प्रगति तो हुई पर किस दिशा में

July 1976

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इन दिनों जीवन स्तर बढ़ाने का बहुत शोर है। सभ्यता और सम्पन्नता की व्याख्या अधिक बर्बादी के रूप में की जाती है। अधिक बर्बादी के लिए अधिक उपार्जन का लक्ष्य बना कर चलने पर जो मिलता है, उससे अधिक गुम जाता है। राजनैतिक दृष्टि से प्रायः सर्वत्र स्वतंत्रता की आकाँक्षाएँ पूर्ण हो रही हैं। अब दूसरों के गुलाम कहे जा सकने वाले देश बहुत थोड़े रह गये हैं, पर नये किस्म की गुलामी ने मनुष्य जाति को फिर से जकड़ना आरम्भ कर दिया है। विलासिता की आदतें संकीर्ण स्वार्थपरता और अहंमन्यता ने आदमी को बोना बना दिया है। उचित-अनुचित की विवेक बुद्धि क्रमशः घट रही है और चरित्र निष्ठा, समाज निष्ठा की जड़ें खोखली हो रही हैं। इस दृष्टि से समृद्ध देश-दरिद्रों की अपेक्षा कहीं अधिक निरस्त हैं। शराब, जुआ, यौन-लिप्सा ही नहीं रोग, अपराध, आक्रमण एवं आत्महत्याएँ भी गगनचुम्बी गति से आगे बढ़ रही हैं। मानसिक संतुलन की स्थिति भी विचित्र है। आधा चिन्तन अहंमन्यता के आवेश में और आधा आत्महीनता जन्य निराशा के अवसाद में नष्ट होता चला जाता है। दूरदर्शिता, विवेकशीलता, उदारता और आत्मसंयम जैसी विभूतियाँ क्षीण होती चली जा रही हैं। फलतः मनुष्य और मनुष्य के बीच का स्नेह, सहयोग, शिष्टाचार की विडम्बना बनता चला जा रहा है।

यह ठीक है कि गरीबी से उत्पन्न अभावों से क्षीणता उत्पन्न होती है और उससे स्थिरता को चोट पहुँचती है पर यह भी तो गलत नहीं है कि अमीरी के कारण बर्बादी की जिस उद्धतता का विस्तार होता है उसका अभिशाप पतन की परम्पराओं के नये घटाटोप उत्पन्न करता है। विकास चाहे आर्थिक हो-चाहे बौद्धिक उद्देश्य सहित होना चाहिए। उसका लाभ मात्र उत्पादकों को ही नहीं दूसरों को भी यथोचित मात्रा में मिल सके तभी उसकी सार्थकता है। अन्यथा असन्तुलित विकास प्रकारान्तर से विनाश के ही नये आधार खड़े करता रहेगा। यह हम थोड़े से देशों या व्यक्तियों के समृद्ध बन जाने पर उनके द्वारा किये गये क्रिया-कलापों तथा अपनाई नीतियों के आधार पर हम सहज ही देख सकते हैं।

अमेरिका की आबादी संसार भर की जनसंख्या में मात्र 14 प्रतिशत है, पर वह संसार भर के 60 प्रतिशत कच्चे माल का उपयोग करती है अन्य देश भी यदि ऐसे ही समृद्ध बन गये और उनकी आवश्यकताएँ भी इतनी ही बढ़ीं तो फिर उतने साधन कहाँ से जुटाये जा सकेंगे ? शीत युद्ध रचने पर भी कोई देश उतनी उपलब्धियाँ संग्रह न कर सकेगा, जितना कि उसने अपनी आवश्यकता अथवा बर्बादी का लक्ष्य बना कर रखा है।

पानी की स्वच्छता और मात्रा दोनों ही दृष्टि से घटोत्तरी हो रही है। विकास साधनों के लिए जल की आवश्यकता का बढ़ते जाना स्वाभाविक है। अमेरिका के आंकड़े यह हैं कि मानवी उपयोग में आने वाले जल का घरेलू प्रयोजन के लिए तो 9 प्रतिशत ही खर्च होता है शेष 91 प्रतिशत कल कारखानों एवं कृषि जैसे कार्यों में खप जाता है। पेय जल की समस्या जटिल होती जा रही है न्यूयार्क के इर्द−गिर्द के नहीं तालाब पीने लायक नहीं रह गये है इसलिए उस शहर के लिए 500 मील दूर से पानी लाना पड़ा है।

देहाती क्षेत्र छोड़ कर शहरों में जा बसने की प्रकृति तेजी से बढ़ रही है। फलस्वरूप एक और देहातों से प्रतिभाओं का पलायन होने से वहाँ अवाँछनीयता निरंकुश रीति से बढ़ रही है और प्रगति की दिशा में बढ़ना कठिन हो रहा है। दूसरी ओर शहरों की जनसंख्या बढ़ने से घिचपिच ने बढ़ती गन्दगी को हटाने की समस्या अति जटिल कर दी है। इस क्षेत्र का कूड़ा कचरा, मल-मूत्र कहाँ जाय ? जितनी तेजी से गन्दगी बढ़ती है उतनी तेजी से सफाई का संतुलन कैसे बिठाया जाय? स्वच्छता के लिए धनशक्ति और जन शक्ति की भारी आवश्यकता है। फिर उन सफाई साधनों और कर्मचारियों के लिए अतिरिक्त स्थान भी तो चाहिए।

बड़े शहरों से सरकारी आय बढ़ती है-उद्योग व्यवसाय में सहायता मिलती है-सुविधा साधनों का सरलीकरण होता है-इसलिए उनके विकास विस्तार का लोभ छोड़ते नहीं बनता। शहर न बढ़ें-और नये लोग इनमें जा-जा कर न घुसें ऐसा कोई प्रतिबन्ध लग सकना इन दिनों कठिन है। शहरों का आकर्षण उनकी आबादी को तेजी से बढ़ा रहा है। क्षेत्र विस्तार उतना नहीं होता जितनी घिचपिच बढ़ती है। कारखाने अपना प्रदूषण अलग ही बढ़ाते हैं। हवा में धुँआ और नदियों में कारखाने का गन्दा पानी पहुंचता है। फलतः जलाशयों का पानी क्रमशः अधिकाधिक अपेय होता चला जा रहा है।

अमेरिका जैसे साधन सम्पन्न देश में मात्र 15 प्रतिशत लोग अपनी जन्मभूमि में मरते हैं। शेष इधर से उधर यायावरों की तरह आजीवन भटकते और एक पेड़ से उस पेड़ पर घोंसले बनाते, उजाड़ते किसी प्रकार जीते-मरते हैं। यह सच है कि फुरसत नाम की चीज विदा हो चली, आदमी बहुत व्यस्त है। ज्यादा-ज्यादा समृद्ध जल्दी समृद्ध-ज्यादा उपभोग की आदतें इतनी गति पकड़ रही है कि उसकी पूर्ति के लिए समय, श्रम और चिन्तन के सारे साधन झोंक देने पर भी अभावों की पूर्ति होती नहीं दीखती। अत्यधिक व्यस्त बनते जाने पर भी जो पल्ले पड़ता है वह आकाँक्षाओं की तुलना में बहुत कम पड़ता है। फलतः मनुष्य को अतृप्तिजन्य खिन्नता के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। व्यस्तता से भी तो तुष्टि नहीं मिलती। तनाव और खीज के कारण जीवन सम्पदा की पूँजी बेतरह और असमय चुकती चली जाती है।

दार्शनिक रिचाई बी0 ग्रेग ने लिखा है-मानवी इतिहास में आन्तरिक अनिश्चित भरे ऐसे बुरे दिन पहले कभी नहीं आये थे जितने अपने समय में है। जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, यातायात साधनों में तेजी आ रही है, सिक्के का फुलाब, विस्तार और विलासिता के उपकरण भी बढ़े हैं। इस प्रगति के होते हुए भी मनुष्य भीतर ही भीतर खोखला होता चला जा रहा है। संस्कृति के वे सूत्र जो मानवी अन्तःकरणों को परस्पर जोड़ते और आनन्द का अभिवर्धन करते हैं क्रमशः टूटते और बिखरते चले जा रहे हैं। इसे मानवी प्रगति का भयावह अवरोध ही कहा जा सकता है।

स्थायित्व न केवल बाह्य जीवनक्रम में से वह भीतर से भी पलायन करता दीखता है। कहा जाता है कि हम अपने इस औद्योगिक युग में प्रगति की और बढ़ रहे हैं। किन्तु यह प्रगति किस दिशा में हो रही है इसका लेखा-जोखा कोई ले नहीं रहा है। दौड़ तो जरूर हो रही है, पर यह भगदड़ किसे कहाँ पहुंचायेगी, उसे देखने-सोचने तक की फुरसत किसी को नहीं है। यह अन्धी दौड़ शायद स्थायित्व का विसर्जन करके अनिश्चित की सड़क पर गतिशील हो रही है।

संसार की विशेषतया तथाकथित प्रगतिवान देशों की स्थिति को देखते हैं तो लगता है कि लोग अपने पुराने मकानों को छोड़ कर बड़े शहरों की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में घोंसले बनाते चले जा रहे हैं, पर वहाँ भी वे कानूनी शासन के अंतर्गत रहते हुए भीतर ही भीतर अनिश्चित और असुरक्षित स्थिति में अपने को अनुभव करते हैं। किसी दैवी विपत्ति से पीड़ित व्यक्ति जिस तरह अपना घर बार छोड़ कर कहीं आश्रय पाने के लिए शरणार्थियों की तरह जा डेरा डालता है, उसी मन:स्थिति में लोगों को अनिश्चित स्थिति में रहना पड़ रहा है। यहाँ कौन अपना है ? किस स्थायित्व के आधार पर भविष्य की बात सोची जाय? जैसे प्रश्न अन्तरिक्ष में विलीन हो जाते हैं लौट कर कहीं से कोई उत्तर नहीं मिलता।

विलियम मोरिस कहते थे- ‘‘वृक्ष, वनस्पतियों को वायु प्रदूषण से और नदी, तालाबों को गन्दगी से भरते चले जाने का दुष्परिणाम हमें न सही तो हमारी पीढ़ियों को अवश्य भुगतना पड़ेगा। औद्योगिक प्रगति में विनोद को थियेटरों और शराब खानों में केन्द्रित किया है। इस घुड़दौड़ में जीवन और उसके आनंद को तो हम क्रमशः भूलते ही चले जा रहे हैं।”

ग्रेन ने लिखा है - “यदि आक्रमण, असुरक्षा और भ्रष्टता को निरस्त करना है तो मानवी चिन्तन की दिशाधारा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता पड़ेगी। स्कूली शिक्षा से लेकर साहित्य कला और प्रचार तन्त्र के समस्त साधनों को ऐसे लोक शिक्षण में लगाना चाहिए जिसके आधार पर जीवन के उच्चस्तरीय मूल्यों को समझने और निर्वाह करने की प्रेरणा मिल सके। समाज का ऐसा पुनर्गठन होना चाहिए, जिसमें बड़े कुटुम्बों के रूप में लोग मिल−जुल कर रहें और हिल-मिलकर काम करने, बाँटकर खाने और स्नेह सूत्र में बंधकर पारस्परिक सहायता में संलग्न रह सकें।”

विकसित प्राणियों की चेतना ने अधिक बच्चे उत्पन्न करने का सिद्धान्त अस्वीकार कर दिया। हाथी समुन्नत स्तर का प्राणी है। वह प्रायः आठ वर्ष बाद बच्चा जनने की तैयारी करती है। इसके विपरीत जो प्राणी जितने क्षुद्र हैं, वे अपनी दुर्बलता-मूर्खता के कारण वंश नाश के संकट को समझते हैं और अधिक संख्या में बच्चे जल्दी-जल्दी जनते हैं। कुत्ते सुअर खरगोश, चूहे जैसे प्राणी अधिक बच्चे जनते हैं मछली, मक्खी, आदि के अण्डे-बच्चे अगणित होते हैं, पर उनमें से थोड़े से ही जीवित बच पाते हैं। प्राणी को विकसित स्थिति का परिचय उसकी प्रजनन प्रक्रिया स्वल्प और सीमित होना है। समझदारी और स्थिति सुदृढ़ होगी तो उसका प्रमाण प्रजनन की न्यूनता के रूप में सहज ही दृष्टिगोचर होगा।

शक्ति, रफ्तार, प्रसन्नता, साक्षरता और सम्पन्नता की वृद्धि को उपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता पर यह ध्यान रहे सज्जनता, शालीनता, उदारता और सहकारिता जैसी आत्मिक विभूतियों को बढ़ाये बिना सुविधा और सशक्तता के रहते हुए भी जीवन का आनन्द प्राप्त कर सकना और सुख शान्ति की परिस्थितियाँ बनाये रहना सम्भव न हो सकेगा। अर्थ-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था और समाज व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ अध्यात्म आस्थाओं को भी परिष्कृत बनाया जाना चाहिए। अन्यथा याँत्रिक प्रगति पर अवलम्बित रह कर मनुष्य स्वयं एक यंत्र बन जायगा और अपनी मौलिक विशेषता गँवा बैठेगा।

हवा में धुँऐ तथा विकरण की विषाक्तता-पानी में गन्दगी की बढ़ोत्तरी-जमीन की उत्पादन शक्ति का असाधारण दोहन-वृक्ष और वनस्पतियों के लिए अभीष्ट भूमि का अपहरण-जैसे संकट उत्पन्न करके जिस प्रगति या समृद्धि का गर्व अनुभव किया जा रहा है, वह मनुष्य का जीवन एक भविष्य संकट में डाल कर ही स्थिर रखा जा सकता है। विज्ञान ने प्रकृति पर अधिकार करने की बढ़ी-चढ़ी क्षमता मनुष्य के हाथ में प्रदान की है, पर ज्ञान ने उनका उपयोग सदुद्देश्य के लिए करना न सिखाया तो बन्दर के हाथ पहुँची यह तलवार मात्र अनिष्ट ही उत्पन्न करके रहेगी।

कुरीतियों और अन्ध परम्पराओं से छुटकारा दिलाने का दावा आधुनिक बुद्धिवाद ने ठीक ही किया है। उसने भूत-पलीतों और ग्रह-नक्षत्रों की हुकूमत सचमुच ही निरस्त कर दी है, पर नशेबाजी, यौन स्वेच्छाचार एवं साधनों की बर्बादी के अपव्यय का नया चस्का लगा कर नये प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों में फँसा दिया है मारक और मादक औषधियों के प्रति बढ़ती हुई श्रद्धा क्या भूत-पलीत पूजने से कुछ कम हानिकारक कही जा सकती है?

अपने जमाने में संसार की सबसे स्वस्थ जाति ‘हुज्जा’ लोगों की है। यह लोग मध्य एशिया के ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहाँ अभी आधुनिक सभ्यता का प्रवेश नहीं हुआ है। वे लोग जमीन में प्राकृतिक खाद देकर अन्न उपजाते हैं -कड़ी मेहनत करते हैं-और हंसते-हंसाते जीते हैं। बुरी लतों से वे बचे हैं फलतः प्रकृति का परिपूर्ण प्यार उन्हें मिलता है और निरोग दीर्घ जीवन का आनन्द लेते हैं।

हमें जीवन स्तर-‘‘स्टेण्डर्ड आफ लाइफ” बढ़ाने की अपेक्षा जीने का स्तर “स्टेण्डर्ड आफ लिविंग” बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह तथ्य जन मानस में गहराई तक प्रवेश कराया जाना चाहिए कि उत्पादन एवं उपयोग ही नहीं साधनों के सदुद्देश्य के लिए उपयोग की आवश्यकता है। आदर्शविहीन प्रगति तो अवगति से भी महंगी पड़ती है। विकृत व्यक्तित्व अपने लिए और समाज के लिए संकट ही उत्पन्न करते चले जायेंगे, साधनों की दृष्टि से वे भले ही कितने ही सुखी अथवा समृद्ध क्यों न हो।


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