माँसाहार मानवता के प्रति अपराध

July 1976

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माँसाहार के पक्ष में जितनी दलीलें दी जाती हैं इस एक के अतिरिक्त और सभी थोथी हैं। जो दलील सही है वह यह कि मनुष्य के भीतर रहने वाले शैतान को अपनी निर्मम क्रूरता के साथ सहनृत्य करने का अवसर मिलता है। यदि पौष्टिक आहार की बात कही जाय तो माँस में पाया जाने वाला प्रोटीन, दालों की तुलना में कहीं घटिया है और उसके सहारे पशुओं के रोगों और उनकी आदतों को शरीर में प्रवेश कर जाने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। शाकाहार की उत्कृष्टता स्पष्ट है। माँसाहारी जन्तु शाकाहारी जन्तुओं का ही शिकार करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि माँसाहारी जीवों के शरीर में विषाक्तता कितनी बड़ी मात्रा में भरी रहती हैं। सिंह और भेड़िया एक दूसरे का माँस नहीं खाते और न बाज, चील, गिद्ध आपस में झपटते हैं, उनकी घात शाकाहारी पशु-पक्षियों पर ही रहती है। क्योंकि माँसाहारी की तुलना में शाकाहारी का शरीर कितना विशुद्ध रह सकता है, इस तथ्य को वे रक्त पायी प्राणी भी जानते हैं। मनुष्य की बुद्धि ही है जो इस सीधे-सीधे तर्क की अवहेलना करके माँसाहार का समर्थन करती है।

स्वाद की दृष्टि से देखा जाय तो भी कच्चे माँस का रूप, गन्ध और स्वाद ऐसे हैं जिसे सरल मानवी प्रकृति कभी स्वीकार नहीं कर सकती। कदाचित ही कोई नरभक्षी क्रूर-कर्मा कच्चे माँस को उदरस्थ करने का साहस कर सके। पकाने, भूनने में जो चिकनाई और मिर्च मसालों की भरमार की जाती है उसी को माँस का स्वाद गिन लिया जाता है। मसालों की भरमार और भूनने-तलने की विधि से तो घास और कंकड़ के भी साग, अचार बन सकते हैं इसमें मूल पदार्थ का स्वाद कहाँ रहा?

पशुओं को मार कर खाने से खाद्य पदार्थों की कमी दूर हो सकती है या अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी हो सकती है- अर्थ शास्त्रियों को इस तरह समझाना मानवी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ खिलवाड़ करना है। तथ्यों को झुठलाना भी। पशुओं के श्रम और उनके दूध, घी आदि से खाद्य पदार्थ जितनी मात्रा में उगाये जा सकते हैं उतने उनको नष्ट करके उन्हें फाड़-चीरकर खा जाना बिलकुल सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के सारे अण्डे एकबारगी निकाल लेने के लिए उसका पेट चीर डालने के समान ही मूर्खतापूर्ण है। उनके गोबर का सदुपयोग करके उतना खाद्य पदार्थ उगाया जा सकता है जो माँस की तुलना में भार और मूल्य दोनों ही दृष्टि से कहीं अधिक होगा। अर्थशास्त्र को जिन्हें मोड़ना-मरोड़ना नहीं है वे यह भ्रम उत्पन्न नहीं कर सकते कि पशुओं को मार-काटकर समाप्त कर देना उनके माँस को उदरस्थ करना खाद्य समस्या अथवा अर्थ समस्या का कारगर हल है। नकली चमड़े के उत्पादन की विधियाँ कार्यान्वित हो रही हैं इसलिए चमड़े की आवश्यकता के बहाने पशु वध के औचित्य का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।

माँसाहार के पक्ष में दी जाने वाली सभी दलीलों का खोखलापन तर्क और तथ्य की कसौटी पर कसा जा सकता है और उस बकवास की व्यर्थता की थोड़ी सी बुद्धिमत्ता का प्रयोग करके सहज ही समझा जा सकता है। पर उस दलील का कोई जवाब नहीं कि मनुष्य के अंतरंग में किसी कौने में शैतान और पिशाच भी छिपा बैठा रहता है और उसकी तृप्ति क्रूर-कर्मों के बिना नहीं हो सकती पाप और अनाचार के लिए ही वह आतुर रहता है। फिर कानून एवं दण्ड की पकड़ से बचकर यदि नृशंसता का खेल खेलना सम्भव हो तो क्यों न खेला जाय ? प्राणियों के मरण चीत्कार को-व्याकुल तड़पन को देखते, बढ़ाने का मनोरंजन लाभ क्यों न लिया जाय ?

कैनेडियन थियोसोफिस्ट ने अपने देश में कछुए की पीठ से बने विभिन्न कलात्मक उपकरणों की वृद्धि की चर्चा करते हुए लिखा है- कछुओं की पीठ काट ली जाती है और फिर उन्हें मार्मिक वेदना सहते हुए नई पीठ उत्पन्न करने के लिए जीवित रहने दिया जाता है। इस प्रकार बार-बार उनके साथ नृशंस व्यवहार किया जाता रहता है। प्रायः 73000 पौंड से अधिक वजन के कच्छप उपकरण तो विदेशों को ही निर्यात किये जाते हैं। इस देश में होने वाली खपत तो और भी अधिक है।

विभिन्न प्रकार के शृंगार साधन बनाने के लिए आये दिन लाखों-करोड़ों प्राणियों को बलिवेदी पर चढ़ना पड़ता है। हाथी दाँत, रोएँदार खाल, मृग मद, लाख के खिलौने, मोम के पदार्थ, रेशम के वस्त्र, मोती-आभूषण उपयोग करने वाले यदि यह देख, समझ पाते कि उनकी इस विलासिता के लिए कितने प्राणियों को किस प्रकार करुण चीत्कार करते हुए अपने प्राण देने पड़ते हैं तो उन्हें अपने ऊपर घोर घृणा ही आ सकती थी। मछलियों को उबाल कर निकाले जाने वाला तेल हजारों टन नित्य इसलिए पिया जाता है कि इससे शरीर पुष्ट होगा, पर साथ ही उसके कारण उत्पन्न होने वाली आन्तरिक निकृष्टता और उसकी हानिकारक प्रतिक्रिया को भी सोचा जाता तो प्रतीत होता कि यह लाभदायक नहीं हानिकारक प्रयास है। औषधियों के नाम पर अब नये किस्म के बूचड़खाने खड़े हो रहे हैं। परीक्षण और अन्वेषण के नाम पर जिस प्रकार मूक प्राणियों की तिल-तिल करके हत्या की जाती है उसे मानवता के न्यायालय में कदाचित ही समर्थन मिल सके।

भूतकाल में सौन्दर्य प्रसाधन भी थे और औषधियाँ भी। तब न तो सौन्दर्य का अभाव खलता था और न सफल चिकित्सा क्रम में कोई बाधा पड़ती थी। अब प्राणियों के इस प्रकार उत्पीड़न से जो प्रसाधन उपलब्ध किये गये हैं उसके निर्माता कहते कुछ भी रहें तथ्य यही कहते रहेंगे कि इससे न तो मानवी स्वास्थ्य की सुरक्षा हुई है और न शोभा, सौन्दर्य का स्तर ऊँचा उठा है। इसके विपरीत हमें मानवी उत्कृष्टता की भयावह क्षति करने वाले गर्त में ही धंसते चले गये हैं और उसके दुष्परिणाम वर्तमान में ही नहीं भविष्य में भी भुगतने के लिए विवश होंगे।

अमेरिका के नेचुरल हाईजिनिक सोसाइटी के डॉक्टर शेल्टन ने रहस्योद्घाटन किया है कि पशु अंगों से बनाई जाने वाली दवाएँ तत्काल भले ही कुछ लाभ करती हों, पर पीछे लकवा, केन्सर, स्नायु, विघटन जैसे भयानक रोग उत्पन्न करने का कारण बनती हैं। घोड़े से बनाये गये सीरम का उपयोग करने वाले रोगी, बड़ी मात्रा में लकवे के शिकार हुए हैं।

लन्दन की वेजीटेरियन ऐसोसिएशन ने कुछ समय पूर्व एक हजार लड़कों को शाकाहार पर तथा उसी नगर की काउन्टी कोन्सिल ने एक हजार बच्चों को माँसाहार पर छह महीने तक रखा और यह परीक्षण किया कि इस आहार अन्तर का क्या प्रभाव पड़ता है ? स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने दोनों वर्गों की बारीकी से परीक्षा की और पाया कि माँसाहारियों की तुलना में शाकाहारियों का स्वास्थ्य तथा वजन कहीं अधिक अच्छा रहा।

न्यूयार्क ट्रिब्यून के भूतपूर्व सम्पादक ‘हरेस ग्रीरेले’ ने अपने लम्बे अनुभव और प्रामाणिक अन्वेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि माँसाहारी की तुलना में शाकाहारी दस वर्ष अधिक जी सकता है।

मार्क्स ओरेलियस - चार्ल्स ब्रेल्ड, क्लेजियस, एमर्सन, प्लुटार्क प्रभृति विचारकों ने मावन समाज में बढ़ रहे माँसाहार पर भी चिन्ता व्यक्त की है और आशा प्रकट की है कि इस प्रचलन का प्रभाव भावनात्मक उत्कृष्टता की जड़ें खोखली कर देगा। मनुष्य क्रमशः अधिक क्रूर, स्वार्थी और पतनोन्मुख होता चला जायगा। जिसका परिणाम व्यक्ति और समाज दोनों को घातक प्रतिफलों के रूप में भुगतना पड़ेगा।

दार्शनिक कालरिज कहते थे-‘जो प्राणियों से प्यार करता है उसे ही सच्चा प्रभु भक्त कहना चाहिए। भक्ति जिस अन्तःकरण में निवास करेगी वह प्रभु की प्रजा को सताने का क्रूर कर्म कर ही नहीं सकेगा।’

पाइथागोरस ने लिखा है-‘लोगों ने तुम्हारे भोजन के लिए बिना रक्त बहाये, उत्तम भोजनों की व्यवस्था मौजूद की है। फिर क्यों पाप-पूर्ण अखाद्य माँस के लिए ललचाते हो। वह मत खाओ जो तुम्हारे लिए सर्वथा अयोग्य है।

जार्ज बर्नार्डशा का कथन है-युद्धों की उत्पत्ति, अपराधों की वृद्धि, मनोविकार की बाढ़ आवेश और क्रूरता युक्त प्रकृति का प्रधान कारण बढ़ता हुआ माँसाहार ही है।

जे0 जे0 औसले लिखित ‘दी गास्पेल आफ होली ट्वैल्स’ पुस्तक में यह सिद्ध किया है कि ईसाई धर्म की आत्मा माँसाहार की अनुमति नहीं दे सकती। भले ही प्रचलित प्रथा के अनुसार उसका खण्डन न किया जाता हो।

सर कालिन कार्बेट की पुस्तक ‘दी रिंगिग रेडियन्स’ में माँसाहार से होने वाली भावनात्मक क्षति के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध किया है कि माँसाहार की बुरी आदत को प्रश्रय देने वाले के लिए आन्तरिक उत्कृष्टता प्राप्त कर सकना कितना कठिन हो जाता है।

मारगरेट अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ0 ओल्ड फील्ड का कथन है कि ‘माँस मनुष्य के लिए अप्राकृतिक खाद्य है। उसका बढ़ता हुआ उपयोग जन साधारण के लिए स्वास्थ्य संकट उत्पन्न कर रहा है। माँस भक्षण का दुष्परिणाम कालान्तर में साँघातिक रोगों का रूप धारण करता है।’

ऐनी बीसेन्ट ने कहा था-‘पशु हत्या से मानवी प्रकृति में क्रोध, आवेश, कामुकता, ईर्ष्या, प्रतिशोध जैसे अमानुषी उच्छृंखल तत्व बढ़ते हैं। माँसाहार से शरीर की ही नहीं मन की भी रुग्णता बढ़ती है। काटे गये पशुओं का चीत्कार मनुष्य जाति पर नाना प्रकार की विपत्तियाँ बनकर बरसता है।

चार्ल्स ब्रैन्ड ने संसार के महामानव की एक सूची तैयार की है और बताया है कि वे सभी शाकाहारी थे, माँसाहार को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। इन महामानवों में बुद्ध, कन्फ्यूशियस, जोरास्टर, मूसा, ईसा, इम्पीडोललस, पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो, होमर, पारफाइरियस, लुक्रेजियस, सिसरो, होरेस, यूरेपीडीज, स्पाइजेसिन, न्यूटन, लोवारडोदा, विन्सी, क्याडानों, सन्तफ्राँसिस, गैसेडी, लिट्टर मिल्टन, फ्रेंकलिन, सन्त पीयरे, वायरन, शैली, मिचलेट, दान्ते, वालटर, टॉलस्टाय, रेवलूज, फ्राँज, हार्टमान, बर्नार्डशा, कार्मन साइलावा, जैमेन हाफ, वाल्टेयर, रूसो, नित्से, वेगनर, शोपनहार, हुम्वोल्ट, लेवेनीज, लिग्ने, क्यूनियर, नित्से, ह्मूफलैण्ड, वेलासी, एडीशन, गोइथे आदि का सप्रमाण उल्लेख है।

मानवी महानता और करुणा का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। महान व्यक्ति करुणा से ओत-प्रोत होते हैं अथवा करुणा की प्रतिक्रिया महानता के रूप में परिणत होती है। जो भी हो करुणा और महानता एक ही तथ्य के दो पक्ष है जहाँ मानव आदर्शों को सामने रखेगा वहाँ माँसाहार के लिए कोई उत्साह न रह जायगा।


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