलताओं के सोपान चढ़ते गये और जब वे युवावस्था से गुजर रहे थे तब उनकी आय सोलह हजार रुपये मासिक थी। कार्नेगी ने केवल धन ही नहीं कमाया वरन् उसका उपयोग सार्वजनिक कार्यों में भी किया। उन्होंने डेढ़ अरब के लगभग सार्वजनिक पुस्तकालयों, शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य लोकहित के कार्यों में दान दिये।

कई देशों में सम्पन्न और अमीर व्यक्ति जिस कम्पनी की कारें प्रयोग में लाते हैं वे कारें भी अपनी प्रतिष्ठा का चिन्ह समझी जाती हैं वे फोर्ड कम्पनी की हैं। इस कम्पनी के अधिष्ठाता, संचालक और सम्वर्धक हैं हेनीरी फोर्ड। बताया जाता है कि फोर्ड मोटर कम्पनी की गाड़ियाँ प्रति वर्ष लाखों की संख्या में बिकती हैं। जिस व्यक्ति द्वारा स्थापित संस्था का उत्पादन प्रतिष्ठा और वृद्धि का सूचक समझा जाता है वह व्यक्ति एक साधारण इन्सान का पुत्र था। हेनरी फोर्ड के पिता अपने निवास ग्राम में थोड़ी सी जमीन पर खेती किया करते थे और जो पैदा होता उससे ही अपने परिवार का भरण पोषण करते। चूंकि आय अधिक नहीं थी-निर्वाह भी मुश्किल से चल पाता था तो फोर्ड को उच्च शिक्षा प्राप्त करने का मौका कहाँ से मिलता। फिर भी पिता ने जैसे तैसे एक स्थानीय स्कूल में भर्ती करवाया और वे पन्द्रह वर्ष की आयु तक अध्ययन करते रहे।

हिन्दुस्तान में भी ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है जो अपने प्रारम्भिक जीवन में अति निर्धन और अभावग्रस्त रहे तथा आगे चल कर परिश्रम, पुरुषार्थ व लगन के बल पर समृद्ध बने। उनमें से शापुरजी बरोचा का नाम उल्लेखनीय है। बरोचा जब छह वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया और उसके चार दिन बाद ही उनका बड़ा भाई भी चल बसा। माँ ने अपने पति का माल असबाब बेचकर किसी प्रकार दिन काटे और लोगों के कपड़े सी-सी कर बच्चों को पाला-पोसा। शापुरजी पढ़ने के साथ-साथ स्कूल के बाकी बचे समय में जो काम मिल जाता वह कर लेते और अपनी माँ की मदद पहुँचाया करते। कहते हैं घर से स्कूल तक और स्कूल से घर तक का रास्ता तय करने में जो समय मिलता उसी में शापुरजी ने अपना घरेलू अभ्यास किया। मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने रेलवे में नौकरी की और फिर बैंक में। बाद में वे स्वतन्त्र उद्योग के क्षेत्र में उतरे और वहाँ अपनी सूझ-बूझ, लगन और निष्ठा के बल पर सफल हुए। साहस प्रयत्न और पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कि और जो कुछ कमाया वह लोकोपयोगी कार्यों में खर्च करते रहे। पं0 गणेश शंकर विद्यार्थी के अनुसार शापुरजी ने लगभग साठ लाख रुपया जन-हित के कार्यों में खर्च किया।

इस प्रकार अभावग्रस्त दीन-हीन अवस्था से उठ कर समृद्धि और सम्पन्नता के उच्च शिखर तक पहुँचने वाले पुरुषार्थियों की संख्या कम नहीं है। कई तो ऐसे हैं जिनके पूर्व जीवन के सम्बन्ध में कुछ जाना नहीं जा सका। जो भी हो इन विभूतियों के जीवन और व्यक्तित्व में एक बात महत्वपूर्ण रूप से उल्लेखनीय है कि राक फेलर और हेनरी फोर्ड से लेकर शापुरजी बरोचा तक जितने भी समृद्ध इतिहास पुरुष हैं उन सबने अपनी आय का बहुत अंश जन सेवा के कार्यों में ही खर्च किया है। पुरुषार्थ और परिश्रम के साथ लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए यह भी आवश्यक है कि हम उसे अपनी ही सुख सुविधाओं और विलास वैभवों में खर्च करने की बात न सोचें वरन् उसका अधिकतम उपयोग जनहित में-सेवा कार्यों में करने का भाव रखें। फिर साधनों और सामग्रियों की न चिन्ता रहेगी और न उनके अभाव का क्षोभ।


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