प्रगति भौतिक ही नहीं आत्मिक भी होनी चाहिए

July 1976

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प्रगति की पुकार सर्वत्र है। विकास की आकाँक्षा सर्वत्र उभरती हुई दिखाई पड़ती है और उसके लिए प्रयत्न पुरुषार्थ भी द्रुतगति से हो रहे हैं। यह उचित भी है और आवश्यक भी। भौतिक साधनों की अभिवृद्धि से मनुष्य को अपने निर्वाह प्रयोजनों में सुविधा मिलती है। इससे कई तरह की कठिनाइयों का निराकरण होता है, सुखी जीवन जी सकने के कई साधन हाथ में आते हैं। इससे व्यक्तित्वों की उन्नति में सहायता मिलती है। इन तर्कों से किसी का मतभेद नहीं है। भौतिक उन्नति को सर्वतोमुखी प्रगति का एक अंग मानने में किसी को आपत्ति नहीं इन प्रयासों का तो समर्थन ही किया जा सकता है। किन्तु उसे ही समग्र प्रगति नहीं कहा जा सकता।

यहाँ इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है कि आर्थिक प्रगति को आँशिक ही माना जाय और यह ध्यान में रखा जाय कि व्यक्तित्व की स्थिति भी ऊँची उठाई जानी चाहिए और उन तथ्यों को भी महत्व दिया जाना चाहिए जो मनुष्य को मानवीय विशेषताओं से सुसम्पन्न बनाते हैं। अच्छी मोटर होना उचित है, पर उसका ड्राइवर भी कुशल होना चाहिए अन्यथा मोटर की सवारी पैदल चलने से भी अधिक महँगी पड़ेगी। चोर, डाकू, ठग, उचक्के कितना अधिक कमाते हैं, पर उसका लाभ वे न स्वयं उठा पाते हैं और न परिवार वालों को दे पाते हैं। उनका निष्कृष्ट व्यक्तित्व मात्र अपराधी प्रवृत्तियां अपनाकर अनीति उपार्जन की दिशा में ही नहीं बढ़ता वरन् जो पाया, कमाया है उसे व्यसन अनाचार में लगाकर अपनी शारीरिक, मानसिक स्थिति को और भी अधिक बुरी बना लेता है। इसके विपरीत अपरिग्रही सन्त सज्जन स्वल्प साधनों में भी वैसा आनन्द भरा जीवन जीते हैं जैसा तथाकथित भाग्यवानों को स्वप्न में भी उपलब्ध नहीं होता।

‘प्रगति’ शब्द के अन्तर्गत यदि व्यक्तित्व के विकास को भी भौतिक उन्नति जितना ही महत्व मिल सका होता तो निश्चय ही स्वल्प साधन रहते हुए भी उनके सदुपयोग से अपेक्षाकृत कहीं अधिक लाभ उठा लिया गया होता और प्राचीन भारत की तरह सामान्य परिस्थितियों में भी उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँच सकना सम्भव हो सका होता। आर्थिक उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचे हुए अमेरिका जैसे देशों का स्वरूप सामने है। वहाँ व्यक्तित्वों को उच्चस्तरीय बनाने पर भी यदि ध्यान दिया गया होता तो स्थिति दूसरी ही होती। उतने ही साधनों से न केवल वे स्वयं स्पर्द्धा योग्य स्थिति में रहते वरन् उन्हीं साधनों से समस्त संसार को अधिक सुखी बनाने में कहीं अधिक सफल होते।

हमें सोचना होगा कि भौतिक सामग्री कितनी ही उपयोगी क्यों न हो उसका उपयोगकर्ता तो मनुष्य ही है। उपार्जन की कुशलता की तरह ही उपयोग में भी दूरदर्शिता का समावेश होना चाहिए। धन, बल, विद्या, चातुर्य आदि अनेक सम्पदाएँ प्रचुर मात्रा में उपार्जित कर लेने पर भी यदि उनका उपयोग ठीक से न आया तो उससे लाभ के स्थान पर उलटी हानि हो सकती है। सुसम्पन्न लोग जब कुमार्गगामी बनते और अनर्थ पर उतरते हैं तो अपनी तथा पूरे समाज की भयंकर क्षति करते हैं इसके विपरीत साधनहीनों की कुमार्गगामिता भी सीमित क्षेत्र में-सीमित मात्रा में हानि पहुँचाकर ही रह जाती है।

मनुष्य का आंतरिक स्तर उठाया जाना संसार की सबसे बड़ी आवश्यकता है। उसे भौतिक उन्नति से अधिक नहीं तो उसके समक्ष तो माना जाना चाहिए और उससे कम प्रयत्न नहीं किये जाने चाहिए जितने कि आर्थिक वैज्ञानिक, शारीरिक आदि क्षेत्रों में विकास के लिए किए जा रहे हैं।

व्यक्तित्व का विकास मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसी आधार पर गई-गुजरी स्थिति में रहने वाले नर-कीटकों और नर-पशुओं को महानात्मा-देवात्मा और परमात्मा स्तर तक विकसित होने का अवसर मिलता है। सम्पत्तियों का उपार्जन सफलताओं का सम्पादन एवं उपलब्धियों का सदुपयोग भी विकसित व्यक्तित्व पर ही पूरी तरह अवलम्बित रहता है। ओछे स्तर के व्यक्ति गुण, कर्म, स्वभाव की निकृष्टता के कारण धन, बल, ज्ञान, यश आदि से वंचित रहते हैं साधन और अवसर रहने पर भी वे उनका उपयोग नहीं कर पाते, फलतः दरिद्रता, दुर्बलता एवं खिन्नता ही उन्हें अहर्निशि घेरे रहती है। दूसरों की सहायता भी ऐसे लोगों के लिए कुछ अधिक सहायक सिद्ध नहीं होती। सहायता का प्रभाव जहाँ समाप्त हुआ वहीं वे अपनी गई गुजरी स्थिति में पुनः जा पड़ते हैं। व्यक्तित्व का पिछड़ापन ही असंख्य अभावों और संकटों का फल है। विकसित व्यक्तित्व के लोग जटिल परिस्थितियों से जूझकर भी अपने लिए प्रगति का मार्ग बना लेते हैं और जो उपलब्ध है उसी का श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं।

संसार के प्रगतिशील महामानवों के जीवनों को गम्भीरतापूर्वक पढ़ने पर यह तथ्य सर्वत्र उभरा हुआ दिखाई पड़ेगा कि मनुष्य को ऊँचा उठाने में परिस्थितियाँ नहीं मन:स्थितियाँ ही प्रधान कारण रही हैं। समझा यह जाता है कि परिस्थितियों से मनःस्थिति बनती हैं। लोग घटनाक्रम के कारण खिन्न, प्रसन्न अथवा पतित, उन्नत होते हैं। किन्तु यथार्थता इसके सर्वथा विपरीत है। वस्तुस्थिति यह है कि मनःस्थिति के फलस्वरूप परिस्थिति बनती एवं प्रभाव करती हैं एक ही विपन्न परिस्थिति के दो मनुष्यों में एक टूटकर नष्ट हो जाता है जबकि दूसरा उसी में दूने साहस का परिचय देकर अपनी प्रखरता का परिचय देता है।

व्यक्तित्व को समुन्नत बनाना- संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उससे स्वयं प्रभावित होता है और अन्य लोगों को समस्त समाज को प्रभावित करता है। समाज और कुछ नहीं-व्यक्तियों के मन की गुँथी हुई माला भर है। कड़ियों का समूह ही जंजीर है। व्यक्तियों का समूह ही समाज है। समाज की परिस्थितियाँ उसी प्रकार की बनेगी जैसी कि उसके सदस्यों घटकों के व्यक्तित्व होंगे। यह विचार सही नहीं है कि सम्पत्ति बढ़ जाने से मनुष्य का स्तर ऊँचा उठता है। और प्रगतिशील परिस्थितियाँ बनती चली जाती हैं यह तथ्य आँशिक रूप से ही सत्य है। भौतिक जीवन में अधिक सुविधा साधन मिलें यह बहुत अच्छी बात है उससे विकास क्रम में सहायता मिलती है, पर यह यथार्थता भी भुला देने योग्य नहीं है कि घटिया व्यक्तित्व एक तो प्रगति कर ही नहीं सकेंगे यदि कर भी लेंगे तो उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग करके उलटे और विपत्ति के दल-दल में फंसेंगे। दुर्गुणी व्यक्ति पूर्वजों की सम्पत्ति और अपनी कमाई को कैसे सत्यानाशी कामों में खर्च करते हैं इसके असंख्य प्रमाण आये दिन आँखों के सामने उपस्थित होते रहते हैं। इसके विपरीत यह भी सत्य है कि व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ से आवश्यक साधन सरलतापूर्वक उपार्जित कर लेते हैं, यदि कारणवश अधिक न कमाया जा सका तो भी जो हाथ में है उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करके दुर्गुणी साधन सम्पन्न लोगों की तुलना में कहीं अधिक अच्छी तरह गुजर कर लेते हैं।

प्राचीन भारत की उच्चस्तरीय परिस्थितियों और आज की समस्याग्रस्त उद्विग्नता की तुलना करते हैं तो आश्चर्य होता है कि यह विडंबना किस कारण आ उपस्थित हुई। प्राचीन काल में सुविधा साधन आज की अपेक्षा कहीं कम थे। रेल, मोटर, सड़क, पुल, जलयान, वायुयान, तार जैसे यातायात और संचार साधन उन दिनों कहाँ थे? बिजली, भाप, तेल और कोयले से शक्ति उत्पन्न करके लाभान्वित होने की स्थिति कहाँ थी? विज्ञान का, शिक्षा का, चिकित्सा का इतना विकास कहाँ हुआ था? शासन तंत्र और सैन्य शक्ति की इतनी उन्नति कब थी? दैनिक जीवन में जितने अधिक सुविधा साधन आज उपलब्ध हैं उतने की उन दिनों कोई कल्पना भी नहीं करता होगा। इतने पर भी हम समस्याओं और संकटों के जाल-जंजाल में बेतरह फंसे पड़े हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से मनुष्य जाति अपनी पिछली पीढ़ियों की तुलना में क्रमशः नीचे की ओर ही गिर रही है। दुर्बलता और रुग्णता को पकड़ शरीरों में गहरी घुसती जा रही है पारस्परिक सद्भाव, स्नेह, सहयोग में बेतरह कमी हुई है। एक दूसरे को सहायता देकर ऊँचा उठाने के स्थान पर शोषण की बात सोचने में संलग्न है। संसार भर में अपराधी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं और सामाजिकता की जड़ें खोखली होती चली जा रही हैं। कर्तव्य की उपेक्षा और अधिकारों की माँग का हर क्षेत्र में बोलबाला है। फलतः अनेकानेक संघर्ष खड़े हो रहे हैं और समस्याएं उठ रही हैं एक का समाधान नहीं हो पाता कि दूसरी दो नई और उठ खड़ी होती हैं। लोगों की मनःस्थिति कुत्साओं और कुण्ठाओं से ग्रसित होती चली जा रही है। फलतः सुविधा के साधन दिन-दिन बढ़ते जाने पर भी मनुष्य टूटा, हारा, थका, निराश और उद्विग्न दिखाई पड़ता है। खिन्न मनःस्थिति में गम गलत करने के लिए लोग व्यसन, व्यभिचार जैसे क्षुद्र प्रयोजनों का आश्रय लेने पर उतारू हो रहे हैं।

एक क्षण के लिए हमें रुक कर इस तथ्य पर गम्भीर विचार करना चाहिए कि प्राचीनकाल में स्वल्प साधनों के बीच भी क्यों समुन्नत स्थिति बनी हुई थी और आज प्रचुर साधनों के होते हुए भी हम इस प्रकार दयनीय स्थिति में गिरते जा रहे हैं। कारण केवल एक ही उभर कर आता है कि ‘प्रगति’ हर दिशा में हुई, पर व्यक्तित्व के विकास को उपेक्षित ही रहने दिया गया और वहाँ अवाँछनीय तत्वों का अड्डा जम गया। इस स्थिति को बदला जाना चाहिए और व्यक्तित्व को तीनों परतों को परिष्कृत करने के लिए नये सिरे से, नये उत्साह से प्रयत्न आरम्भ करना चाहिए। इन प्रयत्नों को नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का नाम दिया जाना अधिक उपयुक्त होगा।

भौतिक प्रगति की आवश्यकता को समझा गया है ओर उसके लिए प्रयास भी हो रहे हैं। यह एक पक्ष है। ध्यान दूसरे पक्ष पर भी जाना चाहिए। आत्मिक प्रगति को भी उतना ही महत्व मिलना चाहिए और सामूहिक तथा वैयक्तिक स्तर पर इस दिशा में भी प्रबल प्रयास किये जाने चाहिए, सच तो यह है कि महत्व चेतना का है पदार्थ का उपयोग तो चेतना ही करती है, अस्तु प्रश्न उत्पादन का ही नहीं उपभोग का भी है। परिष्कृत व्यक्ति ही वस्तुओं का सही उपयोग कर सकता है ओर उससे लाभान्वित हो सकता है। निकृष्ट व्यक्तित्व तो बढ़ी हुई समृद्धि का दुरुपयोग ही कर सकता है और उससे लाभ के स्थान पर हानि ही उठा सकता है।

भौतिक प्रगति के लिए भरपूर प्रयत्न किये जाने उचित हैं। उस दिशा में समुचित ध्यान देना आवश्यक है, पर भुला यह भी न दिया जाय कि आत्मिक प्रगति के लिए किये गये प्रयासों के बिना उदात्त दृष्टिकोण, प्रखर चरित्र और उपयोगी गतिविधियोँ का विकास न हो सकेगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम भौतिक और आत्मिक प्रगति की दिशा में समान रूप से प्रयास करें तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना सुनिश्चित हो सकती है।


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