सुख और संतोष का अन्तर

July 1976

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सुकरात से किसी ने पूछा- आप एक असंतुष्ट सुकरात होना पसन्द करेंगे या सन्तुष्ट सुअर। ‘सुकरात ने कहा-मुझे असन्तुष्ट सुकरात रहना पसन्द है। क्योंकि मैं अपने असन्तोष को और उसके कारण को जानता तो हूँ। सुअर सुखी रहते हुए भी सन्तोष की महत्ता तक के बारे में कुछ नहीं समझता। इस उत्तर में सुकरात का प्रतिपादन यह है कि बुद्धिमत्ता सबसे बड़ी उपलब्धि है। उसे किसी भी कीमत पर नहीं गँवाया जाना चाहिए और उसे किसी भी कीमत पर कमाने, बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।

आत्मिक प्रगति सुख की दिशा में नहीं-संतोष की दिशा में होती है। शरीर सुविधा चाहता है और इन्द्रिय तृप्ति में मोद मनाता है। मस्तिष्क भी शरीर का ही एक भाग है। मस्तिष्क चेतना को मन कहा गया है। और ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। मन की प्रधान दिशा अहंता है। आत्म-विज्ञापन, लोक-सम्मान एवं वस्तुओं के आधिपत्य से मन को अपने अहंकार की तृप्ति का अवसर मिलता है। इसी लालसा को तृष्णा कहते हैं। संक्षेप में शरीरगत इन्द्रिय उत्तेजनाओं को वासना और मनोगत अहंता की ललक को तृष्णा कहते हैं। भौतिक जीवन की यही सीमा है। परिस्थितियों, व्यक्तियों और वस्तुओं की सहायता से इन दोनों आवेशों को तृप्त करने का प्रयत्न ऐसा ही है। जैसा आग पर ईंधन डालना। ईंधन डालने से तत्काल तो लगता है कि आग बुझ गई या धीमी पड़ गई पर उस प्रोत्साहन के कारण कुछ ही क्षण में वह अधिक उद्दीप्त हो उठती है और प्रचंड दीखती है। जितना ईंधन डाला जायगा आग की लपटें उतनी ही तीव्र होंगी। इन्द्रिय लिप्साएँ और लालसाएँ, मनोकामनाएँ किसी भी सीमा तक पहुंचकर शान्त नहीं होती, वरन् उपभोग की सामर्थ्य न होने पर भी उनकी ललक निरन्तर बढ़ती ही रहती है।

संतोष आन्तरिक और आत्मिक होता है। यह आदर्शवादी कर्तृत्व-निष्ठा के अतिरिक्त और किसी माध्यम से उपलब्ध नहीं हो सकता। उत्कृष्ट चिन्तन और आचरण के पीछे कर्तव्य-पालन की आस्था काम करती है। इस आस्था को व्यवहार में परिणत होने को जितना ही अवसर मिलता है उतना ही सन्तोष होता है, मानवतावादी सज्जनोचित अनुकरणीय चरित्र-निष्ठा जिस अनुपात से फलवती होती है उसी अनुपात से सन्तोष मिलेगा।

आत्मिक असन्तोष अधिक चरित्र-निष्ठा और समाज-निष्ठा की प्रेरणा देता है। और उस आकाँक्षा की पूर्ति के लिए मनुष्य अधिकाधिक पवित्र और परिष्कृत बनता चला जाता है। इस प्रगति का चरम लक्ष्य पूर्णता की प्राप्ति ईश्वर की उपलब्धि है। उस स्तर के जितने निकट पहुँचते जाते हैं उतना ही आन्तरिक सन्तोष बढ़ता है और लक्ष्य प्राप्ति की स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते वह स्वर्ग, मुक्ति एवं परमगति की वह सम्वेदना बन जाता है। जिसका रसास्वादन करने के लिए यह मनुष्य जन्म मिला है। इस प्रकार आत्मिक असंतोष पूर्णता की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है और उसे भक्ति की आकुलता के नाम से उत्पन्न करना आवश्यक ठहराया गया है।

भौतिक असन्तोष एक प्रकार से मद्यपान की तरह है। उसकी उग्रता मनुष्य को इतना अधीर बना देती है कि उचित - अनुचित का भेद किये बिना वह कुछ भी करने पर उतारू हो जाता है। इस आवेश में जीवन-लक्ष्य की पूर्णतया विस्मृति हो जाती है। ऐषणाओं की ललक मनुष्य को एक प्रकार से मदान्ध बना देती है। होती तो उससे भी प्रगति है, पर वह परिणामतः अवगति से भी महँगी पड़ती है। अस्तु भौतिक असन्तोष को हेय और आत्मिक असन्तोष को सराहनीय माना गया है। सुख पाने के लालच में सन्तोष को गँवा बैठना अदूरदर्शितापूर्ण है। यही था सुकरात के कथन का प्रयोजन। अन्य तत्व ज्ञानी मनीषियों की मान्यता भी ऐसी हो रही है।

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