चमत्कारी सिद्धियाँ न उपयोगी हैं न आवश्यक

July 1976

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एक अंग्रेज पादरी अफ्रीका में धर्म प्रचार के लिए गया। जंगली लोगों ने उसे पकड़ लिया और वध करने की तैयारी करने लगे। पादरी को चतुरता सूझी उसने अपने को दैवी शक्ति सम्पन्न सिद्ध करने के लिए अपने नकली दाँतों के जोड़े मुँह से बाहर निकाले और पोपला मुँह दिखाया। इसके बाद फिर निकली दाँत मुँह में डाल कर नया ढंग का चेहरा बना लिया ऐसा उसने तीन बार किया। जंगली लोगों ने ऐसा अद्भुत हृदय कभी न देखा था, वे उसे देखकर सन्न रह गये। इतना ही नहीं पादरी ने अपने थैले से दर्पण निकाला और उन लोगों को दिखाया। सब ने एक-एक दैत्य आकृति उसमें देखी और अनुमान लगाया कि इसके हाथ में प्रेतात्माओं की शक्ति है। वे बहुत गिड़गिड़ाये और पादरी के गुलाम बनकर रहने लगे।

लगभग इसी घटना की पुनरावृत्ति धूर्त बाजीगर अपने को चमत्कारी सिद्ध पुरुष कहकर मूर्खों की हजामत उलटे उस्तरे से बनाते रहते हैं। इन दिनों एक बाबा बालों में बालू निकाल देने या ऐसे ही अन्य अजूबे दिखाने के लिए प्रसिद्ध है। उनकी पूजा इन करामाती कौतूहलों के नाम पर ही होती है और नये-नये भक्त इन्हीं किम्वदन्तियों से प्रभावित होकर बढ़ते चलते हैं। विचारणीय तथ्य यह है कि क्या अध्यात्म का प्रतिफल चमत्कार है।

भगवान बुद्ध ने अपने एक शिष्य का स्वर्ण कमण्डल तुड़वा कर नदी में प्रभावित करा दिया था और अपने समस्त शिष्यों को एकत्रित करके यह प्रतिबन्ध लगाया था कि उनमें से कभी कोई किसी प्रकार का आलौकिक चमत्कार न दिखाये। बात यह हुई कि एक राजा ने ऊँचा बांस गाढ़ कर उस पर स्वर्ण कमण्डल लटकाया था और घोषणा की थी जो उस पर चढ़कर कमण्डल उतारेगा वही सिद्ध पुरुष माना जायेगा और राजा उसी का शिष्य बनेगा। इस परीक्षा में कोई ज्ञानवान सफल न हुआ। एक नट कुछ ही समय पूर्ण भिक्षु मण्डली में सम्मिलित हुआ था उसे बाँस पर चढ़ने का अभ्यास था सो सहज ही चढ़ गया और कमण्डलु उतार लाया। उसे बहुत धन और सम्मान मिला। यह समाचार लेकर जब वह भगवान बुद्ध के पास आया और अपनी चतुरता की चर्चा करने लगा तो वे बहुत दुःखी हुए और उस सफलता की भर्त्सना करते हुये उपहार को नष्ट करा दिया। उनका कहना था कि यदि चमत्कार ही अध्यात्म की कसौटी बनने लगे तो फिर बाजीगरों की बन आवेगी और तपस्वी, ज्ञानवान और लोकसेवियों की कोई बात भी न पूछेगा।

सर्वसाधारण को समझना चाहिए कि अध्यात्म का चमत्कारों से कोई संबंध नहीं। इस मार्ग पर चलते हुए जो अतीन्द्रिय शक्ति विकसित होती है उसका प्रयोग किसी अति महत्वपूर्ण प्रयोजन के लिए कोई उच्चस्तरीय आत्माएँ ही कर सकती हैं। वैसे लोग जो चमत्कार प्रदर्शन में उत्साह दिखाते हैं, वस्तुतः सिद्ध पुरुष नहीं बाजीगर होते हैं। जिनके पास वस्तुतः वे हों भी तो वे भूलकर भी उन्हें प्रदर्शन में प्रयुक्त न करेंगे।

सिद्धियाँ अनावश्यक और अस्वाभाविक हैं। उनका सामान्य मनुष्य जीवन में कोई उपयोग नहीं, वरन् उलटी हानि है। इसलिए सच्चे आत्मवेत्ता न तो किसी को चमत्कार दिखाते हैं और न उसके लिए किसी को शिक्षा देते हैं। उत्कृष्टता चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति अध्यात्म की सच्ची साधना है, जिनके पास यह आधार मौजूद है वे सामान्य स्थिति में रहते हुये भी देवोपम जीवन का आनंद ले सकते और उस आलोक से असंख्यों को लाभान्वित कर सकते हैं। यही सच्चे अर्थों में अध्यात्म का चमत्कार है।

आलौकिक सिद्धियाँ सर्वसाधारण के लिए उपयोगी नहीं होती इसलिए ईश्वरीय विधान के अनुसार उन्हें अविज्ञात एवं रहस्य के पदों में छिपा हुआ ही रहने दिया गया है। यदि वे सर्वविदित हो जायं या सर्वसुलभ हो जायें तो फिर सामान्य जीवन की क्रिया-प्रक्रिया ही अस्त-व्यस्त हो जायेगी।

मृत्यु का समय यदि पूर्वविदित हो तो मुद्दतों पहले से मनुष्य भयभीत, उदास और खिन्न रहने लगेगा। सामान्य क्रिया-कलापों के प्रति उदासीनता छा जायेगी और मानसिक असन्तुलन के कारण कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। जब अमुक समय से आगे-पीछे नहीं ही मरता है तो वह किसी से भी प्रतिशोध लेने के लिए आक्रमणकारी बन सकता है, निर्भय होकर कुछ भी कर गुजर सकता है फिर या तो मनुष्य आगा-पीछा न सोचने वाला दुर्दान्त बन जायेगा अथवा निरन्तर खिन्न, उदास रहकर बेबसी और वियोग के आँसू बहाता रहेगा। जीवित रहने का आनंद तभी तक है जबकि मृत्यु का समय ठीक से मालूम न हो। दीर्घजीवन के लिए किये गये प्रयास तभी हो सकते हैं जब मरण की तिथि अनिश्चित समझी जाए और मौत को आगे धकेल सकना सम्भव माना जाय। जो जल्दी मरने वाले होंगे उससे कोई विवाह करने को ही तैयार न होगा और उन्हें अविवाहित, उपेक्षित रहकर ही मरना पड़ेगा। जिसे जहाँ जिस प्रकार मरना है उसे उन परिस्थितियों से बचने की तरकीबें पहले से ही अपनाने का अवसर मिल जायेगा और फिर यदि मृत्यु का कोई विधान होता होगा तो उसे कार्यान्वित करना ईश्वर के लिये भी कठिन पड़ जायगा। सम्भवतः यही सब समझते हुए भगवान ने मनुष्य को मृत्यु ज्ञान से वंचित रखा है।

अदृश्य हो जाने की विद्या यदि कोई सीख ले तो वह बड़े से बड़े अपराध करते रहने पर भी पकड़ा न जा सकेगा। ऐसे व्यक्ति नर-नारी के मध्य होने वाले गुह्य आचरणों को देखते रहेंगे और फिर किसी को लज्जा बचा सकना सम्भव न रह जायेगा।

मानवी इन्द्रियों की क्षमता उतनी ही रखी गई है जिससे जीवन का आवश्यक क्रम भर ठीक तरह चलता रहे। प्रकाश किरणों का एक नियत स्तर ही आँखों की दिखाई पड़ता है अपनी आँखों की पकड़ से न्यून एवं अधिक स्तर के दृश्य भी इस संसार में मौजूद हैं। वे हमें दीखते नहीं। इससे काम के दृश्य देखने में सुविधा रहती है। यदि पानी, हवा, मिट्टी आदि में रेंगने वाले जीवाणु उतने ही स्पष्ट दीखने लगे जितने माइक्रोस्कोप से देखते हैं तो फिर आँखों के सामने एक अपार भीड़ से घिरी हुई भयंकर मेले जैसी दिखाई पड़ने लगेगी। तब काम और बेकाम के दृश्यों का इतना अन्धड़ सामने खड़ा होगा कि बेचारी आँखें हतप्रभ हो जायेंगी और मस्तिष्क के लिए उन दृश्यों को देखकर यह निष्कर्ष निकालना कठिन हो जायगा कि सामने क्या हो रहा है?

यही बात कानों के सम्बन्ध में है, हमारे कान एक सीमित स्तर की थोड़ी-सी ध्वनियाँ सुन पाते हैं किन्तु उनसे ऊँचे और नीचे कम्पनों की असंख्य ध्वनियाँ अपने चारों ओर मंडराती रहती हैं। यदि वे सभी सुनाई पड़ने लगें तो स्थिति लगभग उसी स्तर की हो जायगी जैसी कि किसी ट्राँजिस्टर पर संसार के सभी स्टेशन एक साथ बोलने लगने पर विचित्र प्रकार की न समझे जा सकने योग्य मिश्रित ध्वनि प्रवाह की चें-चें असमंजस में डाल देगी। अस्तु भगवान ने आँख, कान, नाक आदि इंद्रियों में उतनी ही शक्ति दी है जितनी से मनुष्य का आवश्यक कार्य सरलतापूर्वक चलता रहे। इससे न्यूनाधिक देने में मनुष्य को लाभ कम और हानि अधिक हो सकती है। अतीन्द्रिय क्षमता इसी कारण सर्वसुलभ नहीं हैं जो उसे बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे वे उसमें कौतूहल वृद्धि भले ही कर लें, पर परिणामतः उससे हानि ही उठायेंगे।

जिन प्राणियों की निर्वाह प्रक्रिया में जिस विशेषता की आवश्यकता समझी गई है वह उसे परमात्मा ने उदारतापूर्वक दी है। कुत्ते में सूँघने, बन्दर में उछलने, घोड़े में दौड़ने, सिंह में पछाड़ने की विशेषताएँ उनके जीवन क्रम की सुविधा के अनुरूप हैं। मधुमक्खी, चींटी, दीमक, मकड़ी आदि में भी अनोखे गुण हैं। पक्षियों में उड़ने की विशेषता है यदि वैसी सर्पों को मिल जाय तो सर्वत्र प्राण संकट ही छा जायगा मनुष्य यदि आकाश में उड़ने लगे तो फिर सुरक्षा समस्या में ऐसी जटिलताएँ उत्पन्न हो जायेंगी जिनका समाधान ही न हो सके। यदि भगवान ने एक हाथ में उड़ने की विशेषता दी तो निश्चय है कि दूसरे हाथ से बुद्धि कौशल वापस ले लिया जायगा, ताकि किसी को अति बरतने और सृष्टि संकट उत्पन्न करने की छूट न मिले।

पूर्व जन्मों की स्मृति यदि सबको बनी रहे तो फिर हर व्यक्ति असन्तुष्ट दिखाई पड़े। पूर्व जन्मों के स्त्री-बच्चे याद आते रहने पर बच्चे इस जन्म के माता-पिता से रुखाई रखेंगे और पूर्व जन्मों के स्त्री, पुत्रों के पास जाने के लिए मचलते रहेंगे। पति पूर्वजन्म की पत्नी का कहाँ जन्म हुआ है यह पता लगाकर उससे संपर्क जोड़ेंगे और स्त्रियाँ प्रस्तुत की और से उदासीन रहकर पूर्व जन्म के पति को तलाश करती फिरेंगी। आधी कमाई इधर, आधी उधर-आधा मन और समय इधर, आधा उधर-बँट जाने से अव्यवस्था, उदासीनता एवं असन्तोष की स्थिति ही सर्वत्र संव्याप्त रहेगी। पूर्व जन्मों की स्मृति की घटनाएं इसलिए कौतूहल वर्धक और अच्छी लगती हैं कि ये कभी-कभी ही देखने-सुनने को मिलती हैं और एक हल्की-सी झलक दिखाकर लुप्त हो जाती हैं। यदि वे स्थायी तथ्य बन जाय और हर किसी को पूर्व जन्म याद रहने लगे तो पारिवारिक जीवन का वर्तमान क्रम सर्वथा उलट जायगा और उत्तरदायित्वों के बन्धन सर्वथा शिथिल हो जायेंगे।

यही बात अन्य सिद्धियों के सम्बन्ध में है। अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियों का वर्णन जहाँ तहाँ मिलता है वे किसी व्यक्ति विशेष के लिए विशेष स्थिति में कौतूहलवर्धक एवं उपयोगी हो सकती हैं, पर सर्वसाधारण के लिए उनका मिलना नये प्रकार के संकट उत्पन्न करने का कारण ही बन जायगा।

मन की गुप्त बातें या दूसरों के रहस्य जान लेने से तो चोरों की पौ बारह होने लगेगी। वे धनियों के धन का पता लगाकर ठीक स्थान पर घात लगाया करेंगे। मन की बातें दूसरे पर प्रकट होने लगें तो फिर पूछताछ करना ही निरर्थक हो जायगा। एक-दूसरे को बिना कुछ कहे पूछे ही प्रयोजन जानने और उत्तर देने का काम निपटा दिया करेंगे। तब सरकारी बजट, शासनाध्यक्षों को दिलाई जाने वाली गोपनीयता की शपथ का कोई मूल्य न रहेगा। तब गुप्तचर विभाग भी तोड़ देना पड़ेगा। झूठ-सच का पता लगाने के लिए जो इतने तरीके काम में लाये जाते हैं, वे भी व्यर्थ माने जायेंगे। युद्ध योजनाएँ पहले से ही प्रकट हो जाया करेंगी। ऐसी दशा में लोक-व्यवहार में जो बुद्धि कौशल प्रयुक्त करना पड़ता है उसकी कोई आवश्यकता न रहेगी। अधिकांश काम तो अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे, जो शेष रहेंगे वे बड़ी आसानी से संकेत मात्र में निपट जाया करेंगे।

ज्योतिषी लोग आये दिन तेजी-मन्दी की भविष्य-वाणियाँ छापते रहते हैं। पर वास्तविकता यह है कि इस प्रकार के ज्ञान से मनुष्य को सर्वथा वंचित रखा गया है। मिथ्या डींग हाँकने पर कहीं किसी पर रोक नहीं, यदि यथार्थ में किसी एक व्यक्ति को भी ऐसा ज्ञात हो जाय तो वह एक सप्ताह में अरबपति ही नहीं विश्व के समस्त व्यापार का अधिपति और कुबेर भण्डारी बन सकता है। वह व्यक्ति दूसरों को यह रहस्य बताने की अपेक्षा स्वयं ही व्यापार करने लगेगा। मन्दी आने पर खरीदना और तेजी होने पर बेचने भर का धन्धा करने में वह कभी असफल हो ही नहीं सकता जिसे भावों की घट-बढ़ का सुनिश्चित ज्ञान है। ऐसी दशा में उसे साझीदारों की भी कोई कठिनाई न होगी और बात की बात में ऐसी व्यवस्था बन जायेगी जिनमें उसे करोड़पति, अरबपति बनने में देर न लगे।

यदि तेजी-मन्दी का वास्तविक ज्ञान लोगों को होने लगे तो फिर व्यापार क्षेत्र में घोर अव्यवस्था फैल जायगी और फिर एक प्रकार का गदर ही खड़ा हो जायगा। जो मन्दी होने वाली है उसे कोई खरीदेगा नहीं और जो महंगी जाने वाली है उसे बेचने के लिए कोई तैयार न होगा। ऐसी दशा में ग्राहकों को अपनी दैनिक आवश्यक वस्तुओं से भी वंचित रह जाना पड़ेगा।

लोगों को यदि अपने भाग्य का पता चल जाय तो कोई कुछ भी प्रयत्न, परिश्रम करने के लिए तैयार न होगा। जब हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, भाग्य लेख के अनुसार ही मिलता है तो प्रयत्न पुरुषार्थ की माथा-पच्ची करने से क्या लाभ ? जो होना है वह तो होगा ही। फिर रोग की चिकित्सा, शत्रुओं से सुरक्षा, उपार्जन के लिए दौड़-धूप, पढ़ने में सिर फोड़ी करने, मर्यादाएँ पालन करने, प्रगति के लिए प्रयत्न करने और सम्भावित कठिनाइयों से सतर्क रहने का भी कोई तुक नहीं है। ऐसी दशा में प्रगति और सुरक्षा की दृष्टि से किये जाने वाले प्रयत्न सर्वथा निरर्थक ही बन जायेंगे। ऐसी दशा में सर्वत्र निष्क्रिय अकर्मण्यता का ही साम्राज्य सर्वत्र छाया हुआ दिखाई पड़ेगा। तब ज्योतिषियों का धन्धा भी बन्द हो जायगा। क्योंकि उन्हें पता ही होगा कि कब कहाँ से कितना पैसा मिलने वाला है? जो मिलना भाग्यानुसार निश्चित है, वह तो घर बैठे भी आ जायगा फिर भविष्य कथन के झंझट में पड़ने से भी क्या लाभ?

मनुष्य की सम्भाषण और गायन विशेषता दूसरे प्राणियों की दृष्टि से एक देवोपम सिद्धि हो सकती है। दो पैरों से चलना और दो हाथों से अद्भुत क्रिया-प्रक्रियाएँ सम्पन्न करना भी अन्य प्राणियों के लिए किसी चमत्कारी सिद्धि से कम नहीं, पर अभ्यास में आ जाने के कारण मनुष्य को यह सब बातें बिलकुल सामान्य और स्वाभाविक लगती हैं। जिन दिनों अग्नि का आविष्कार हुआ था उन दिनों उसे देवता का अवतरण माना गया था और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक पूजन का विधान चला था। पहली बार जिनने रेलगाड़ी देखी थी उन्होंने उसे साक्षात काली समझ कर भयभीत भाव से मनुहार किया था-इसी प्रकार टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन भी कम आश्चर्यजनक नहीं। विज्ञान से अपरिचित लोगों ने उन्हें जहाँ भी देखा अवाक् रह गये और इन अद्भुत उपकरणों में दैवी शक्ति होने का अनुमान लगाने लगे। पर अब तथ्यों का पता चल जाने पर सब वस्तुएं नितान्त सरल सामान्य बनकर रह गई हैं ।

जो जितना आवश्यक है वह उतना ही सुलभ है। हमारे जीवन के लिए हवा सबसे अधिक आवश्यक है वह सर्वत्र प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है उससे आगे चलकर पानी का स्थान है। अन्न उसके बाद है, वह भी खेत-खेत में उपजता है और हर जगह सामान्य मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है। जो धातुएं जितनी अधिक आवश्यक हैं वे उतनी ही अधिक मात्रा में मिलती हैं। सोना, विष, रेडियम, यूरेनियम आदि की दैनिक जीवन में उपयोगिता न होने से वे कम मात्रा में कठिनाई से मिलते हैं। ईश्वर का यह विधान बहुत ही दूरदर्शितापूर्ण है जिन सिद्धियों की आवश्यकता है वे सामान्य प्रयास से ही मिल जाती है, पर अनावश्यक विशेषताओं से मनुष्य को वंचित रखा गया है। बाल-बुद्धि को असामान्य ही अद्भुत लगता है यदि सिद्धियाँ मनुष्य के हाथ में आ जायं तो सामान्य बन जाने पर उनकी ओर कोई आँख उठाकर भी न देखेगा। इतना ही नहीं उनके कारण उत्पन्न होने वाली अव्यवस्था को देखते हुए सम्भवतः उन पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाने की भी आवश्यकता पड़ सकती है।


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