स्वास्थ्य रक्षा प्रकृति के अनुसरण से ही सम्भव

July 1976

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आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की मान्यता यह है कि शरीर में विजातीय द्रव्य एवं विषाणुओं की वृद्धि से रोग उत्पन्न होते हैं अस्तु इन्हें मारने के लिए- कीटाणु नाशक औषधियों का प्रयोग होना चाहिए। यहाँ यह बात भुला दी जाती है। कि इस विनाश कृत्य में शत्रु जीवाणुओं के साथ-साथ मित्र जीवाणु भी मरते हैं। सुरक्षा पंक्ति दुर्बल हो जाने से फिर आक्रामक तत्वों का खतरा और भी अधिक बढ़ जाता है। इतना ही नहीं मारक औषधियों के कारण जीवन तत्व की क्षीणता से विभिन्न स्रोतों से निरन्तर होते रहने वाले मल-विसर्जन की क्रिया धीमी पड़ जाती है और उनका भीतर जमे रहना स्वास्थ्य संकट का एक नया कारण बनता है।

चिकित्सा शास्त्रियों का दावा है कि उन्होंने सड़न-सेप्टिक- रोकने पर बहुत हद तक सफलता प्राप्त कर ली है और संक्रामक रोगों के कारण उत्पन्न होने वाली विपत्ति पर नियन्त्रण कर लिया है। यह निश्चय ही शुभ संवाद है। पर इस अप्रत्यक्ष संकट को भी आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि जीवन-शक्ति घट जाने से जीवित रहने की जटिलता दिन-दिन बोझिल होती जा रही है। मनुष्य के पुरुषार्थ में घटोत्तरी हो रही है और उसे अपना निर्वाह असमर्थता और कष्ट पीड़ित असुखद स्थिति में रहकर करना पड़ रहा है। चिकित्सा और स्वास्थ्य संरक्षण की मदों में तथाकथित सुविकसित देशों को अपनी राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा अंश खर्च करना पड़ रहा है। फिर भी आवश्यकता को देखते हुए वह स्वल्प ही प्रतीत होती है। उसे बढ़ाने की आवश्यकता समझी जाती है फलतः बजट बढ़ता चलता है। क्रम यही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब समूची राष्ट्रीय आय स्वास्थ्य समस्या के समाधान में लाभ देने पर भी आवश्यकता की पूर्ति न हो सकेगी और संकट की विभीषिका चरम सीमा तक बढ़ती चली जायगी। समृद्ध देशों में संक्रामक रोगों पर नियन्त्रण होने के कारण पिछले दिनों जो मृत्यु संख्या घटी और दीर्घ जीवन की सम्भावना बढ़ी थी, अब उसमें जीवनी-शक्ति घटने की नई व्यथा ने नया अवरोध उत्पन्न कर दिया है। मृत्यु दर नये सिरे से बढ़ने लगी है और आयु घटने का डरावना नया संकट आँकड़ों ने सिद्ध किया है। मारक औषधियाँ अपने लक्ष्य में सफल हो गईं, पर पोषण के नाम पर जो बन रहा है और उपयोग हो रहा है वह निरर्थक ही सिद्ध हुआ है।

पौष्टिक आहार और चिकित्सा उपचार की कितनी ही समुन्नत व्यवस्था की जाय, आरोग्य समस्या की गुत्थी अनसुलझी ही बनी रहेगी। मूल प्रश्न है जीवनी शक्ति की सुरक्षा का। आहार-विहार का असमय अपनाने से वह रक्षा पंक्ति दुर्बल होती है जिसके सहारे हमारा पाचन तथा विसर्जन तन्त्र ठीक तरह से काम करता है और बलिष्ठता अक्षुण्य बनी रहती है। जिस कारखाने के कारीगर और व्यवस्थापक मूर्छित पड़े हों उसके लिए कच्चा माल ऊँचे स्तर का खरीद लेने पर भी क्या बनेगा ? पौष्टिक आहार की प्रशंसा तो तभी है जब उन्हें पचाने का तन्त्र अपने कार्य में समर्थ रह रहा हो। बिना पचा तो अमृत भी सड़ेगा और परिणाम में विष तुल्य सिद्ध होगा।

स्पष्ट है कि बीमारियों का आक्रमण जीवनी-शक्ति की दुर्बलता के कारण ही होता है, अन्यथा रक्त के श्वेत जीवाणु किसी भी बाहरी आक्रमण को रोकने और भीतर के विजातीय उत्पादन को सहज ही निरस्त कर डालने की स्थिति में होते हैं। रोगों की मारक औषधियों की तलाश आपत्ति धर्म हो सकता है, पर काम तो स्थिरता और सुरक्षा का प्रबन्ध करने से चलेगा। यह उद्देश्य आहार-विहार की प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप बनाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता।

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