कर्म में मनोयोग का समन्वय आवश्यक

July 1976

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“चरैवेति चरैवेति” -शतपथ

ब्राह्मण के इस सूत्र में चलते रहो चलते रहो-इस वाक्य में कर्म करते रहने की प्रेरणा भरी गई है। जीवन के पथ पर अहर्निशि अग्रसर होते रहना, विकास के सोपानों को पार करते रहना बिना कर्म के सम्भव नहीं है। कर्म में ही वह शक्ति निहित है जो मनुष्य को एक न एक दिन मंजिल तक पहुँचा देती है।

किंतु केवल कर्म करने से जीवन में निखार आ जावेगा, कठिन बात लगती है। कर्म के साथ मनोयोग उसी भाँति जोड़ना होगा जिस भाँति फूल के साथ उसकी सुगन्ध एक प्राण है। कर्म करते समय लगन, भावना तथा निष्ठा का सम्मिश्रण आवश्यक है। इससे कर्म करने में आत्म-विश्वास की शक्ति का उदय होगा। जो असीम आनन्द का प्रेरणा-स्रोत प्रवाहित कर देगा। इसीलिए कहा गया है- “हे कार्य! तुम्हीं मेरी कामना हो, तुम्हीं मेरी प्रसन्नता हो, तुम्हीं मेरा आनन्द हो।” इतने समर्पण भाव से कर्म के प्रति लगन, निष्ठा होगी तो फिर सफलता पैर क्यों न चूमेगी। क्योंकि मनुष्य का जीवन, एक आदर्श कर्म-विद्यालय है। किन्तु आलसी व्यक्तियों के हाथ निराशा ही लगती है। जिस जीवन में संघर्ष नहीं, टकराव नहीं वहाँ दिव्यता का आविर्भाव मृगतृष्णा है।

दूसरी ओर यदि मनुष्य अपनी कर्म करने की शक्ति को सूर्य की किरणों के समान विकसित कर लेवें तो वह अपने आप को बहुत ऊँचा उठा सकता है। कर्म की भावना पूर्ण पूजा ही परमात्मा की सच्ची उपासना है। मनोयोगपूर्वक किये गये कर्म करते समय लक्ष्य के हजारों मार्ग खुल जाते हैं। कर्म कैसा ही हो? उसमें सफलता तभी प्राप्त होती है जब उसमें भावना की सरसता हो। जीवन जीने का गुरु मन्त्र यही है।

काम छोटे-बड़े होने का महत्व नहीं, वरन् कार्य करने की पद्धतियाँ कर्म में पूर्ण सफलता दिलवाती हैं। ‘बाटा’ नामक मोची सड़क पर बैठकर जूते सीता-सीता बड़ी भारी कम्पनी का मालिक बना, वाशिंगटन साधारण व्यक्ति होते हुए अमेरिका का राष्ट्रपति बना, कालिदास मूर्ख से महान विद्वान बना, एडीसन झाडू लगाते-2 महान वैज्ञानिक बना ये सब के सब अपने सामने जो भी छोटे बड़े काम आये, उन्हें निष्ठापूर्वक करते रहे।

पूर्ण लगन पूर्वक किये गये काम से मनुष्य की सुषुप्त शक्तियों का उत्खनन होता है, कार्य करने की क्षमता एवं शक्ति का विकास होता है। बशर्ते कि प्रत्येक कार्य को खेल समझ कर कला समझकर, बोझ न समझकर तन्मयता के साथ किया जावे।

कार्य की सफलता के साथ व्यवस्था, सफाई, स्वच्छता का होना भी आवश्यक है। इससे सौन्दर्य, आकर्षण तथा उत्कृष्टता कर्म में उत्पन्न होती है। गन्दगी वातावरण को अशुद्ध बनाकर घृणा को जन्म देती है।

छोटे-मोटे रूप धारण करके कर्म सफलता के द्वार को खटखटाता है। किन्तु छोटा काम समझ कर उसके प्रति उपेक्षा रखते हैं। जिससे सफलता के एक सोपान से चूक जाते हैं, परन्तु प्रत्येक महान व्यक्ति अपने नन्हें-नन्हें कामों के पुँज से ही महान बना है। क्या छोटी-छोटी ईंटों के बिना विशाल भवन का निर्माण सम्भव है? यदि मनुष्य इच्छानुसार काम की प्रतीक्षा करता रहे तो अपना सम्पूर्ण जीवन यों ही खो बैठेगा। रुचिकर, अरुचिकर कामों की सूची बनाना इस बात का द्योतक है कि वह व्यक्ति आलसी है, प्रमादी है।

कर्म में धैर्य और निष्ठा का होना सफलता के लिए आवश्यक है। कर्म को धैर्य तथा निष्ठापूर्वक तब तक करते रहें जब तक सफलता रूपी फल हाथ न लगे। निराश होकर कर्म को बीच में ही न त्यागें।

जिस भाँति कलाकार को अपनी कला के बीच आनन्दानुभूति है उसी भाँति कर्मठ व्यक्ति अपने कर्म में आनन्दानुभूति लेना चाहता है, कर्म को व्यापार मानकर करने से आनन्द का अभाव बना रहता है। कर्म से प्यार करना सीख लें, उसकी इज्जत करना सीख लें।

“योगः कर्मेषु कौशलम्” गीता का यह वाक्य कार्य पद्धति की कुशलता पर जोर देता है। कुशलता-पूर्वक किये गये काम में कभी भी असफलता नहीं मिलेगी। छोटे से छोटा कार्य भी यदि कुशलतापूर्वक निर्वाह किया गया तो उस कार्य की सफलता किसी महान कार्य की शृंखला बन कर जीवन के महत मार्ग को खोल देने में समर्थ होती है।

किन्तु यह तभी सम्भव है जबकि मनुष्य काम टालने की वृत्ति, काम से जी चुराने की वृत्ति को छोड़ देवें। इन्हीं वृत्तियों के कारण मनुष्य सदैव अपनी हीनावस्था में पड़ा-पड़ा दूसरों को धिक्कारता रहता है। क्योंकि टाल-मटोल ही आलस्य और अकर्मण्य होने का प्रमाण है।

अधिकाँश मनुष्य की प्रवृत्ति अपने कार्य को नौकर पर, परिवार के छोटे सदस्यों पर छोड़ देने की होती है। किन्तु उस काम के प्रति हमारा जितना दर्द होगा, हमारी भावना, निष्ठा, तन्मयता होगी उतनी अन्य की नहीं होगी। ऐसी दशा में वह कर्म ठीक तरह से सम्पन्न नहीं होगा और अन्ततः असफलता ही हाथ लगेगी। कर्म में स्वावलम्बी रहने से कर्म का अनुभव, ज्ञानवर्धन, क्रियाशीलता का जागरण, प्रफुल्लता, नवउत्साह, नवशक्ति मिलती है। इससे शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास भी होता है।

कर्म करते समय शारीरिक, मानसिक क्षमता का भी ध्यान रखना चाहिए। यदि क्षमता अधिक है तो एक ही समय में अनेक काम किये जा सकते हैं यदि सामान्य क्षमता है तो एक ही समय में एक काम लेकर उसे एकाग्रता से पूरा किया जावे। अन्यथा कोई भी काम पूरा नहीं हो पावेगा और जीवन का अमूल्य समय यों ही नष्ट हो जावेगा।

लगातार एक ही प्रकार का कार्य करते रहने से रुचि में कमी आती है। इसलिए दैनिक जीवन में छोटे-बड़े सभी कामों का क्रम रखा जावे और उनको करने में समान रुचि, आनन्द का पुट देने से रुचि में वृद्धि होगी और नवीन स्फूर्ति मिलती रहेगी।

नन्हें-नन्हें अणुओं का योग ही सम्पूर्ण शरीर है। इसी भाँति छोटे-छोटे कार्य की सफलतायें महान कार्यों की ओर अग्रसर करती हैं। यहाँ तक कि दैनिक कामों में भी सम्पूर्ण दिलचस्पी लेनी चाहिए। इससे व्यक्तित्व का परिष्कार होगा। घर की प्रत्येक व्यवस्था उसी लगन और निष्ठा के साथ पूरा करेंगे जिस भाँति बड़े काम को करने में लगते हैं तो एक दिन व्यक्ति पुरुषोत्तम बनेगा, इसमें सन्देह नहीं है। कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं खुद काम नहीं करते और दूसरे के कर्म की आलोचना करना अपना कर्त्तव्य समझ लेते हैं। यह उनका ओछापन है।

लोहे से काम नहीं लेने पर जिस भाँति जंग लग जाता है उसी भाँति शरीर से काम नहीं लेने पर भी वह निकम्मा, आलसी, प्रमादी बन जाता है। शरीर का महत्व कर्म से है। श्रम से मन चुराने वाले व्यक्ति पारस्परिक कलह, अनैतिक तत्व और दुराचार को जन्म देते हैं। कर्मशील व्यक्ति जीवन पर्यन्त तन्मयतापूर्वक कर्म किये चलता है। वह क्षण भर भी विश्राम नहीं लेता है।

क्योंकि सत्कर्मों को करते रहने से जीवन का सही उपयोग होता है। इससे स्वास्थ्य एवं आयु की अभिवृद्धि होती है वे मनुष्य ऊँचे उठते हैं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी की उन्नति का एक ही रहस्य है- राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत होकर कर्म में लगे रहना।

फिर श्रम मानसिक हो या शारीरिक। दोनों का समन्वित स्वरूप ही जीवन का संतुलित विकास है। मानसिक कर्म करने वाले को शारीरिक तथा शारीरिक श्रम करने वाले को मानसिक श्रम करना ही चाहिए। यह समन्वय जीवन को संतुलित बनाता है।

श्रम धरती का देवता है तथा कर्म मनुष्य का आभूषण है। तभी व्यक्ति का जीवन मुखरित होकर धरती पर स्वर्ग स्थापित कर सकने में समर्थ होता है।

“आरोहणमाक्रमणं जीवता-जीवताऽनम्” उन्नत होते रहना जीवन का स्वाभाविक धर्म है। चलते रहो, चलते रहो यही जीवन का प्राण है।

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